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श्री दुर्गासप्तशतिके अनुसार श्री दुर्गादेवीके तीन प्रमुख तीन रूप हैं ।
अ. महासरस्वती, जो ‘गति’ तत्त्वकी प्रतीक है ।
आ. महालक्ष्मी, जो ‘दिक्’ अर्थात ‘दिशा’ तत्त्वकी प्रतीक है ।
इ. महाकाली जो ‘काल’ तत्त्वका प्रतीक है ।
ऐसी जगत्का पालन करनेवाली जगत्पालिनी, जगदोद्धारिणी मां शक्तिकी उपासना हिंदु धर्ममें वर्ष में दो बार नवरात्रिके रूपमें, विशेष रूपसे की जाती है ।
१. वासंतिक नवरात्रि
यह उत्सव चैत्र शुद्ध शुक्ल प्रतिपदासे चैत्र शुक्ल शुद्ध नवमी तक मनाया जाता है ।
२. शारदीय नवरात्रि
यह उत्सव आश्विन शुक्ल शुद्धप्रतिपदासे आश्विन शुक्ल शुद्ध नवमी तक मनाया जाता है ।
नवरात्रिके प्रथम दिन घटस्थापनाके साथ श्री दुर्गादेवीका आवाहन कर स्थापना करते हैं । इसके उपरांत देवी मांके नित्यपूजनके लिए पुरोहितकी आवश्यकता नहीं होती । पूजाघरमें रखे देवताओंके नित्य पूजनके साथही उनका पूजन करते हैं । देवी मांके स्नानके लिए फूलद्वारा जल प्रोक्षण करते हैं । इसके उपरांत देवी मांको अन्य उपचार अर्पित करते हैं । पूजनके उपरांत वेदीपर बोए अनाजपर जल छिडकते हैं । विस्तृत जानकारी आगे पढिएं ।
नवरात्रि : घट स्थापना
घटस्थापनाकी विधिमें देवीका षोडशोपचार पूजन किया जाता है । घटस्थापनाकी विधिके साथ कुछ विशेष उपचार भी किए जाते हैं । पूजाविधिके आरंभमें आचमन, प्राणायाम, देशकालकथन करते हैं । तदुपरांत व्रतका संकल्प करते हैं । संकल्पके उपरांत श्री महागणपतिपू्जन करते हैं । इस पूजनमें महागणपतिके प्रतीकस्वरूप नारियल रखते हैं । व्रतविधानमें कोई बाधा न आए एवं पूजास्थलपर देवीतत्त्व अधिकाधिक मात्रामें आकृष्ट हो सकें इसलिए यह पूजन किया जाता है । श्री महागणपतिपूजनके उपरांत आसनशुद्धि करते समय भूमिपर जलसे त्रिकोण बनाते हैं । तदउपरांत उसपर पीढा रखते हैं । आसनशुद्धिके उपरांत शरीरशुद्धिके लिए षडन्यास किया जाता है । तत्पश्चात पूजासामग्रीकी शुद्धि करते हैं ।
घट स्थापना दृश्यपट (Navratri Video)
१. घट – स्थापना विधि
पूजास्थलपर खेतकी मिट्टी लाकर चौकोर स्थान बनाते हैं । उसे वेदी कहते हैं ।
अ. वेदी पर गेहूं डालकर उसपर कलश रखते हैं ।
आ. कलशमें पवित्र नदियोंका आवाहन कर जल भरते हैं ।
इ. चंदन, दूर्वा, अक्षत, सुपारी एवं स्वर्णमुद्रा अथवा सिक्के इत्यादि वस्तुएं कलशमें डालते हैं ।
ई. इनके साथ ही हीरा, नीलमणि, पन्ना, माणिक एवं मोती ये पंचरत्न भी कलशमें रखते हैं ।
उ. पल, बरगद, आम, जामुन तथा औदुंबर ऐसे पांच पवित्र वृक्षोंके पत्ते भी कलशमें रखते हैं ।
ऊ. कलशपर पूर्णपात्र अर्थात चावलसे भरा ताम्रपात्र रखते हैं ।
ए. वरुणपूजनके उपरांत वेदीपर कलशके चारों ओर मिट्टी फैलाते हैं ।
ऐ. इसके उपरांत मिट्टीपर विविध प्रकारके अनाज डालते हैं ।
ओ. उसपर पर्जन्यके प्रतीकस्वरूप जलका छिडकाव करते हैं । अनाजसे प्रार्थना करते हैं ।
औ. तदुपरांत देवी आवाहनके लिए कुंभ अर्थात कलशसे प्रार्थना करते हैं, `देव-दानवोंद्वारा किए समुद्रमंथनसे उत्पन्न हे कुंभ, आपके जलमें स्वयं श्रीविष्णु, शंकर, सर्व देवता, पितरोंसहित विश्वेदेव सर्व वास करते हैं । श्री देवीमांके आवाहनके लिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूं ।’
घट स्थापना करनेके पश्चात नवरात्रि व्रतका और एक महत्त्वपूर्ण अंग है ।
२. अखंडदीप – स्थापना की विधि
अ. जिस स्थानपर दीपकी स्थापना करनी है, उस भूमिपर वास्तुपुरुषका आवाहन करते हैं ।
आ. जिस स्थानपर दीपकी स्थापना करनी है, उस भूमिपर जलका त्रिकोण बनाते हैं । उस त्रिकोणपर चंदन, फूल एवं अक्षत अर्पण करते हैं ।
इ. दीपके लिए आधारयंत्र बनाते हैं ।
ई. तदुपरांत उसपर दीपकी स्थापना करते हैं ।
उ. दीप प्रज्वलित करते हैं ।
ऊ. इस प्रज्वलित दीपका पंचोपचार पूजन करते हैं ।
ए. नवरात्रि व्रत निर्विघ्न रूपसे संपन्न होनेके लिए दीपसे प्रार्थना करते हैं ।
कुलकी परंपराके अनुसार इस दीपमें घी अथवा तेलका उपयोग करते हैं । कुछ परिवारोंमें घीके एवं तेलके दोनोंही प्रकारके दीप जलाए रखनेकी परंपरा है ।
३. देवताओंकी स्थापनाविधि
कलशसे प्रार्थना करनेके उपरांत पूर्णपात्रमें सर्व देवताओंका आवाहन कर उनका पूजन करते हैं । तदुपरांत आवाहनमें कोई त्रुटि रह गई हो, तो क्षमा मांगते हैं । क्षमायाचना करनेसे पूजकका अहं घटता है तथा देवताओंकी कृपा भी अधिक होती है ।
४. श्री दुर्गादेवी आवाहन विधि
श्री दुर्गादेवी
अ. कलशपर रखे पूर्णपात्र पर पीला वस्त्र बिछाते हैं ।
आ. उसपर कुमकुमसे नवार्णव यंत्रकी आकृति बनाते हैं ।
मूर्ति, यंत्र और मंत्र ये किसी भी देवताके तीन स्वरूप होते हैं। ये अनुक्रमानुसार अधिक सूक्ष्म होते हैं । नवरात्रिमें किए जानेवाले देवीपूजनकी यही विशेषता है कि, इसमें मूर्ति, यंत्र और मंत्र इन तीनोंका उपयोग किया जाता है ।
अ. सर्वप्रथम पूर्णपात्रमें बनाए नवार्णव यंत्रकी आकृतिके मध्यमें देवीकी मूर्ति रखते हैं ।
आ. मूर्तिकी दाईं ओर श्री महाकालीके तथा बाईं ओर श्री महासरस्वतीके प्रतीकस्वरूप एक-एक सुपारी रखते हैं ।
इ. मूर्तिके चारों ओर देवीके नौ रूपोंके प्रतीकस्वरूप नौ सुपारियां रखते हैं ।
ई. अब देवीकी मूर्तिमें श्री महालक्ष्मीका आवाहन करनेके लिए मंत्रोच्चारणके साथ अक्षत अर्पित करते हैं ।
उ. मूर्तिकी दाईं और बाईं ओर रखी सुपारियोंपर अक्षत अर्पण कर क्रमके अनुसार श्री महाकाली और श्री महासरस्वतीका आवाहन करते हैं ।
ऊ. मूर्तिकी दाईं ओर रखी सुपारिपर अक्षत अर्पण कर श्री महाकाली और बाईं ओर रखी सुपारिपर श्री महासरस्वतीका आवाहन करते हैं
ए. तत्पश्चात नौ सुपारियोंपर अक्षत अर्पण कर नवदुर्गाके नौ रूपोंका आवाहन करते हैं तथा इनका वंदन करते हैं ।
५. श्री दुर्गादेवीका षोडशोपचार पूजन
अब देवीका षोडशोपचार पूजन किया जाता है । इसमें सर्वप्रथम देवीको अर्घ्य, पाद्य, आचमन आदि उपचार अर्पण करते हैं । इसके उपरांत देवीको पंचामृत स्नान कराते हैं । तदुपरांत शुद्ध जल, चंदनमिश्रित जल, सुगंधित द्रव्यमिश्रित जलसे स्नान कराते हैं और अंतमें श्री देवीमांको शुद्ध जलसे महाभिषेक कराते हैं । उसकेउपरांत देवीको कपासके वस्त्र, चंदन, सुहागद्रव्य अर्थात हलदी, कुमकुम, सिंदूर, अष्टगंध अर्पण करते हैं । काजल लगाते हैं । मंगलसूत्र, हरी चूडियां इत्यादि सुहागके अलंकार, फूल, दूर्वा, बिल्वपत्र एवं फूलोंकी माला अर्पण करते हैं ।
६. श्री दुर्गादेवीकी अंगपूजा
श्री दुर्गादेवीके शरीरका प्रत्येक अंग शक्तिका स्रोत है, इसीलिए श्री दुर्गादेवीके प्रत्येक अंगपर अक्षत अर्पित कर अंगपूजा की जाती है ।
श्री दुर्गादेवीकी पूजा चरणोंकी ओरसे आरंभ की जाती है। घुटनेकी अर्थात् श्री देवीमंगलाकी । कमरकी अर्थात् श्री देवी भद्रकालीकी, दाएं बाहूकी अर्थात् श्री महागौरीकी पूजा । बाएं बाहूकी अर्थात् श्री वैष्णवीकी पूजा । कंठकी अर्थात् श्री स्कंधमाताकी, मुखकी अर्थात् श्री सिंहवाहिनीकी पूजा ।
किसी व्यक्तिद्वारा धारण किया वस्त्र यद्यपि उस व्यक्तिका स्वरूप नहीं होता; फिर भी उन वस्त्रोंका व्यवहारमें कुछ तो महत्त्व होता ही है । उसी प्रकार दिशा, राशि, ऋतु जैसे ९ आवरण यद्यपि शक्तिका पूर्ण अथवा सत्य स्वरूप नहीं हैं; परंतु शक्तिके कार्यमें मानवी जीवनसे संबंधित इन सबका एक महत्त्वपूर्ण स्थान है; परंतु मानवी जीवनसे संबंधित शक्तिके कार्यमें इन सबका एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । इन्ही आवरणोंकी पूजा की जाती है ।
अ. देवीको महानैवेद्य निवेदित करते हैं ।
आ. देवीकी आरती करते हैं ।
इ. प्रार्थना करते हैं ।
ई. कलशपर प्रतिदिन एक अथवा कुलपरंपराके अनुसार प्रथम दिन एक, दूसरे दिन दो इस प्रकार माला बांधते हैं । माला इस प्रकार बांधें, कि वह कलशमें पहुंच सके । नई माला चढाते समय पहले दिनकी माला नहीं उतारी जाती ।
७. श्री दुर्गादेवीकी आवरण पूजा
कलशपर प्रतिदिन माला बांधते हैं । माला इस प्रकार बांधें, कि वह कलशमें पहुंच सके । कुलपरंपराके अनुसार प्रथम दिन एक, दूसरे दिन दो इस प्रकार माला बांधते है । नई माला चढाते समय पहले दिनकी माला नहीं उतारी जाती ।
संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत’