चीन में ‘वो बू शी याओ शेन’ (‘डाइंग टू सर्वाइव’ – जीने के लिए मरना) फिल्म को दर्शक बहुत पसंद कर रहे हैं । व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगानेवाली यह फिल्म चीन में प्रदर्शित हो सकी, यह भी एक चमत्कार ही है ! यह फिल्म, धनवान बहुराष्ट्रीय औषधि निर्माण करनेवाले प्रतिष्ठानों, तथा उनके एकाधिकार से उत्पन्न उन्मत्त वृत्ति, अधिकाधिक आर्थिक लाभ अर्जित करने के लिए इन प्रतिष्ठानों द्वारा अपनाई जानेवाली अनुचित पद्धतियां तथा इन सब में पिसे जानेवाले सर्वसामान्य रोगियों पर आधारित है । इस फिल्म के परिप्रेक्ष्य में उठनेवाले प्रश्नों का सर्वांगीण विश्लेषण करता हुआ लेख यहां दे रहे हैं ।
१. चीन में बहुत महंगी औषधियों के मूल्यों पर प्रकाश डालनेवाली चीनी फिल्म तथा उसे लोगों से प्राप्त प्रचंड प्रत्युत्तर !
५ जुलाई २०१८ ! गुरुवार की सायंकाल । चीन के बीजिंग शहर में सिनेमाघर के बाहर दर्शकों की बहुत बडी पंक्ति थी, ‘वो बू शी याओ शेन’ फिल्म देखने के लिए ! गुरुवार काम का दिन (वर्किंग डे) होता है, उसमें सायंकाल का समय; परंतु ऐसे में भी लोग समय निकालकर यह फिल्म देखने के लिए कतार में खडे थे । कुछ ही दिन पूर्व संपन्न शांघाई फिल्म महोत्सव में यह फिल्म चर्चा में रही थी । दर्शकों को २ घंटे तक स्तब्ध रखकर जब फिल्म समाप्त हुई, तब दर्शक उठकर खडे रहे और तालियों की गूंज में उन्होंने इस फिल्म का अभिवादन किया । समाप्त होते-होते यह फिल्म दर्शकों के मन में अनेक प्रश्न निर्माण कर गई थी । इस फिल्म ने यहां के व्यवस्थापन पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए थे अर्थात चीनी सरकार से प्रश्न किए थे । चीन में ऐसा होने पर भी वहां के सेंसोर बोर्ड के चंगुल से मुक्त होकर यह फिल्म प्रदर्शित हो पाई थी । चीन जैसे देश में ऐसा होना आश्चर्यजनक था । इस फिल्म में ऐसा क्या था ? यह फिल्म चीन में इतनी प्रसिद्ध क्यों हुई ? इसका कारण है कि सर्वसामान्य चीनी मनुष्य के नित्य जीवन से अत्यंत निकट संबंध रखनेवाले इस फिल्म का विषय है – औषधियों के आकाश छूते अति महंगे मूल्य ! अन्य विकासशील देशों की तुलना में चीन में औषधियां बहुत महंगी हैं । विकसित यूरोप एवं अमेरिका स्वास्थ्य सुविधाओं पर जो कुछ भी व्यय करते हैं, उनमें से लगभग १० – १२ प्रतिशत व्यय औषधियों पर होता है; परंतु चीन जैसे देश में औषधियों का व्यय कितना होगा ?, स्वास्थ्य सुविधाओं के कुल व्यय में से ४० प्रतिशत ! चीन के सार्वजनिक चिकित्सालय रोगियों को बडी मात्रा में औषधियां बनानेवाले प्रसिद्ध प्रतिष्ठानों की औषधियां लिखकर देते हैं तथा उससे बडे स्तर पर धन अर्जित करते हैं । अन्य विकासशील देशों की तुलना में चीन में औषधियां बहुत महंगी हैं । ‘हेल्थ एक्शन इंटरनेशनल’ नामक एक डच स्वयंसेवी संगठन है । इस संगठन ने संपूर्ण विश्व की औषधियों के मूल्य का एक सर्वेक्षण किया । उससे यह स्पष्ट हुआ कि किसी औषधि का जो अंतरराष्ट्रीय संदर्भ मूल्य होता है, उसकी अपेक्षा चीन में औषधियां लगभग ११ प्रतिशत महंगी हैं; परंतु भारत में इन औषधियों का मूल्य अंतरराष्ट्रीय संदर्भ मूल्य की तुलना में ५ प्रतिशत अल्प हैं । ‘वो बू शी याओ शेन’ फिल्म का नायक चीन के असाध्य रोगियों के लिए अवैध रूप से जो औषधियां लाता है, वे भारतीय होती हैं तथा वह वही औषधियां क्यों लाता है ?, आगे जाने पर यह समझ में आएगा !
२. नई औषधि के लिए २० वर्ष की अवधि का ‘पेटंट’ मिलने पर बहुत महंगे मूल्य पर औषधियां बेचनेवाले प्रतिष्ठान !
कोई भी औषधि जब पहली बार हाट (बाजार) में आती है, उस समय उसका मूल्य बहुत अधिक होता है । इसका कारण यह है कि औषधियां बनानेवाले जो प्रतिष्ठान हैं, वे अविरत शोध कर औषधियां खोजते हैं । उन्होंने उन पर करोडों रुपए व्यय किए होते हैं तथा उन्हें उसके लिए न जाने कितने वर्षाें तक काम करना पडता है । इन औषधियों को हाट में उतारने से पूर्व उन्होंने कठोर परिश्रम किए होते हैं । इस प्रकार शोध कर हाट में नई औषधियां लानेवाले शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय औषधीय प्रतिष्ठानों को ‘इनोवेटर’ प्रतिष्ठान कहा जाता है ! ‘जीएसके’, ‘बायर’, ‘फाइजर’, ‘नोवार्टिस’ औषधियां बनानेवाले इसी प्रकार के कुछ शक्तिशाली औषधीय प्रतिष्ठान हैं । अधिकांश सभी शक्तिशाली प्रतिष्ठान यूरोपीयन अथवा अमेरिकन हैं । ये प्रतिष्ठान उनकी नई औषधियां हाट में उतारने के लिए उनका ‘पेटंट’ लेते हैं । (पेटंट एक ऐसा कानूनी अधिकार है, जो केवल किसी एक ही व्यक्ति, संस्था अथवा किसी प्रतिष्ठान को किसी वस्तु के विशेष उत्पादन, शोध, साथ ही किसी प्रक्रिया के लिए एकाधिकार प्रदान करता है ।) इस पेटंट की अवधि लगभग २० वर्ष होती है । एक बार पेटंट मिलने पर कोई भी प्रतिष्ठान वह औषधि नहीं बना सकत । उसके कारण इनोवेटर प्रतिष्ठान को बाजार में किसी से स्पर्धा ही नहीं रह जाती । इससे स्वाभाविक ही ये प्रतिष्ठान उस औषधि को अपने मनानुसार बेचने के लिए स्वतंत्र होते हैं । ये प्रतिष्ठान अत्यधिक मूल्य पर ये औषधियां बेचते हैं । ये प्रतिष्ठान इन औषधियों के महंगे मूल्य के समर्थन में यह ढिंढोरा पीटते रहते हैं कि हमने इस औषधि के शोध पर बहुत अधिक व्यय किया है; इसलिए हमारी इस औषधि का मूल्य अधिक है ।
३. व्यय छिपानेवाले औषधीय उत्पादक प्रतिष्ठान !
औषधियां बनानेवाले प्रतिष्ठान को एक नई औषधि हाट में उतारने के लिए लगभग कितना खर्च आता है ? वर्ष २०१७ में यह आंकडा था २.९ अरब अमेरिकी डॉलर्स (लगभग १८ सहस्र ५६० करोड रुपए) !; परंतु यह आंकडा आया कहां से ? अमेरिका के टफ्ट्स विश्वविद्यालय में ‘टफ्ट्स सेंटर’ नामक एक शोध केंद्र है । यह केंद्र प्रतिष्ठानों से ये मूल्य इकट्ठा करता है । तो क्या यह संपूर्ण पैसा शोधकार्य के लिए ही है ? इसका उत्तर है नहीं ! यह औषधि हाटर में उतारने का कुल व्यय है । ‘विपणन’ (मार्केटिंग) एवं ‘ग्राहक संपर्क’ (कस्टमर रिलेशंस), इन मीठे नामों की आड में इन प्रतिष्ठानों को उन्हें जो खर्च ‘डॉक्टर्स रोगियों को ये औषधियां अनुशंसित (प्रिस्क्राइब) करें’; इसके लिए करना पडता है, वह खर्च यह होता है । तो ‘शोध के लिए बहुत व्यय किया; इसलिए इस औषधि का मूल्य अधिक है’, ये प्रतिष्ठान ऐसा क्यों बताते हैं ?; क्योंकि ऐसा बताना उनके लिए सुविधाजनक होता है और ऐसा सुनने में भी अच्छा लगता है; इसलिए ! शोध पर किया जानेवाला औसतन व्यय कितना होता है ? वह किसी को भी ज्ञात नहीं है । टफ्ट्स सेंटर को भी नहीं ! इन प्रतिष्ठानों द्वारा शोध पर होनेवाले व्यय का आंकडा अत्यंत गुप्त होता है । औषधीय प्रतिष्ठान हाट में जो औषधियां उतारते हैं, उनमें से ४० प्रतिशत औषधियों पर ही मूल शोध होता है अमेरिकी विश्वविद्यालयों में ! यह शोध जब एक विशिष्ट चरण तक पहुंच जाता है, तो ये विश्वविद्यालय उस औषधि का पेटंट लेकर उसे औषधीय प्रतिष्ठानों को अधिक मूल्य लेकर बेच देते हैं । विश्वविद्यालयों के पास यह शोध करने के लिए पैसे आते कहां से हैं ? अधिकतम बार इस प्रकार के शोध के लिए ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठन’ नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर हेल्थ, (एन.आई.एच.) नामक यह सरकारी संगठन बडे स्तर पर पैसों की आपूर्ति करता है । यह पैसा सरकारी होता है । अर्थात लोगों की जेब से आनेवाले करों से आया हुआ ! लोगों से मिलनेवाले पैसों से शोध कर लोगों के लिए ही बनाई जानेवाली औषधियों का मूल्य इतना अधिक कैसे ?
‘शोध पर हमें बहुत व्यय करना पडा’, ऐसा बोलते समय औषधियां बनानेवाले प्रतिष्ठान उन्हें ‘एन.आइ.एच.’ से मिलनेवाला चंदे को ध्यान में ही नहीं लेते । विश्वविद्यालयों द्वारा किया गया शोध पर्याप्त नहीं होता, उस पर आगे जाकर इन प्रतिष्ठानों को बहुत काम करना पडता है, यह स्वीकार्य ही है; परंतु ये प्रतिष्ठान, व्यय कितना है, यह क्यों नहीं बताते ?
४. अन्य औषधियों की तुलना में ९० से ९५ प्रतिशत सस्ती ‘जेनेरिक’ (टिप्पणी) औषधियां !
(टिप्पणी : औषधि निर्माण करनेवाले प्रतिष्ठानों की किसी औषधि की ‘पेटंट’ की समय सीमा समाप्त होने के उपरांत अन्य प्रतिष्ठानों द्वारा बनाई जानेवाली तथा सस्ती औषधियां ।)
‘इनोवेटर’ औषधीय प्रतिष्ठान के पेटंट की अवधि समाप्त होते ही औषधि निर्माण करनेवाला कोई भी प्रतिष्ठान वह औषधि बना सकता है । पेटंट की समयावधि समाप्त हो चुकी हो, तो औषधि कैसे बनाई जाती है ?, यह जेनेरिक प्रतिष्ठान के इनोवेटर प्रतिष्ठान के पेटंट से समझ में आता है, साथ ही इनोवेटर प्रतिष्ठान के द्वारा उस औषधि की सुरक्षा एवं उपयुक्तता भी तैयार की होती है; इसलिए जेनेरिक प्रतिष्ठान को उसके लिए कुछ भी खर्च करने की आवश्यता नहीं होती । इसके कारण ही इनोवेटर प्रतिष्ठान का पेटंट समाप्त होने पर जेनेरिक प्रतिष्ठान जब वह औषधि बनाने लगते हैं, उस समय उसका मूल्य बहुत अल्प हो जाता है ।
अनेक जेनेरिक प्रतिष्ठान उस औषधि को एक ही समय बना सकते हैं । उसके कारण बाजार (हाट) में स्पर्धा बढकर औषधि का मूल्य और कम हो जाता है । इसलिए जेनेरिक औषधियां सस्ती होती हैं; परंतु इसका अर्थ ऐसा बिल्कुल भी नहीं कि वो फर्जी अथवा अल्प गुणवत्तावाली होती हैं । किसी प्रतिष्ठान द्वारा निर्मित औषधि की प्रभावकारिता प्रमाणित हुए बिना जेनेरिक प्रतिष्ठान को औषधि बेचने की अनुज्ञप्ति (अनुमति) ही नहीं मिलती । जेनेरिक औषधियां इनोवेटर औषधियों की अपेक्षा ९० से ९५ प्रतिशत सस्ती होती हैं । (इसका अर्थ कोई इनोवेटर औषधि १०० रुपए में मिलती हो, तो जेनेरिक औषधि १० अथवा ५ रुपए में मिलती है !)
५. विश्व के तीसरे क्रम का बडा जेनेरिक (टिप्पणी) उद्योगवाला भारतीय औषधि उद्योग !
(टिप्पणी : जेनेरिक औषधि का अर्थ है मूल औषधि या उसके नाम का उपयोग कर विभिन्न प्रतिष्ठानों द्वारा गोलियां या सीरप बनाई जाती हैं । कुछ औषधीय प्रतिष्ठान उनके ब्रैंडेड नाम का उपयोग कर औषधियां बेचते हैं । ब्रैंडेड नाम रहित; परंतु उस औषधि के समान ही ‘फॉर्म्युला’ उपयोग कर बनाई गोलियां या सीरप जेनेरिक औषधियां हैं ।)
भारतीय औषधि उद्योग आज विश्व का तीसरे क्रम का बडा जेनेरिक है । आज विश्व में भारत को ‘संपूर्ण विश्व के औषधि कारखाने’ के रूप में पहचाना जाता है । आज भारत विश्व को सस्ती; परंतु उत्तम गुणवत्तावाली जेनेरिक औषधियों की आपूर्ति करता है । विशेषरूप से अफ्रिका जैसे निर्धन देशों के लिए भारत के औषधि उद्योग का यह कार्य बहुमूल्य है । इसीलिए ‘डाइंग टू सर्वाइव’ फिल्म का नायक चेंग को सस्ती; परंतु प्रभावकारी जेनेरिक औषधियां भारत से लाते हुए दिखाया गया है ।
६. चीनी कानून का उल्लंघन कर भारत से जेनेरिक औषधियां मंगाकर
उनसे निर्धन लोगों को आपूर्ति करनेवाले को बंदी बनाना तथा उसका उद्देश्य अच्छा होने के कारण ४ मास उपरांत उसे छोड देना मूल रूप से यह फिल्म एक सत्य घटना पर आधारित है । चीन के जिंगसू प्रांत के कपडा व्यापारी लू यांग के जीवन में घटित यह घटना है । वर्ष २००२ में लू यांग को ‘क्रॉनिक माइलॉइड ल्यूकेमिया’ (‘सी.एम.एल.’) की बीमारी ने घेर लिया । स्विस प्रतिष्ठान ‘नोवार्टिस’ द्वारा बनाई जानेवाली ‘ग्लिवेक’ (फिल्म में नाम ‘ग्लिनिक’) यह औषधि सी.एम.एल. का रामबाण उपाय थी । लू यह औषधि लेने लगा; परंतु उसका लगभग २५ सहस्र युआन (२ लाख ८४ सहस्र रुपए से अधिक) का मूल्य लू के लिए बहुत महंगा था । वर्ष २००४ में वह भारत से ग्लिवैक के लिए प्रतिरूप जेनेरिक औषधि ‘विनैट’ ३ सहस्र युआन में (३४ सहस्र रुपए से अधिक) लेने लगा । वह ग्लिवेक जितना ही प्रभावकारी है, यह उसे ज्ञात हुआ । तब वह गुप्त पद्धति से इस औषधि को भारत से लाकर अन्य रोगी समूह के लोगों को देने लगा; परंतु यह भारतीय औषधि भले कितनी भी प्रभावकारी हो; परंतु ऐसा करना चीन की औषधीय व्यवस्थापन संस्था को स्वीकार्य नहीं था; इसलिए चीन के कानून की दृष्टि से देखा जाए, तो वह बनावटी (फर्जी) था । उसे गुप्त रूप से चीन में लाना चीनी कानून के अनुसार अपराध था । उसके कारण वर्ष २०१४ को लू को बंदी बनाया गया; परंतु उसने इससे स्वयं को कुछ लाभ नहीं दिलाया था । इसके विपरीत, उसने भारत से यह सस्ती जेनेरिक औषधि अवैध रूप से लाकर १ सहस्र रोगियों में वितरित कर एक प्रकार से उनकी सहायता ही की थी । इस बात को ध्यान में लेकर उसे ४ मास उपरांत छोड दिया गया । यह फिल्म इसी घटना पर आधारित है ।
७. भारत के कानून में परिवर्तन करने से किसी औषधि का पेटंट (स्वामित्व का अधिकार) हो; परंतु तब भी भारतीयों को सस्ते मूल्य में मिलनेवाली जेनेरिक औषधियां !
तो यह प्रश्न उठता है कि ‘नोवार्टिस’ की औषधि ‘ग्लिवेक’ यदि पेटंट होने के कारण चीन में इतनी महंगी थी, तो भारत में उसका जेनेरिक प्रतिरूप कैसे उपलब्ध था ? २० वर्ष उपरांत पेटंट समाप्त होने पर ही जेनेरिक औषधि बनाई जा सकती है, यह हमने देखा; परंतु यह कैसे संभव था ? तो यह संभव था भारत के पेटंट कानून के कारण ! वर्ष २००५ तक भारत में औषधियों के लिए ‘उत्पादन पेटंट’ नहीं मिलते थे और पेटंट ही नहीं होगा, तो जेनेरिक प्रतिष्ठान जेनेरिक औषधियां बना सकता है । उसके कारण ग्लिवेक की प्रतिरूप औषधियां भारत में उपलब्ध थीं । अंतरराष्ट्रीय अनुबंध के कारण वर्ष २००५ में भारत को अपने कानून में परिवर्तन करना पडा । इस परिवर्तित कानून के अनुसार अब औषधियों के लिए ‘उत्पादन पेटंट्स’ देनी ही थी । इससे एक बार किसी औषधि को भारत में पेटंट मिला, तो उसके आगे २० वर्षाें तक उसकी जेनेरिक प्रतिरूप औषधि के हाट (बाजार) में आने तक प्रतीक्षा करनी होगी । सामान्य लोगों के लिए यह औषधि महंगी सिद्ध होनेवाली थी; परंतु तब भी वर्ष २००५ के भारतीय कानून में औषधियों का मूल्य अल्प रखने के लिए कुछ अत्यंत उत्तम प्रावधान थे । अनुच्छेद ३ (ड) उनमें से एक प्रावधान था । इस प्रावधान के कारण शक्तिशाली औषधि प्रतिष्ठान पेटंट समाप्त होने के उपरांत भी लाभ अर्जित करने के लिए पेटंट पुनर्जीवित करने का जो कार्य करते हैं, उस पर भारत नियंत्रण ला सकता था ।
८. पेटंट को पुनर्जीवित करने के माध्यम से रोगियों से भीषण लूटमार करनेवाले (औषधियां बनानेवाले) प्रतिष्ठान !
औषधियों के पेटंट को पुनर्जीवित करना क्या होता है ? बडे औषधीय प्रतिष्ठानों के शोध की नदियां अब सूखने लगी हैं अर्थात उन्हें नई औषधियां नहीं मिल रही हैं । यदि नई प्रभावकारी औषधि नहीं मिली, तो उसके कारण पेटंट नहीं और पेटंट नहीं, तो एकाधिकार नहीं तथा आर्थिक लाभ भी नहीं । तो ऐसे में क्या किया जाए ? इसलिए इन प्रतिष्ठानों द्वारा खोजी गई घातक पद्धति है पेटंट्स को पुनर्जीवित करना ! यह युक्ति ऐसी है कि किसी प्रतिष्ठान की औषधि का पेटंट समाप्त होने को आया, तो उस औषधि में कोई छोटा सा परिवर्तन कर वह प्रतिष्ठान दूसरा पेटंट लेता है तथा उसके उपरांत डॉक्टरों के सामने इस परिवर्तित औषधि का जोरदार विज्ञापन आरंभ हो जाता है । वास्तव में देखा जाए, तो मूल औषधि के पेटंट की अवधि समाप्त होने आए, तो जेनेरिक प्रतिष्ठानों द्वारा बनाई गई यही औषधि हाट में सस्ते मूल्य पर मिल जाती है तथा रोगियों को उससे लाभ मिलता है । परंतु ऐसा होने से पूर्व ही ‘इनोवेटर’ प्रतिष्ठान इस औषधि में छोटा सा परिवर्तन कर नया पेटंट मांगता है । इसमें सामान्य जनता की अपेक्षा औषधीय प्रतिष्ठानों को ही लाभ दिलानेवाले विकसित देशों में भी इस प्रकार से पेटंट दिया जाता है तथा उसके उपरांत नए सिरे से पेटंट प्राप्त इस औषधि को औषधीय प्रतिष्ठान जोरदार विज्ञापन चलाकर बेचने लगते हैं । ये विज्ञापन इस प्रकार से प्रभावशाली होते हैं कि मानो जैसे पहले की औषधि की तुलना में यह नए सिरे से परिवर्तित औषधि बहुत ही अधिक गुणकारी हो ! उसके कारण डॉक्टर भी पुरानी औषधि को छोडकर यह नई औषधि लिखकर देने लगते हैं । वास्तव में डॉक्टर इस औषधि के हाट में आने पर भी पुरानी औषधि ही देते रहे, तब भी रोगी पर उसका उतना ही प्रभाव होता है । इसके विपरीत पेटंट समाप्त होने पर औषधि का जेनेरिक रूप बाजार में आते ही वह सस्ते मूल्य में उपलब्ध होने लगता है; परंतु रोगियों को इसकी कोई भी जानकारी नहीं होती । इसलिए औषधि का पेटंट भले ही समाप्त हो चुका हो; परंतु तब भी इस पुनर्जीवित पेटंट के कारण उस पुरानी औषधि को नवसंजीवनी मिलती है । प्रतिष्ठान पहले के महंगे मूल्य में ही अपनी यह नई औषधि बेचता रहता है और बडा आर्थिक लाभ अर्जित करता रहता है । (क्रमश:)
– डॉ. मृदुला बेळे