#Exclusive : कुमकुम लगाने का मह‌त्त्व और वह क्यों लगाएं ?

पू. संभाजी भिडेगुरुजी ने २ नवंबर को मंत्रालय जाकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे से भेंट की । उसके उपरांत वहां से निकलते समय एक महिला पत्रकार ने उनकी इस भेंट के विषय में पूछा । उस समय पू. भिडेगुरुजी ने इस महिला पत्रकार को कहा, ‘प्रत्येक स्त्री भारत माता का रूप है । भारत माता विधवा नहीं । तुम कुमकुम लगाकर आओ, उसके उपरांत ही तुमसे बात करूंगा’ ! इस पर महिला आयोग ने पू. गुरुजी को नोटिस दिया है । समाज के विभिन्न क्षेत्रों के आधुनिकतावादी गिरोह इस प्रकरण में पू. संभाजी भिडेगुरुजी की आलोचना कर रहा है । यहां वास्तव में देखा जाए, तो हिन्दुओं को सनातन हिन्दू धर्म द्वारा बताए अनुसार स्त्रियों के माथे पर कुमकुम लगाने का अध्यात्मशास्त्र ध्यान में लेना आवश्यक है । आधुनिकतावादियों के बुद्धिभ्रम की बलि न चढकर श्रद्धावान हिन्दुओं को धर्मशास्त्र समझ में आए; इसलिए यह लेख प्रकाशित कर रहे हैं ।

पू. संभाजी भिडेगुरुजी

प्रस्तुत लेख में हम कुमकुम लगाने का महत्त्व और लाभ, कुमकुम कब और कैसे लगाएं, सिंदूर की अपेक्षा कुमकुम का उपयोग करना अधिक योग्य क्यों, इस कृति के पीछे का अध्यात्मशास्त्र, कारण सहित जानकर लें !

कुमकुम लगाने का महत्व एवं लाभ

वीडियो : हलदी-कुमकुम एकत्रीत लगाने का अध्यात्मशास्त्र

१. ‘कुमकुम लगाते समय भ्रूमध्य एवं आज्ञाचक्र पर दबाव दिया जाता है एवं वहां के बिंदु दबाए जाने से मुखमंडल के (चेहरे के) स्नायुओं को रक्त की आपूर्ति भली-भांति होने लगती है ।

२. मस्तक के स्नायुओं का तनाव घटकर मुखमंडल कांतिमय लगता है ।

३. कुमकुम के कारण अनिष्ट शक्तियों को आज्ञाचक्र द्वारा शरीर में प्रवेश करने में बाधा आती है ।’

४. ‘कमल साकारस्वरूप, कुमकुम शक्तिस्वरूप, तुलसी कृष्णतत्त्वस्वरूप और बेल शिवस्वरूप है ।’ – श्रीमती अंजली गाडगीळ, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

कुमकुम कब एवं कैसे लगाएं ?.

वीडियो : तिलक एवं कुमकुम लगाने की पद्धति

१. अपने माथे पर कुमकुम लगाना

स्नान के उपरांत दाहिने हाथ की अनामिका से माथे पर कुमकुम लगाएं । माथे पर कुमकुम चिपके, इसके लिए मोम का उपयोग करें । माथे पर प्रथम मोम लगाकर उस पर कुमकुम लगाएं ।

अनामिका से माथे पर कुमकुम लगाने का शास्त्रीय आधार : अनामिका से प्रक्षेपित आपतत्त्वात्मक तरंगों की सहायता से कुमकुम में विद्यमान शक्तितत्त्व

अल्पावधि में जागृत होकर प्रवाही बनता है और आज्ञाचक्र में संक्रमित हो जाता है । इससे स्त्री में विद्यमान रजोगुण के कार्य को शक्तिरूपी बल प्राप्त होता है ।’- एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से , २९.१०.२००७, दिन ९.४६)

२. एक स्त्री द्वारा दूसरी स्त्री के माथे पर कुमकुम लगाना

एक स्त्री द्वारा दूसरी स्त्री को कुमकुम लगाते समय मध्यमा के उपयोग का अध्यात्मशास्त्रीय आधार : ‘पुरुष हो अथवा स्त्री, उन्हें अन्यों को कुमकुम लगाने के लिए मध्यमाका उपयोग करना चाहिए; क्योंकि दूसरे को स्पर्श करते समय उसमें विद्यमान अनिष्ट शक्ति का संक्रमण उंगली के माध्यम से हमारी देह में हो सकता है । तेज की प्रबलतायुक्त मध्यमा के उपयोग से स्वयं की देह की रक्षा होती है ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से , १७.८.२००४, दोपहर ३.४६ एवं ८.६.२००८, सायं. ६.४१)

बिंदी लगाने की अपेक्षा कुमकुम लगाना अधिक योग्य क्यों ?

‘कुमकुम पवित्रता एवं मांगल्य का प्रतीक है । कृत्रिम घटकों की अपेक्षा प्राकृतिक घटकों में देवताओं की चैतन्यतरंगें ग्रहण एवं प्रक्षेपित करने की क्षमता अधिक होती है । हल्दी से कुमकुम बनता है । इसलिए बिंदी की अपेक्षा कुमकुम अधिक प्राकृतिक है । इसी प्रकार कुमकुम से प्रक्षेपित सूक्ष्म-गंध में ब्रह्मांड में विद्यमान देवताओं के पवित्रकों को आकर्षित एवं प्रक्षेपित करने की क्षमता होती है । अतः तारक-मारक चैतन्यतरंगों के प्रक्षेपण के कारण कुमकुम लगानेवाले जीव की अनिष्ट शक्तियों से रक्षा होती है । इसलिए बिंदी लगाने की अपेक्षा कुमकुम लगाना, सात्विकता ग्रहण करने की दृष्टि से अधिक फलदायी है ।

बिंदी के पृष्ठ भाग पर लगाया जानेवाला गोंद तमोगुणी होता है । अतः वह स्वयं की ओर रज-तमात्मक तरंगें खींचता है । इन तरंगों का प्रवाह जीव के आज्ञाचक्र से शरीर में संक्रमित होता है । इससे शरीर में रज-तम कणों की प्रबलता बढती है । निरंतर बिंदी लगाते रहने के कारण उस स्थान पर अनिष्ट शक्तियों का स्थान निर्मित होने की आशंका अधिक रहती है ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से , २३.१.२००५, रात्रि ८.०१)

स्त्रियों द्वारा मांग में कुमकुम अथवा सिंदूर भरने के लाभ

१. पति में क्षात्रतेजरूपी ज्योत सदैव प्रज्ज्वलित रहना : ‘सुहागिन स्त्री की मांग में कुमकुम अथवा सिंदूर देखकर हिन्दू पुरुषों को शत्रु से लडने के लिए मारक शक्ति एवं चैतन्य प्राप्त होकर, उनमें क्षात्रवृत्ति एवं उत्साह बढता था । पति में क्षात्रतेजरूपी ज्योत सदैव प्रज्ज्वलित रखने के लिए सुहागिन स्त्रियों द्वारा कुमकुम अथवा सिंदूर ललाट पर अथवा मांग में लगाने के लिए उपयोग करना, यह मानसिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही कारणों से उचित है । (युद्ध के लिए जानेवाले पुरुष भी निरंतर सात्विकता, मारक शक्ति एवं चैतन्य प्राप्त करने के लिए माथे पर कुमकुम अथवा सिंदूर का तिलक लगाएं ।)

२. अनिष्ट शक्तियों से रक्षा : स्त्रियों का मस्तक पुरुषों के मस्तक की तुलना में कोमल एवं संवेदनशील होता है । केश में मांग का भाग मध्यभाग में होने से वह सर्वाधिक संवेदनशील होता है । इस स्थान का अनिष्ट शक्तियों से रक्षा करने के लिए मांग में सिंदूर भरा जाता है ।

३. सिंदूर की अपेक्षा कुमकुम का उपयोग अधिक उचित : कुमकुम में विद्यमान मारक तत्त्व के कारण, अनिष्ट शक्तियों के आक्रमणों से स्त्री की सूक्ष्मदेह की रक्षा होती है । कुमकुम के चैतन्य के कारण उसकी सूक्ष्मदेह सात्विकता ग्रहण करती है । इससे उसकी शुद्धि होने में सहायता मिलती है । सिंदूर में कुमकुम की तुलना में मारक तत्त्व अल्प मात्रा में होता है; इसलिए सिंदूर की अपेक्षा कुमकुम का उपयोग अधिक उचित है ।’

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘मांगटीकेसे कर्णाभूषणतकके अलंकार’

बुरी शक्ति : वातावरण में अच्छी तथा बुरी (अनिष्ट) शक्तियां कार्यरत रहती हैं । अच्छे कार्य में अच्छी शक्तियां मानव की सहायता करती हैं, जबकि अनिष्ट शक्तियां मानव को कष्ट देती हैं । प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों के यज्ञों में राक्षसों ने विघ्न डाले, ऐसी अनेक कथाएं वेद-पुराणों में हैं । ‘अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर अनिष्ट शक्तियां, उदा. असुर, राक्षस, पिशाच को प्रतिबंधित करने हेतु मंत्र दिए हैं ।’ अनिष्ट शक्ति के कष्ट के निवारणार्थ विविध आध्यात्मिक उपाय वेदादी धर्मग्रंथों में वर्णित हैं ।

सूक्ष्म : व्यक्ति का स्थूल अर्थात प्रत्यक्ष दिखनेवाले अवयव नाक, कान, नेत्र, जीव्हा एवं त्वचा यह पंचज्ञानेंद्रिय है । जो स्थूल पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि के परे है, वह ‘सूक्ष्म’ है । इसके अस्तित्व का ज्ञान साधना करनेवाले को होता है । इस ‘सूक्ष्म’ ज्ञान के विषय में विविध धर्मग्रंथों में उल्लेख है ।’

आध्यात्मिक कष्ट : इसका अर्थ व्यक्ति में नकारात्मक स्पन्दन होना । व्यक्ति में नकारात्मक स्पन्दन ५० प्रतिशत अथवा उससे अधिक मात्रा में होना । मध्यम आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पन्दन ३० से ४९ प्रतिशत होना; और मन्द आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पन्दन ३० प्रतिशतसे अल्प होना । आध्यात्मिक कष्ट प्रारब्ध, पितृदोष इत्यादि आध्यात्मिक स्तर के कारणों से होता है । किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक कष्ट को सन्त अथवा सूक्ष्म स्पन्दन समझनेवाले साधक पहचान सकते हैं ।

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