लगभग मई २०२० से चीन ने पूर्वी लद्दाख के अनेक स्थानों पर बंकरों का निर्माण, सेना की नियुक्ति तथा निर्माणकार्य आरंभ किया था । इस संदर्भ में ६ जून २०२० के आसपास दोनों देशों में सैन्य स्तर पर संवाद हुआ । उसके उपरांत १५ जून २०२० को दोनों देशों के सैनिकों में गलवान घाटी में हिंसक झडप हुई तथा उसके उपरांत यह संघर्ष अत्यंत शीर्ष स्तर तक जा पहुंचा । क्या अब युद्ध की चिंगारी भडक सकेगी ?, ऐसी संभावना उत्पन्न हुई । इसका समाधान निकालने के लिए पुनः २२ जून २०२० को दोनों देशों में लेफ्टिनेंट जनरल स्तर पर चर्चा हुई । मध्य काल में भारत के विदेशमंत्री ने चीनी विदेशमंत्री के साथ बातचीत की । इसमें रूस की भी मध्यस्थता थी । ऐसा होते हुए भी चीन की ओर से सेना पीछे हटने के किसी प्रकार के संकेत नहीं मिल रहे थे । उसके कारण अब यह संघर्ष लंबे समय तक चलेगा, इसे ध्यान में रखकर भारत ने अपनी तैयारी की थी ।
आज की स्थिति को देखते हुए भारत एवं चीन के मध्य संघर्ष अभी तो शांत दिखाई दे रहा है । इसका कारण यह है कि चीन ने अपनी सेना को गलवान घाटी में स्थित फिंगर १४, हॉट स्प्रिंग, पेंगाँग त्सो इन तीनों स्थानों से अनुमानित २.५ किलोमीटर पीछे हटाना आरंभ किया है । गलवान घाटी की झडप में चीन के अनेक सैनिक मारे जाने की बात सामने आई है । इससे चीन ने भारतीय सैनिकों के शौर्य का अनुभव किया । वर्ष १९७९ के उपरांत पहली बार चीन के सैनिक मारे गए हैं । उसके कारण ‘चीन को गलवान से अपमानजनक पद्धति से अपनी सेना को पीछे हटाने की स्थिति आना’, सामरिक एवं राजनीतिक दृष्टि से भारत की बडी विजय है ।
१. चीन द्वारा गलवान घाटी के संघर्ष से पूर्व घुसपैठ की तैयारी करना
चीन बडी तैयारी के साथ ही गलवान आया था, किंतु कुछ अध्येता ऐसा मानते हैं कि महाबलीपुरम् (तमिलनाडु) में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा शी जिनपिंग में अनौपचारिक चर्चा का दूसरा सत्र हुआ, उसी समय चीन ने पूर्वी लद्दाख में घुसपैठ की तैयारी आरंभ कर दी थी । चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडॉर का काम आरंभ हुआ, उसके उपरांत गिलगिट बाल्टिस्तान की दृष्टि से चीन को पूर्वी लद्दाख का अधिक महत्त्व लगने लगा तथा तभी से इस क्षेत्र पर उनकी दृष्टि थी । उसके उपरांत वर्ष २०१७ में भारत-चीन के मध्य ७३ दिनों का डोकलाम का लंबा संघर्ष हुआ । इस संघर्ष में भारत ने चीन की आंख से आंख मिलाते हुए किसी भी स्थिति में पीछे न हटने की नीति अपनाई थी । भारत की यह दृढतापूर्ण नीति चीन के लिए पूर्ण रूप से अप्रत्याशित थी । भारत हमारे मार्ग में बडी बाधा बन सकता है, इसे चीन ने उसी समय जान लिया था । उसके कारण भारत पर बडा दबाव बनाना चाहिए, यह चीन ने सुनिश्चित किया ही था । उसके लिए उसने गलवान को लक्ष्य बनाया; क्योंकि गलवान घाटी गिलगिट बाल्टिस्तान तथा काराकोरम महामार्ग से जुडी है । इस क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित किया गया, तो चीन को दौलतबेग ओल्डी में भारत की गतिविधियों पर संपूर्ण ध्यान रखना संभव होनेवाला था । इसके लिए चीन ने पूर्वी लद्दाख के अन्य क्षेत्रों पर भी अपनी दृष्टि गडाई थी । चार स्थानों में से एक स्थान से पीछे हटना तथा शेष स्थानों के विषय में विवाद जारी रखना, इस प्रकार चीन ने योजना बनाई थी । उसके लिए उसने इस क्षेत्र के पास सेना की सुदृढ नियुक्ति और सैनिकी संसाधन तैयार रखे थे । कुल मिलाकर, भारत के साथ छल करना है, यही चीन की कूटनीति थी । गलवान घाटी में १५ जून २०२० को हुई झडप इसी षड्यंत्र का एक अंश था ।
२. चीन की सेना का पीछे हटना, ‘पुल आउट’ (बाहर निकलना) नहीं, अपितु भारत की ओर से उसे दिया हुआ ‘पुश बैक’ (पीछे ढकेलना)
ऐसा होते हुए भी चीन ने अकस्मात सेना को पीछे हटाना क्यों आरंभ किया ?, यह समझ लेना आवश्यक है । सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि चीन का पीछे हटने का निर्णय उत्स्फूर्त नहीं है; अपितु भारत ने चीन को पीछे हटने पर बाध्य किया है । संक्षेप में बताना हो, तो चीन का यह ‘पुल आउट’ नहीं है, अपितु भारत का दिया हुआ ‘पुशबैक’ है । इसमें सीमा पर की हुई भारत की सैन्य तैयारी, राजनीतिक रणनीति तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लेह यात्रा ‘टर्निंग पॉईंट’ (निर्णायक चरण) सिद्ध हुई । इस लेह यात्रा तथा वहां के उनके भाषण का नियोजन राष्ट्रीय सुरक्षा परामर्शदाता (सलाहकार) अजित डोवाल ने किया था । इस भाषण से प्रधानमंत्री मोदी ने केवल चीन को ही नहीं; अपितु संपूर्ण विश्व को भी कुछ संदेश दिए ।
३. प्रधानमंत्री मोदी की लेह यात्रा से चीन के किसी भी छल एवं प्रपंच का उत्तर देने के लिए देश के तैयार होने का भारत द्वारा स्पष्ट संदेश देना
उसमें से पहला संदेश यह था कि आपने इस संघर्ष को कितना भी लंबा खींचा, तब भी भारत उसका उत्तर देने के लिए तैयार है । भारत ने इसकी पूरी तैयारी की है; इसलिए चाहे कुछ भी हो; भारत पीछे नहीं हटेगा । दूसरा संदेश यह था कि आज तक ऐसे कितने संघर्ष होते थे, उस समय दोनों देशों के कमांडिंग स्तर के सेनाधिकारियों में बातचीत होकर उनका समाधान निकाला जाता था । वर्ष २०१३ में भी इसी प्रकार का विवाद हुआ था, उस समय सेनाधिकारियों के मध्य बातचीत से ही उसका समाधान हुआ था; परंतु इस बार स्वयं प्रधानमंत्री के लेह जाने से यह संघर्ष केवल स्थानीय स्तर के अधिकारियों तक सीमित नहीं है; अपितु इसमें भारत का सर्वाेच्च राजनीतिक नेतृत्व भी सम्मिलित है, चीन को यह संदेश दिया गया । इससे यह स्पष्ट किया गया कि चीन की किसी भी गतिविधि का उत्तर देने के लिए भारत की सेना तथा राजनीतिक नेतृत्व पूर्णरूप से तैयार है ।
४. भारत द्वारा चीन को उत्तर देने के लिए की हुई तैयारी
‘चीन की दबंगता के आगे झुकना नहीं है’, दृढतापूर्वक यह सुनिश्चित कर लेने से भारत ने गलवान घाटी में बडी संख्या में अपने सैनिकों की नियुक्ति बढाई थी । भारत ने वहां टैंक, तोपें तथा भूमि से आकाश में मार करनेवाले क्षेपणास्त्र की भी व्यवस्था की थी । उसी प्रकार लगभग १३४ किलोमीटर के पेंगाँग त्सो झील पर ध्यान रखने के लिए १२ नावों को तैनात किया गया था, साथ ही ऊंचे पर्वतीय क्षेत्र में लडनेवाला ‘हाइ एल्टिट्यूड माउंटेनिंग फोर्स’ (उच्च स्तर का पर्वतारोहण करनेवाला सैन्य बल) भी हमने तैयार रखा था । चीन के लिए यह सब अप्रत्याशित था । आज का भारत वर्ष १९६२ का भारत नहीं है, इससे यह चीन के ध्यान में आया ।
५. भारत के मुंहतोड उत्तर के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसके पक्ष में तीव्र गतिविधियां हुईं
लेह के भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने चीन की आक्रामक विस्तारवादी नीति पर हाथ डाला । प्रधानमंत्री ने यह बताया कि विस्तारवाद का युग अब समाप्त हो चुका है । जिन-जिन देशों ने विस्तारवाद के प्रयास किए, एक तो वे नामशेष हो गए अथवा उन्हें अपनी नीतियां बदलनी पडीं । यह संदेश चीन के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए भी था । इस भाषण के उपरांत अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों को गति मिली । अमेरिका ने तत्काल परमाणु शस्त्रों से सुसज्जित २ विमानवाहक पोत दक्षिण चीन समुद्र में भेजे । चीन के लिए यह बहुत बडी चेतावनी थी । उससे पूर्व ही रूस द्वारा भारत को ‘एस-४००’ अत्याधुनिक प्रणाली देने की तैयारी तुरंत दिखाई थी । फ्रांस ने भी समय रहते ‘राफेल’ लडाकू विमान देना स्वीकार किया । कनाडा ने हाँगकाँग के साथ की ‘एक्स्ट्राडिशन ट्रिटी’ (प्रत्यार्पण अनुबंध) रद्द कर दिया । ऑस्ट्रेलिया ने भारत को एक-दूसरे के नाविक शिविरों का उपयोग करने की अनुमति देने के संदर्भ में समझौता किया । ब्रिटेन ने हाँगकाँग के संबंध में अत्यंत कठोर नीति अपनाई । वैसे देखा जाए तो भारत के इस राजनीतिक अभियान के उपरांत गलवान का संघर्ष दोनों देशों तक सीमित न रहकर उसे अंतरराष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त हो गया ।
६. ‘अनेक देश अपने विरुद्ध खडे होंगे’, इस भय से चीन ने अपनी सेना को वापस बुला लिया
चीन की दादागिरी से असुरक्षित हुए देश भारत की ओर आशा से देखने लगे; क्योंकि संपूर्ण एशिया महाद्वीप में चीन की आक्रामक नीति का सामना केवल भारत ही कर सकता है; इसलिए भारत कैसे प्रत्युत्तर करता है, इसकी ओर सब की दृष्टि लगी हुई थी । इसके फलस्वरूप ‘हमने गलवान के संघर्ष को और आगे बढाया, तो हम घिर जाएंगे । उससे जापान, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, अमेरिका आदि सभी देश एकत्र होकर हमारे विरुद्ध खडे रहेंगे’, चीन को यह भय सताने लगा । उसके कारण ही चीन की भाषा परिवर्तित हो गई । चीन के विदेशमंत्री ने ‘हम बातचीत से इसका समाधान निकालने का प्रयास कर रहे हैं । दोनों पक्षों से शांति के प्रयास होने चाहिए’, ऐसा बुद्धिमतापूर्ण वक्तव्य दिया । अंततः काल का प्रवाह देखकर चीन ने समय रहते ही पीछे हटने का निर्णय लिया ।
– डॉ. शैलेंद्र देवळाणकर, विदेश नीति के विश्लेषक (साभार : फेसबुक पेज)