१. पार्वती को ‘अपर्णा’ एवं ‘उमा’ कहने के कारण
‘शंकर की प्राप्ति के लिए हिमालय की पुत्री पार्वती अत्यंत कठिन तप करती है । वह अन्नजल का त्याग कर देती है । संस्कृत भाषा में ‘पर्ण’ अर्थात पत्ता । पार्वती तप करते समय वृक्ष के पत्ते का भी भक्षण नहीं करती; इसलिए उसे ‘अपर्णा (पत्ता भी न ग्रहण करनेवाली)’ नाम प्राप्त हुआ । संस्कृत भाषा में ‘मा’ अर्थात ‘नहीं’ । पुत्री को लाड से ‘उ’ कहकर पुकारते हैं । पार्वती का तप देखकर उनकी मां को बेटी की चिंता होने लगी । इसलिए वे बोलीं, ‘हे, उ ! मा’, अर्थात ‘अरे लाडली बेटी, इतना कठोर तप न करो !’ इसीलिए पार्वती को ‘उमा’ कहते हैं ।
२. भगवान शंकर द्वारा पार्वती को साधना करते समय अपने शरीर का ध्यान रखने के लिए बताना
पार्वती के तप पर प्रसन्न हुए भगवान शंकर ब्रह्मचारी का रूप धारण कर उनके निकट आए और उन्हें अपने शरीर का ध्यान रखने के लिए कहते हैं । महाकवि कालिदास के कुमारसंभव नामक सुप्रसिद्ध महाकाव्य में ब्रह्मचारी का वेश धारण किए शंकर के मुख से निकले वाक्य – अपि क्रियार्थं सुलभं समित्कुशम् जलान्यपि स्नानविधिक्षमाणि ते ।
अपि स्वशक्त्या तपसि प्रवर्तसे
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ।।
– कुमारसम्भव, सर्ग ५, श्लोक ३३
अर्थ : अरे पार्वती ! तुम्हें यज्ञादि कर्मों के लिए समिधा सहजता से मिलती है न ! तुम्हें स्नान के लिए गरम पानी मिलता है ! तुम्हारा यह तप तुम्हारी अपनी शारीरिक क्षमतानुसार ही हो रहा है न ! (तप करते समय शरीर का ध्यान रखना चाहिए; क्योंकि यह शरीर ‘धर्म’ इस पुरुषार्थ का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है’, अर्थात ‘शरीर होगा, तब ही धर्म अथवा साधना करना संभव होता है ।’
३. शंकर द्वारा पार्वती को किया उपदेश सभी साधकों के लिए मार्गदर्शक होना
ईश्वरप्राप्ति करने के लिए प्रत्येक साधक को ‘शरीर होगा, तब ही धर्म अथवा साधना करना संभव होता है’, यह सूत्र ध्यान में रखना चाहिए । साधना के लिए शरीर निरोगी चाहिए । इसलिए आयुर्वेदानुसार आचरण करना चाहिए । ‘आयुर्वेदानुसार आचरण क्या है’, यह जानकारी सनातन के ग्रंथ ‘आयुर्वेदानुसार आचरण कर बिना औषधियोंके निरोगी रहें !’ ग्रंथ में दी है ।
४. साधको, शरीर की उचित देखभाल करें !
‘मनुष्यजन्म बहुत पुण्य से मिलता है । साधना कर ईश्वरप्राप्ति करने में ही मनुष्यजन्म की सार्थकता है । शरीर निरोगी होगा, तो साधना करना सरल हो जाता है । अयोग्य समय पर सोना, उठना एवं भोजन करना, ये अत्यंत गलत आदतें हैं । उन्हें छोडना ही चाहिए । ‘मुझे अब तक कुछ भी नहीं हुआ है’, ऐसा कहते हुए गलत आदतें वैसे ही डाले रहे, तो रुकिए ! विचार करिए ! दूर की यात्रा पर जाते समय हम इसकी निश्चिति करते हैं कि ‘अपना वाहन सुस्थिति में है न’; क्योंकि वह यदि सुस्थिति में नहीं होगा, तो मार्ग में बाधा आ सकती है । अपना ध्येय ईश्वरप्राप्ति है । यह दूर की यात्रा है । इसलिए उसके लिए अत्यावश्यक शरीर का ध्यान रखें !’
– वैद्य मेघराज माधव पराडकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१९.९.२०२२)