स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन कर भगवान को अपना बनाने के लिए कहना

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी साधकों को बहुत पहले से बताते थे, ‘आप चूकें करते ही चले गए और अनुचित आचरण करते रहे, तो क्या आप भगवान को अपने लगोगे ? क्या भगवान आपकी ओर ध्यान देंगे ? संकटकाल में क्या भगवान आपकी रक्षा करेंगे ?’ ये वाक्य उन्होंने साधकों के मन पर अंकित किए । उन्होंने साधकों के मन, बुद्धि और चित्त की शुद्धि होने हेतु साधकों को स्वभावदोष-निर्मूलन एवं अहं-निर्मूलन प्रक्रिया सिखाई । साधक विगत दो दशकों से यह प्रक्रिया अपना रहे हैं । सभी लोग इस प्रक्रिया को आत्मसात कर सकें; इसके लिए उन्होंने उस पर आधारित ग्रंथ भी प्रकाशित किए हैं । आध्यात्मिक स्तर पर देह की शुद्धि आरंभ होने पर ही हम एकाग्रता से भगवान का नामस्मरण कर सकते हैं, साथ ही तभी हम से साधना हो सकती है । साधकों द्वारा इस प्रक्रिया को मन से चलाने से अनेक साधकों की आध्यात्मिक उन्नति होकर वे संतपद तक पहुंच गए हैं । ‘मन, बुद्धि एवं चित्त शुद्ध हुए बिना हम भगवान से एकरूप नहीं हो सकते’, यह सिद्धांत है । इस प्रकार भगवान को अपना बनाना सिखाकर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी बहुत पहले से साधकों से आपातकाल की तैयारी करवा ले रहे हैं ।

बुरी शक्ति : वातावरण में अच्छी तथा बुरी (अनिष्ट) शक्तियां कार्यरत रहती हैं । अच्छे कार्य में अच्छी शक्तियां मानव की सहायता करती हैं, जबकि अनिष्ट शक्तियां मानव को कष्ट देती हैं । प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों के यज्ञों में राक्षसों ने विघ्न डाले, ऐसी अनेक कथाएं वेद-पुराणों में हैं । ‘अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर अनिष्ट शक्तियां, उदा. असुर, राक्षस, पिशाच को प्रतिबंधित करने हेतु मंत्र दिए हैं ।’ अनिष्ट शक्ति के कष्ट के निवारणार्थ विविध आध्यात्मिक उपाय वेदादी धर्मग्रंथों में वर्णित हैं ।

आध्यात्मिक कष्ट : इसका अर्थ व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन होना । व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन ५० प्रतिशत अथवा उससे अधिक मात्रा में होना । मध्यम आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पंदन ३० से ४९ प्रतिशत होना; और मंद आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पंदन ३० प्रतिशत से अल्प होना । आध्यात्मिक कष्ट प्रारब्ध, पितृदोष आदि आध्यात्मिक स्तर के कारणों से होता है । किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक कष्टको संत अथवा सूक्ष्म स्पंदन समझनेवाले साधक पहचान सकते हैं ।

इस अंक में प्रकाशित अनुभूतियां, ‘जहां भाव, वहां भगवान’ इस उक्ति अनुसार साधकों की व्यक्तिगत अनुभूतियां हैं । वैसी अनूभूतियां सभी को हों, यह आवश्यक नहीं है । – संपादक