अ. परात्पर गुरु डॉक्टरजी के विचारों को ‘दर्शन’ कहने का कारण ! : ‘जिस शास्त्र के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान होता है’, जानकार लोग उसे ‘दर्शन’ बोलते हैं । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा रखा गया हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का विचार लौकिक जगत के प्रति आदर्श दृष्टिकोण देता है, तो उनके द्वारा विशद ‘गुरुकृपायोग’ साधनामार्ग पारलौकिक उन्नति को सुलभ बनाता है । इस कारण उनके ओजस्वी विचारों के लिए ‘दर्शन’ शब्दप्रयोग किया गया है ।
आ. परात्पर गुरु डॉक्टरजी के ‘हिन्दू राष्ट्र दर्शन’ का इतिहास ! : परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी ने १९९८ में ‘ईश्वरीय राज्यकी स्थापना’ ग्रंथ के माध्यम से ‘आध्यात्मिक राष्ट्ररचना’ का सिद्धांत रखा । उसके लिए उन्होंने ‘भारतीय मजदूर संघ’ के वरिष्ठ नेता स्व. गजाननराव गोखले के ‘अध्यात्मावर आधारित राष्ट्ररचना’ विचारसंग्रह को भी आधार बनाया । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने समय-समय पर सनातन के ग्रंथों और ‘सनातन प्रभात’ नियतकालिकों के माध्यम से ‘आध्यात्मिक राष्ट्ररचना’ के संदर्भ में उन्हें सूझे हुए विचारों को प्रकट किया । आज इस संपूर्ण लेख को संकलित किया जाए, तो उसके अनेक ग्रंथ बन जाएंगे । उनके समग्र लेख का परिचय हो; इस उद्देश्य से ‘हिन्दू राष्ट्र’ दर्शन के उनके कुछ विचार यहां उद्धृत कर रहा हूं ।
१. धर्माधिष्ठित राष्ट्रविचार
धर्म (अथवा पंथ), संस्कृति, भाषा, भूमि और जन किसी भी राष्ट्र के पंचप्राण माने जाते हैं । आज के समय में यूरोप का भाषिक राष्ट्रवाद, अफ्रीका-ऑस्ट्रेलिया का भौमिक (भौगोलिक) राष्ट्रवाद, पूर्व के एशियाई देशों का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तथा अमेरिका उपमहाद्वीप के नागरिक को केंद्रबिंदु बनाकर निर्मित ‘नागरिक राष्ट्रवाद’ की तुलना कर ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ विशद करने का दयनीय प्रयास किया जाता है । वास्तव में भौमिक, सांस्कृतिक, भाषिक या नागरिक राष्ट्रवाद धर्म के आधार के बिना अधूरे हैं । इस पृष्ठभूमि पर ‘धर्म ही राष्ट्र का सच्चा प्राण होता है’, इसे परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने ‘ईश्वरीय राज्यकी स्थापना’ ग्रंथ में स्पष्टता से बताया है । इस विषय में ‘हिन्दू राष्ट्र : आक्षेप एवं खंडन’ ग्रंथ में वे स्पष्ट करते हैं, ‘देश’ शब्द ‘दिशा’ शब्द से बना होने से वह चार सीमाओं और भौतिक भूमि तक ही सीमित है; परंतु ‘राष्ट्र’ की संकल्पना में केवल भौतिक भूमि अपेक्षित नहीं है; अपितु वह धर्म, संस्कृति, परंपरा, इतिहास, ग्रंथ, उत्सव आदि को अभिव्यक्त करनेवाली जीवंत संकल्पना है ।’’ इस ‘राष्ट्र’ शब्द की विशेषता बताते हुए ‘ईश्वरीय राज्यकी स्थापना’ ग्रंथ में वे लिखते हैं, ‘राष्ट्र का अर्थ त्रिकालबाधित सत्यरचना है । ‘धर्म’ ऐसे राष्ट्र का ‘प्राण’ है । प्राण निकल जाने पर देह का कोई महत्त्व नहीं रहता । वह सडने लगता है । आज धर्मनिरपेक्ष भारत की वही स्थिति हो रही है ।’ इसलिए हमें केवल संवैधानिक ही नहीं, अपितु धर्माधारित हिन्दू राष्ट्र चाहिए !
२. आध्यात्मिक स्वरूप का हिन्दू राष्ट्र-विचार
अनेक विचारकों ने भूगोल, इतिहास, संस्कृति एवं तत्त्वज्ञान के आधार पर हिन्दू राष्ट्र का विचार रखा है, उदाहरणार्थ वीर सावरकर एवं लोकमान्य टिळक के हिन्दू राष्ट्र की परिभाषा भूमि एवं संस्कृति से संबंधित है । कुछ समय पूर्व ही भारतीय संविधान और विश्व हिन्दू परिषद ने भी ‘हिन्दू’ शब्द की परिभाषाएं दी हैं । उनके द्वारा दिए गए सभी व्याख्यानों से ‘हिन्दू’ शब्द के समूहवाचक होने का समझ में आता है । इस पृष्ठभूमि पर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ‘हिन्दू राष्ट्र’ का विचार रखा है । ‘हिन्दू राष्ट्रकी स्थापनाकी दिशा’ ग्रंथ में उन्होंने हिन्दू राष्ट्र का आध्यात्मिक विश्लेषण करनेवाली और उसमें समाहित वैश्विक विचार प्रकट करनेवाली परिभाषा लिखी है । वे लिखते हैं – प्राचीन ग्रंथ ‘मेरुतंत्र’ में हिन्दू शब्द की उत्पत्ति विशद करते हुए लिखा गया है कि ‘हीनान् गुणान् दूषयति इति हिन्दूः’ इसका अर्थ है ‘जो स्वयं में विद्यमान हीन गुणों का त्याग करता है, वह है हिन्दू ! जो रज-तमात्मक हीन गुणों और उनके कारण घटित होनेवाले कायिक, वाचिक एवं मानसिक स्तर के हीन कर्माें को दूर करने का प्रयास करता है अर्थात जो सात्त्विक आचरण करता है, वही ‘हिन्दू’ है !’’
आगे हिन्दू राष्ट्र की परिभाषा बताते हुए वे लिखते हैं, ‘‘इस प्रकार का सत्त्वगुणी व्यक्ति ‘मैं और मेरा’ जैसे संकीर्ण विचारों को त्यागकर विश्व के कल्याण का विचार करता है । इतिहास में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं ।’’
अ. हमारे पूर्वज रहे ऋषि-मुनियों ने ‘कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम् ।’, (ऋग्वेद, मंडल ९, सूक्त ६३, ऋचा ५), अर्थात ‘हम समस्त विश्व को आर्य (सुसंस्कृत) बनाएंगे !’, यह घोषणा की थी ।
आ. संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वर महाराज ने बताया है, ‘भावार्थदीपिका’ ग्रंथ में ‘यह विश्व ही मेरा घर है ।’
इ. संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वर महाराज ने ‘पसायदान’ नाम की प्रार्थना में विश्वकल्याण के लिए दान मांगा है ।
ई. समर्थ रामदासस्वामी ने कहा था, ‘मैं चिंता करता हूं विश्व की !’
इन धर्मधुरंधरों को अभिप्रेत विश्वकल्याण हेतु कार्यरत सत्त्वगुणी लोगों का अर्थात सत्त्वगुणी शासनकताओं और प्रजा का राष्ट्र’, इस प्रकार से ‘हिन्दू राष्ट्र’ शब्द की वास्तविक परिभाषा है ।’’
३. हिन्दू राष्ट्र का अर्थ है ईश्वरीय राज्य !
‘हिन्दू राष्ट्र क्यों आवश्यक ?’ ग्रंथ में हिन्दू राष्ट्र की रचना स्पष्ट करते हुए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी लिखते हैं, ‘‘हिन्दू राष्ट्र’ शब्द बोलते ही उसकी ओर ‘केवल हिन्दुओं का राष्ट्र’ जैसी संकीर्ण भावना से देखा जाता है । तथापि ‘हिन्दू राष्ट्र’ की सामाजिक व्यवस्था मानव, पशु, कीडे, चीटी, वृक्ष, लताओं आदि से लेकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवों के उद्धार का विचार रखनेवाले एक ईश्वर-संकल्पित सामाजिक व्यवस्था होगी; इसलिए उसे ‘ईश्वरीय राज्य’ कहा जा सकेगा ।’’
४. विकास की परिभाषा
२३.३.१९९९ को कुडाळ (महाराष्ट्र) में संपन्न सार्वजनिक सभा में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने कहा था, ‘‘नागरिकों की आध्यात्मिक उन्नति के आधार पर राष्ट्र के विकास का मूल्यमापन किया जाना चाहिए; क्योंकि भौतिक विकास बहुत हुआ और आत्मिक (अथवा नैतिक) विकास साध्य नहीं हुआ, तो उस भौतिक विकास का क्या अर्थ रह जाता है ?’’ इस संदर्भ में स्पष्टीकरण देते हुए ‘हिन्दू राष्ट्र : आक्षेप एवं खंडन’ ग्रंथ में वे लिखते हैं, ‘‘भौतिक विकास की दृष्टि से भी धर्म महत्त्वपूर्ण है ! दुर्भाग्यवश आज ‘भौतिक विकास को ही सबकुछ’ माना जा रहा है । ‘मेट्रो’, ‘मॉल’, ‘स्मार्ट सिटी’ का अर्थ है विकास’, इस प्रकार से भौतिक विकास का चित्र खडा किया जा रहा है । भौतिक विकास के कारण भले ही ‘मेट्रो’ तथा ‘मेट्रो’ के अत्याधुनिक रेलस्थान मिलेंगे; परंतु ‘काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं मत्सर, इन षड्रिपुओं पर विजय कैसे प्राप्त करनी चाहिए ?’, इस विषय में तत्त्वज्ञान में कहां मार्गदर्शन है ? जिन षड्रिपुओं के कारण मेट्रो में नियमों को तोडकर किया जानेवाला अनुचित आचरण और महिलाओं का शीलभंग होता है, उनका निर्मूलन मेट्रो का व्यवस्थापन कैसे करेगा ? सीतामाता का अपहरण करनेवाले रावण की सोने की ‘लंका’ उस काल में भी ‘स्मार्ट सिटी’ थी । क्या हमें उस प्रकार की ‘स्मार्ट सिटी’ चाहिए ? धर्म एक ऐसा विषय है जो हमें काम, क्रोध, लोभ आदि षड्रिपुओं पर विजय प्राप्त करना सिखाता है । इसलिए केवल भौतिक विकास साध्य कर नहीं, अपितु लोगों को धर्म सिखाकर नीतिमान बनाना भी उतना ही आवश्यक है ।’’
५. पर्यावरणपूरक राष्ट्र-विचार
आज के समय में विकास के नाम पर पर्यावरण का विनाश चल रहा है । इस पृष्ठभूमि पर परात्पर गुरु डॉक्टरजी का हिन्दू राष्ट्र का विचार पर्यावरणपूरक है । ‘देवनदी गंगा की रक्षा करें !’ ग्रंथ में वे लिखते हैं, ‘‘बांध बनाए जाने के कारण नदियों का प्राकृतिक प्रवाह रोक दिया जाता है और उससे उनकी अखंडता नष्ट होती है; इसलिए बडे-बडे बांध बनाने की अपेक्षा नदी के मूल प्रवाह को प्रवाहित रखकर नहरों के माध्यम से गांवों को जल की आपूर्ति करने की व्यवस्था की जानी चाहिए । प्रत्येक गांव में जलाशय होना चाहिए, साथ ही बिजली बनाने के लिए सौर, पवन आदि प्राकृतिक वैकल्पिक स्रोतों के द्वारा ऊर्जा निर्मिति के लिए प्रयास किए जाने चाहिए । प्रकृति का विनाश करनेवाला विकास सनातन धर्म को अपेक्षित नहीं है ।’
५ अ. वृक्षारोपण : २०.८.२००८ को वृक्षारोपण के विषय में ‘सनातन प्रभात’ में लिखते हैं, ‘वृक्षारोपण राजनेताओं द्वारा नहीं, अपितु संतों के करकमलों से कीजिए ! जैसे बीज वैसे फल मिलते हैं, उसके अनुसार राजनेताओं द्वारा वृक्षारोपण किए गए वृक्षों में रज-तमात्मक अहंकार के, जबकि संतों के करकमलों से रोपण किए गए वृक्षों में साधकत्व उत्पन्न करनेवाले फल आते हैं !’
६. राष्ट्रीय समस्याओं का उत्तर खोजते समय राष्ट्रहानि न हो, इसके संबंध में चिंतन करना
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के ‘हिन्दू राष्ट्र दर्शन’ की यह विशेषता है । १४.५.२०१५ को प्रकाशित ‘हिन्दुओं द्वारा अनेक संतानों को जन्म देना उचित अथवा अनुचित ?’, इस लेख में वे लिखते हैं । ‘मुसलमानों द्वारा ३० वर्ष पूर्व ही अपनी जनसंख्या बढाने की कूटनीति का क्रियान्वयन करने के उपरांत अब हिन्दुओं के नेता हिन्दुओं से ‘४ बच्चों को जन्म दीजिए’ का उपदेश दे रहे हैं । अब संकट द्वार पर नहीं, अपितु घर आ पहुंचा है ! ऐसी स्थिति में इन ४ बच्चों के बडे होने तक हिन्दू समाज के पास समय कहां है ? यह तो ‘घर में आग लगने के उपरांत कुआं खोदने जैसा’ विचार है । वे आगे लिखते हैं, ‘आज के समय में घर-घर में हिन्दू लडकों को सिंह न बनाकर बकरी बनाने की शिक्षा दी जाती है, यह वास्तविकता है । हिन्दुओं ने ऐसे ५ ही नहीं, अपितु ५० बच्चों को भी जन्म दिया, तब भी वे दंगों में काटे ही जाएंगे ! साथ ही आज ४ बच्चों को जन्म देकर आगे जाकर वे राष्ट्र एवं धर्म के लिए कुछ करेंगे, इसकी आश्वस्तता कैसे की जा सकती है ?’
आगे जाकर इसी विषय में राष्ट्रहित का दृष्टिकोण देते हुए वे लिखते हैं, ‘जनसंख्याशास्त्र के अनुसार भारत का क्षेत्रफल ४० करोड नागरिकों के लिए अनुकूल है । आज के भारत की जनसंख्या १३५ करोड तक पहुंच गई है; उसके कारण देश को निर्धनता, बेरोजगारी, निरक्षरता, पर्यावरण का असंतुलन, संसाधनों का अभाव आदि समस्याओं का सामना करना पड रहा है । भारत की जनसंख्या यदि इससे बढ गई, तो वह बोझ भारत की प्रत्येक व्यवस्था पर आकर गिरेगा । एक थाली में सूक्ष्म जीव-जंतुओं की संख्या जब बढते-बढते चरम तक पहुंच जाती है, तब उन्हें खाने के लिए कुछ न मिलने से सभी जीव-जंतु मर जाते हैं, वैसी हिन्दुओं की स्थिति होगी । इसलिए हिन्दू नेताओं को ‘अपनी जनसंख्या बढाइए’, का आवाहन करते समय जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणाम भी ध्यान में लेने चाहिए ।
७. आंदोलनों से राष्ट्रीय हानि न हो !
वर्ष १९९९ में ‘सनातन प्रभात’ के संस्थापक-संपादक रहते समय उन्होंने स्पष्टता से लिखा, ‘समाज पर हो रहे अन्याय के विरुद्ध आंदोलन चलाने का जनता को अधिकार है; परंतु उसमें सार्वजनिक संपत्ति को हानि पहुंचाना, बंद रखना, बसों-रेलगाडियों को जलाना आदि विध्वंसकारी कृत्यों के कारण राष्ट्र की ही हानि होती है । अतः किसी भी आंदोलन से राष्ट्र को हानि न पहुंचाइए !’, उनके इन विचारों से प्रेरणा लेकर ‘हिन्दू जनजागृति समिति’ ने कभी भी विध्वंसकारी आंदोलन नहीं चलाए, साथ ही समिति के किसी भी आंदोलन से अभी तक जनता को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंची है ।
८. न्याय का राज्य चाहिए !
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी वर्तमान न्यायतंत्र के विषय में ‘ईश्वरीय राज्यकी स्थापना’ ग्रंथ में लिखते हैं, ‘आज के समय सर्वत्र कानून का राज्य (Court of Law) है; परंतु हिन्दू राष्ट्र में न्याय का (Court of Justice) राज्य होगा ।’
९. राष्ट्रनिर्माण राजनेताओं का काम नहीं है !
हिन्दू राष्ट्र के लिए अपेक्षित राष्ट्रनिर्माण संसदीय पद्धति से होगा, ऐसा अधिकांश लोगों को लगता है । इस विषय में ‘ईश्वरीय राज्यकी स्थापना’ ग्रंथ में वे लिखते हैं, ‘सत्ताग्रस्त राजनेताओं के द्वारा ‘राष्ट्ररचना’ होना सर्वथा असंभव है, इस बात को पहले मन पर दृढता से अंकित कर लेना चाहिए; क्योंकि राष्ट्ररचना’ एक शास्त्रीय प्रक्रिया है और उसमें केवल सत्य का ही स्थान है । उसका विचार करते समय जिस अनुपात में हम असत्य, अज्ञान इत्यादि दोषों को ज्ञात-अज्ञातवश स्वीकार करेंगे, उसी अनुपात में वह रचना दुर्बल और अधूरी होगी । राजनीति का प्रमुख उद्देश्य ‘सत्ता प्राप्त कर उसे टिकाए रखना’ होता है । राष्ट्ररचना एवं राजनीति में आकाश-पाताल की दूरी होती है । इसलिए राष्ट्रनिर्माण राजनेताओं का काम नहीं है !’
१०. हिन्दू राष्ट्र की फलश्रुति केसंदर्भ में दृष्टिकोण
परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने सत्त्वगुणी हिन्दुओं का संगठन खडा करने का विचार दिया था । आज के समय ‘अनेक हिन्दू संगठनों की उपस्थिति में राष्ट्रीय और विभिन्न स्थानों पर प्रांतीय अधिवेशनों का आयोजन होना’, तो केवल उनके विचारों में विद्यमान चैतन्य का परिणाम है । प्रथम ‘हिन्दू राष्ट्र अधिवेशन’ के अंतिम दिन अर्थात १४.६.२०१२ को उन्होंने लिखा था, ‘जब यह हिन्दू राष्ट्र आएगा, तब सनातन के साधक पिछले बेंचों पर बैठे होंगे और हिन्दू राष्ट्र की विजय की ढोल बजानेवाले अन्य लोग ही होंगे ! उस समय हमें केवल ‘हमने काल के अनुसार कार्य किया’, इसी पर संतोष होगा ।’
– सद्गुरु नीलेश सिंगबाळ, धर्मप्रचारक, हिन्दू जनजागृति समिति (२६.५.२०२२)