न्यायव्यवस्था को सुदृढ करना आवश्यक !

भारत के ४९ वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में उदय उमेश लळित आज शपथ लेंगे । अधिवक्ता स्तर से सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति बने और तदनंतर मुख्य न्यायाधीश बने वे दूसरे व्यक्ति हैं । लळित के पूर्व दिवंगत न्यायमूर्ति एस.एम. सिक्री बार से सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति चुने गए थे और आगे चलकर वे मुख्य न्यायाधीश हुए ।

अगस्त २०१७ में मुसलमान महिलाओं पर अत्याचार करनेवाला ३ तलाक अवैध होने का निर्णय देनेवाले खंडपीठ में न्यायमूर्ति लळित का सहभाग था । न्यायमूर्ति उदय लळित ने केरल उच्च न्यायालय का निर्णय परिवर्तित कर त्रावणकोर के वर्मा राजघराने को श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर के व्यवस्थापन का अधिकार दिया था । न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला का दिया ‘लैंगिक हिंसा में ‘स्किन टू स्किन’ स्पर्श अनिवार्य है’, न्यायमूर्ति उदय लळित ने यह वादग्रस्त निर्णय अमान्य (निरस्त) कर दिया । इतना ही नहीं, अपितु भारतीय सभ्यता और संस्कृति के बिलकुल विपरीत यह निर्णय देनेवाली पुष्पा गनेडीवाला को मुंबई उच्च न्यायालय के नियमित न्यायमूर्ति पद पर नियुक्त करने की अनुशंसा वापस लेने को बाध्य करनेवाले न्यायमूर्तियों में न्यायमूर्ति उदय लळित भी थे । वर्ष २०१४ में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशपद पर नियुक्ति होने से पूर्व न्यायमूर्ति लळित ने सोहराबुद्दीन शेख प्रकरण में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का भी प्रतिनिधित्व किया है । इस प्रकार विगत कुछ वर्षाें में विविध क्षेत्रों के निर्णयों में किसी न किसी रूप में उदय लळित का सहभाग रहा है । उन्होंने अनेक क्लिष्ट विषयों पर बहुत सहजता से तत्त्वनिष्ठ निर्णय दिए हैं । इसलिए आज न्यायक्षेत्र में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है । ऐसे व्यक्ति का मुख्य न्यायाधीशपद पर नियुक्त होना, निश्चित ही अच्छी बात है । आगे भी निश्चित रूप से उनसे ऐसे ही उत्तुंग कार्य की अपेक्षा कर सकते हैं ।

मुख्य न्यायाधीश उदय लळित के पिता उमेश लळित सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति थे । इंदिरा गांधी ने देश में आपात्काल घोषित किया, तब उमेश लळित मुंबई उच्च न्यायालय में अतिरिक्त न्यायमूर्ति के रूप में कार्यरत थे । उस समय आपात्काल में जिन पर बिना कारण अपराध प्रविष्ट किए गए, ऐसे निरपराधियों को प्रतिभू (जमानत) देकर कारागृह से बाहर निकालने का कार्य उमेश लळित ने साहस से किया था । मन में इसका वैर रखकर इंदिरा गांधी ने न्यायमूर्तिपद पर उनकी स्थायी (नियमित) नियुक्ति नहीं होने दी । राष्ट्रहित में कार्य किए न्यायमूर्ति के साथ यह एक प्रकार का अन्याय ही है । ‘मुख्य न्यायाधीश उदय लळित की नियुक्ति से राष्ट्रहित में कार्य करनेवाले कर्तृत्ववान घराने को अवसर दिया जा रहा है, यही कहना होगा ।

बहुत सारे परिवर्तनों की अपेक्षा !

आज मुख्य न्यायाधीश के रूप में उदय लळित के पास भारतीय न्याययतंत्र का कार्यभार आएगा, तब उनके सामने ढेर सारी चुनौतियां होंगी । भारत के विविध न्यायालयों में ४ करोड ७० लाख से अधिक अभियोग प्रलंबित हैं । अभियोग पर सुनवाई में आगे-आगे के दिनांक देते जाना, यह उसका एक बहुत बडा कारण है । पारिवारिक संपत्ति के विभाजन जैसे अत्यंत व्यक्तिगत स्तर के प्रकरण भी पीढियों से चलते रहना भारतीयों ने देखा है । आज समाज में प्रत्येक क्षेत्र में समयमर्यादा का बंधन है । शिक्षा जैसी प्राथमिक बात भी निर्धारित वर्षाें में ही पूरी करनी पडती है । कोई वर्षाें तक एक ही कक्षा की परीक्षा नहीं दे सकता । औद्योगिक क्षेत्र में भी एक ही उत्पाद पर मनचाहा समय नहीं लगा सकते । निर्धारित समयमर्यादा में उत्पादन किया, तभी वह उत्पादकों के लिए वहनीय है । शासकीय विभागों के काम और न्यायालयीन अभियोग, ये क्षेत्र ऐसे हैं कि वे कब आरंभ और कब पूरे होंगे, इसका कोई बंधन नहीं है । महामार्ग चौडा करने का कार्य जैसे वर्षाें चलता रहता हैे, झुग्गीझोपडी पुनर्विकास जैसे राजनेताओं को पीढी-दर-पीढी चलनेवाला आय का एक स्वतंत्र मार्ग बन जाता है, उसी प्रकार न्यायालयीन प्रकरणों की भी छवि बन गई है । किसी प्रकरण पर कितनी समयावधि में निर्णय हो, कितनी सुनवाईयों में वाद-विवाद पूर्ण हो, इसके ऊपर कुछ समयमर्यादा डालना, न्यायव्यवस्था सामान्य लोगों को विश्वसनीय लगे, इसके लिए वह प्रक्रिया सुलभ करना, अधिवक्ताओं से पक्षकारों को होनेवाला संकट और रुकावट टालना, केवल निर्णय न देकर, पीडितों को वास्तविक न्याय दिलाना जैसे आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए भारतीय न्यायतंत्र के पास बहुत अवसर हैं ।

नवनिर्वाचित मुख्य न्यायाधीशों से ऐसे परिवर्तनों की अपेक्षा कर सकते हैं; क्योंकि कुछ दिन पूर्व ही उन्होंने वैसे संकेत दिए थे । ‘छोटे बच्चे जब सवेरे ७ बजे विद्यालय जा सकते हैं, तो न्यायाधीश और अधिवक्ता सवेरे ९ बजे काम क्यों नहीं आरंभ कर सकते ?’, वर्ष २०२२ के जुलाई माह में एक सुनवाई के समय उन्होंने ऐसा प्रश्न उपस्थित किया था । ‘सर्वोच्च न्यायालय सवेरे ९ बजे काम आरंभ करे’, ऐसा उन्होंने सुझाया है । ‘जब वे स्वयं पीठासीन होंगे, निश्चित रूप से तभी इस प्रकार के क्रांतिकारी पग उठा पाएंगे’, ऐसी आशा है ।

कार्य की गति बढाना आवश्यक !

न्यायालय के कार्य का समय बढाने के साथ अधिवक्ता और न्यायाधीश के कार्य की गति और फलनिष्पत्ति बढाने पर भी माननीय मुख्य न्यायाधीश ध्यान दें तो भारतीय न्यायतंत्र में वह एक मील का पत्थर सिद्ध होगा ! प्रलंबित प्रकरणों का विषय आता है, तब प्रत्येक समय न्यायमूर्तियों के रिक्त स्थानों की गणना होती ही है ! प्रत्यक्ष उपलब्ध तंत्र में ही गुणवत्ता पर बल दिया जाए, तो आज की परिस्थिति में भी अभियोगों की संख्या नियंत्रण में आकर पीडितों को शीघ्रातिशीघ्र न्याय मिलेगा ! केवल अभियोगों पर निर्णय होना, इसे अन्य उत्पादकों का ‘स्टॉक क्लियरेंस सेल’ (शेष उत्पाद बिक्री की योजना) होता है, इस रूप में नहीं देखना चाहिए । यह कोटि-कोटि लोगों के जीवन का दुख दूर करने जितना ही महत्त्वपूर्ण है । इसलिए प्रशासकीय और न्यायिक जैसे सभी स्तरों पर सुधार करना, नए भारत के लिए अब यह अनिवार्य है । वैसे तो करने के लिए बहुत कुछ है; किंतु मुख्य न्यायाधीश लळित को केवल ७४ दिनों की समयावधि मिली है । उस प्रत्येक दिन से लाभ उठाकर वे भारतीय न्यायव्यवस्था को ऊर्जितावस्था प्राप्त करा दें, इसके लिए उन्हें शुभकामनाएं !

न्यायालय के कार्य की फलोत्पत्ति बढने के लिए ‘अभियोगों (मुकदमों) पर निर्णय देने की सीमा निर्धारित करना आवश्यक है !