वर्ष २००९ में सर्वाेच्च न्यायालय ने छत्तीसगढ के दंतेवाडा में सुरक्षाबलों ने १६ आदिवासियों की कथित हत्या करने के प्रकरण में स्वतंत्र रूप से जांच करने की मांग से संबंधित याचिका अस्वीकार की, साथ ही याचिकाकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार को (खर्च का भुगतान) ४ सप्ताह के अंदर ५ लाख रुपए का ‘कॉस्ट’ भुगतान करने का आदेश दिया । इस घटनाक्रम से और याचिका के माध्यम से नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति रखनेवालों का जो षड्यंत्र दिखाई दिया; उसकी अर्थहीनता यहां दे रहे हैं । इससे ऐसी याचिकाओं के माध्यम से किस प्रकार न्यायालयों का दुरुपयोग किया जाता है, यह भी समझ में आएगा ।
१. दंतेवाडा में हुए कथित हत्याकांड के विषय में सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार द्वारा सर्वाेच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट कर विभिन्न मांगें करना
‘छत्तीसगढ के दंतेवाडा में स्थित गैरसरकारी संस्था ‘वनवासी चेतना आश्रम’ के हिमांशु कुमार स्वयं को आदिवासियों का हितैषी मानते हैं । उन्होंने वर्ष २००९ में सीधे सर्वोच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट कर उसमें कहा था कि १७ सितंबर २००९ और १ अक्टूबर २००९ को छत्तीसगढ के दंतेवाडा जिले के गच्चमपल्ली (गोपाळ बेलपो) में कोबरा बटालियन, अर्धसैनिक बल, केंद्रीय सुरक्षा बल और राज्य के विशेष पुलिस अधिकारियों द्वारा निर्दाेष आदिवासी लोगों की अमानवीय पद्धति से हत्या की गई । केंद्रीय अन्वेषण विभाग को (सीबीआई को) इस हत्याकांड की जांच सौंपी जाए, साथ ही सरकार ‘अतिरिक्त न्यायिक क्रियान्वयन’ में समाहित पीडित परिवारों को सहायता राशि भी दे ।
इस प्रकरण में दूसरी याचिका प्रविष्ट हुई थी । उसमें ‘छत्तीसगढ राज्य के श्री. शंकर सेन, डॉ. के.एस. सुब्रह्मण्यम् और पुलिस महानिदेशक रजनीश राय के नेतृत्व में विशेष अन्वेषण बल (एस.आई.टी.) का गठन किया जाए तथा ‘गुजरात दंगे के प्रकरण में जिस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष अन्वेषण दल का गठन किया था, उस प्रकार से इस प्रकरण की भी जांच की जाए’, ये मांगें की गईं । उसमें वादी (याचिकाकर्ता) २ से १२ (पीडित परिवारों के परिजन) बस्तर विभाग में वादी क्रमांक २ से १२ मारे गए आदिवासी परिवारों के व्यक्ति समाहित हैं । ‘छत्तीसगढ सरकार उन्हें देहली में उपस्थित कर डॉ. मोहिनी गिरी (चेयरमैन, गिल्ड सर्विसेस, नई देहली) को हस्तांतरित करे और हिमांशु कुमार तथा उनके अधिवक्ता को वादी क्रमांक २ से १२ से मिलने दिया जाए । उसमें जो संवाद होगा, उसका ब्योरा माननीय न्यायालय के पास रखा जाए’, ये मांगें भी की गईं ।
२. आदिवासियों के भयंकर हत्याकांड किए जाने का दावा करना और उससे अप्रत्यक्ष रूप से न्यायसंस्था पर उंगली उठाना
इसमें बडी संख्या में आदिवासियों की सामुदायिक हत्याएं होने का दावा किया गया । उसके अनुसार ८ जनवरी २००९ को एक ७० वर्षीय आदिवासी महिला के स्तन काटे गए और उसके उपरांत उसकी हत्या कर दी गई, पुलिस ने २ वर्षीय बालक की अमानवीय हत्या की, साथ ही एक आदिवासी मनुष्य को पेड पर लटकाकर फांसी दी गई और आदिवासियों के घर जलाकर उनके पैसे लूटे गए । ८ मार्च २००९ को छत्तीसगढ के मातवाडा, सलवार और बिजापुर में ३ आदिवासियों की हत्या की गई । इस याचिका में इन सभी मृतक आदिवासियों को वादी बनाया गया । इस याचिका में आगे कहा गया है कि अपराध पंजीकृत तो किए जाते हैं; परंतु अन्वेषण के उपरांत उनके प्रमाणित न होने से न्यायसंस्थाओं ने उन्हें एक ओर रख दिया ।’ इससे अप्रत्यक्ष रूप से न्यायसंस्था पर भी उंगली उठाई गई ।
३. छत्तीसगढ सरकार द्वारा प्रतिवाद कर आरोपों का खंडन करना और उसमें नक्सलियों द्वारा अर्धसैनिक बल के सैनिकों और पुलिसकर्मियों पर किए जानेवाले आक्रमणों के विषय में बताना
इस याचिका का उत्तर देते हुए सरकार ने सभी आरोप अस्वीकार किए । इस विषय में छत्तीसगढ सरकार ने शपथपत्र प्रविष्ट कर कहा कि छत्तीसगढ में नक्सलियों का बडा प्रभाव है और वे देश और राज्य की एकता को हानि पहुंचा सकते हैं । उनसे प्रधानमंत्री के प्राणों पर भी संकट बना हुआ है । छत्तीसगढ में कार्यरत अर्धसैनिक बल के सैनिकों और पुलिसकर्मियों की बडी संख्या में हत्याएं की गई हैं, जिसमें वरिष्ठ अधिकारियों का भी समावेश है । पिछले २ वर्षाें में ३०० से अधिक पुलिसकर्मियों और अर्धसैनिक बलों के अधिकारियों की हत्याएं की गई हैं । एक ओर नक्सलियों द्वारा निर्दाेष लोगों और पुलिसकर्मियों की बडी मात्रा में हत्याएं होती हैं और नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति रखनेवाले इस प्रकार से उच्च और सर्वाेच्च न्यायालय में ‘रिट’ याचिकाएं प्रविष्ट करते हैं ।
सरकार ने आगे कहा कि ‘कोबरा बटालियन’ जब घने अरण्य में नक्सलियों के विरुद्ध अभियान चलाता है, उस समय १५० से २०० नक्सली पुलिसकर्मी और अर्धसैनिक बलों पर गोलीबारी करते हैं । ऐसे आक्रमणों में नक्सलियों के हाथों चटमुखी ए.सी., मनोरंजन सिंह, राकेश चौरसिया और उदय कुमार यादव जैसे अधिकारी मारे जा चुके हैं । पुलिस द्वारा स्वरक्षा के चलते की जानेवाली गोलीबारी में कुछ नक्सलियों की मृत्यु होती है । आरंभ में इन प्रकरणों का छत्तीसगढ पुलिस और उसके उपरांत आपराधिक अन्वेषण विभाग की ओर से अन्वेषण किया जाता
है । मुठभेड के उपरांत पुलिस और अर्धसैनिक बलों को बडी संख्या में बंदूकें और अन्य सामग्री मिलती हैं । कभी-कभी पुलिस के शस्त्र भी लूटे जाते हैं । इस विषय में नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखनेवाले न्यायालय में याचिकाएं प्रविष्ट करते हैं ।
४. तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में शपथपत्र प्रविष्ट कर प्रमाणों के साथ आरोपों का खंडन किया जाना और ऐसी याचिकाओं का वास्तविक उद्देश्य न्यायालय के ध्यान में आना
नक्सलियों को ठिकाने लगाने हेतु १० वर्ष पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के सामने एक याचिका की सुनवाई चल रही थी । एक जनप्रतिनिधि ने एक स्वतंत्र याचिका प्रविष्ट की थी । इस याचिका में ६ राज्यों में नक्सली हत्याओं के संदर्भ में चिंता व्यक्त की गई थी । उसमें झारखंड राज्य सरकार और तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री ने शपथपत्र प्रस्तुत किया । उन्होंने न्यायालय को बताया कि नक्सलियों के विरुद्ध लडते हुए सहस्रों निर्दाेष नागरिक और कर्तव्य का निर्वहन कर रहे सैकडों पुलिस अधिकारी वीरगति को प्राप्त हुए । इसमें लगाए गए झूठे आरोपों का प्रमाण सहित खंडन किया गया ।
४ अ. न्यायालय ने गंभीरता से इन सभी प्रकरणों का संज्ञान लिया । विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वाेच्च न्यायालय में नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखनेवालों ने जो याचिकाएं प्रविष्ट की थीं, उनका उद्देश्य केवल ‘पुलिस और अर्धसैनिक दलों को नक्सलियों के विरुद्ध काम करने न देना’ ही है; इसे न्यायालय ने भांप लिया । न्यायालय ने इन सभी याचिकाओं पर एकत्रित रूप से विचार किया ।
५. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नई देहली के जिला और सत्र न्यायाधीश जी.पी. मित्तल को पीडितों से साक्ष्य लेने के लिए कहना और न्यायाधीश जी.पी. मित्तल से प्राप्त ब्योरे से इन याचिकाओं के पीछे का षड्यंत्र उजागर होना
उस समय आधुनिकतावादियों, धर्मांधों और संविधान के रक्षकों के लिए सर्वोच्च न्यायालय में उत्साह के साथ लडनेवाले प्रमुख अधिवक्ता न्यायालय को कथित घटना स्थल पर न्यायिक अधिकारी को भेजने का आग्रह करते थे । इस पर आदेश देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने १५ मार्च २०१० को नई देहली की तीस हजारी के जिला एवं सत्र न्यायाधीश जी.पी. मित्तल को आदिवासियों और पीडित व्यक्तियों के साक्ष्य लेने का आदेश दिया । इस अन्वेषण में उन्होंने बताया कि ये हत्याएं पुलिसकर्मियों ने नहीं की हैं, साथ ही उन्होंने याचिकाकर्ताओं को इस विषय में याचिका प्रविष्ट करने के लिए भी नहीं कहा है । उनके लिए ‘रिट’ याचिका प्रविष्ट होने की बात इन आदिवासियों को पहली बार ही ज्ञात हुई ।
उक्त आदेश के अनुसार सत्र न्यायाधीश मित्तल ने आदिवासी पीडितों के साक्ष्य पंजीकृत किए । उस पर याचिका के वादी हिमांशु कुमार एवं मोहन सिन्हा, साथ ही इस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय में वकालत करनेवाले मुख्य अधिवक्ताओं के हस्ताक्षर थे । उसके आधार पर उन्होंने अपना ब्योरा तैयार किया । सर्वोच्च न्यायालय ने जब न्यायाधीश मित्तल से प्राप्त ब्योरा पढा, तब न्यायालय इसके प्रति आश्वस्त हुआ कि पुलिस अथवा अर्धसैनिक बलों के द्वारा ऐसे किसी भी प्रकार से अत्याचार अथवा हत्याएं नहीं की गई हैं । यह याचिका केवल उनके काम में बाधा डालने के लिए ही प्रविष्ट की गई थी । इसलिए न्यायालय इस निष्कर्ष तक पहुंचा है कि ब्योरे के आधार पर यह याचिका झूठी है । उसके उपरांत न्यायालय ने याचिकाकर्ता हिमांशु कुमार की याचिका अस्वीकार करते हुए उन पर ५ लाख रुपए का ‘कॉस्ट’ (खर्चे का भुगतान करना) लगाया ।
६. केंद्र सरकार द्वारा याचिकाकर्ताओं की जांच करने का किया गया अनुरोध सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार करना
इस प्रकरण में केंद्र सरकार ने स्वतंत्र हस्तक्षेप याचिका अथवा आवेदन देकर न्यायालय से यह अनुरोध किया कि नक्सलियों के समर्थक और वामपंथी विचारधारा के लोग बडी मात्रा में पुलिस और अर्धसैनिक बलों के कथित अत्याचार के विरुद्ध झूठी याचिकाएं प्रविष्ट करते हैं । भारतीय आपराधिक संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता में झूठे तथ्य देकर शपथपत्र प्रविष्ट करना और फर्जी कागदपत्र को सत्य बताने का दुराग्रह रखना, न्यायालय का दिशाभ्रम करना और सरकारी कर्मचारियों, पुलिस एवं अर्धसैनिक बलों का मनोबल गिराना तथा उससे सनसनी उत्पन्न कर अपनी प्रतिमा चमकाने के लिए झूठी याचिकाएं प्रविष्ट करते हैं । इसलिए ‘केंद्रीय अन्वेषण विभाग’ अथवा ‘राष्ट्रीय अन्वेषण विभाग (एन.आई.ए.) को इन सभी गैरसरकारी संस्थाओं की जांच करने की अनुमति दी जाए । इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी अनुमति दी ।
७. एक माह में ही धर्मांधों और नक्सलियों के सहानुभूतिकर्ताओं की न्यायालय में पोल खुलना
धर्मांधों, दंगाईयों, जिहादियों और नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखनेवाले किस स्तर तक जाकर याचिकाएं प्रविष्ट करते हैं, यह इससे दिखाई दिया । यह न्यायालय के ध्यान में आया कि कुछ दिन पूर्व ही दिए गए निर्णय से झूठे कागदपत्र और प्रमाण प्रस्तुत कर ये लोग न्यायालय में याचिकाएं प्रविष्ट करते हैं । अर्थात आधुनिकतावादियों और उनके लिए कार्य करनेवाले लोगों को यह निर्णय रास नहीं आया । उसके कारण उन्होंने इस निर्णय की अर्थात सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की आलोचना की । इस एक माह में ही सर्वाेच्च न्यायालय में दो बार यह प्रमाणित हुआ कि जिहादियों, आतंकियों और नक्सलियों के समर्थन में पुलिस और अर्धसैनिक बलों के विरुद्ध याचिका प्रविष्ट कर उनका मनोबल गिराने हेतु न्यायालय का दुरुपयोग किया जा रहा है । अर्थात मुख्य न्यायाधीश रमण्णा ने न्यायालय के निर्णय की आलोचना की और ‘मीडिया ट्रायल’ के विषय में घोर अप्रसन्नता व्यक्त की ।
८. न्यायालय के निर्णय से चरमरा जाने से आधुनिकतावादी गिरोह द्वारा न्यायालय के निर्णय की आलोचना करना और उससे इन सभी की दोहरी नीति और हिन्दूद्वेष दिखाई देना
२२ जुलाई २०२२ को नई देहली में अरुंधती रॉय, सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता प्रशांत भूषण, ‘भीम पार्टी’ के नेता चंद्रशेखर आजाद, छत्तीसगढ के कार्यकर्ता सोनी सूरी और लेखिका नंदिनी सुंदर इत्यादि लोग पत्रकार वार्ता में उपस्थित थे । उसमें उन्होंने बताया, ‘सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हिमांशु कुमार की याचिका पर दिया गया यह निर्णय न्याय का उपहास है ।’ उस समय उन सभी ने ‘आदिवासी बचाओ, संविधान बचाओ’ के नारे दिए । इससे ऐसा दिखाई देता है कि ‘ये लोग न्यायालय के निर्णय से बहुत चरमरा गए हैं ।’ धर्मांध और आधुनिकतावादी न्यायालय के निर्णय की आलोचना करते हैं । उसकी तीव्रता अब बढ रही है । जब तक ऐसे निर्णय हिन्दुओं के विरुद्ध और इन लोगों के पक्ष में आ रहे थे, तब तक ये लोग न्यायतंत्र की प्रशंसा करते हुए थकते नहीं थे; किंतु यह उचित नहीं है ! (२४.७.२०२२)
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।
– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी, संस्थापक-सदस्य, हिन्दू विधिज्ञ परिषद तथा अधिवक्ता, मुंबई उच्च न्यायालय