पंजाब में प्रथम बार ही सरकार स्थापित करनेवाले आम आदमी पक्ष के (आप के) मुख्यमंत्री भगवंत मान ने विधायक के रूप में चुनकर आनेवाले जनप्रतिनिधि को एक ही विधायकी का निवृत्तिवेतन देने और इसके साथ ही विधायक की मृत्यु के उपरांत उनके परिजनों को दिए जानेवाले निवृत्तिवेतन में कटौती करने का महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया है । इससे पूर्व पंजाब में कोई भी जनप्रतिनिधि जितनी बार चुनाव जीतकर आए, उतने कार्यकाल का उसे स्वतंत्र निवृत्तिवेतन दिया जाता था । आप के इस निर्णय के कारण सरकार की तिजोरी के करोडों रुपयों की बचत होगी । भारत के ७५ प्रतिशत से भी अधिक समाज सर्वसामान्य आर्थिक परिस्थिति में जीवनयापन कर रहा है । इसके अंतर्गत एक बहुत बडे घटक मध्यमवर्गीय समाज को अपने उदरनिर्वाह के लिए अथक परिश्रम करना होता है । इसके विपरीत इन सुविधाओं को देने का आश्वासन देकर चुनकर आनेवाले जनप्रतिनिधि जनता के लिए संघर्ष करने के स्थान पर स्वयं ही इन सभी सुविधाओं का उपभोग लेते हैं । अनेक मंत्री, विधायक, सांसदों के बच्चे विदेश में शिक्षा लेते हैं, जनप्रतिनिधि आलिशान बंगलों में रहते हैं । अपने रहन-सहन में कुछ सुधार हो, कम से कम भौतिक सुविधाएं तो मिलें, इस उद्देश्य से जिन्हें चुनते हैं, वे अपना कर्तव्य भुलाकर अपनी जेबें भरेंगे, तो यह वेदनादायी है । इसलिए पंजाब में लिया गया निर्णय सर्वसामान्य जनता के हृदय को छू गया ।
महाराष्ट्र में विधानसभा के २८८ एवं विधान परिषद के ७८, ऐसे कुल ३६६ विधायकों को वेतन दिया जाता है, तो ८१३ भूतपूर्व विधायकों को निवृत्तिवेतन जारी है । मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री एवं मंत्रियों को प्रतिमाह २ लाख ८५ सहस्र रुपए, इतना वेतन दिया जाता है । राज्यमंत्रियों को २ लाख ६३ सहस्र और विधायकों को २ लाख ४० सहस्र ९७३ रुपये वेतन मिलता है । निवृत्त होने के उपरांत इन सभी को प्रति माह ५० सहस्र रुपए निवृत्तिवेतन मिलता है । मंत्री एवं विधायकों के वेतन एवं निवृत्तिवेतन पर राज्य की तिजोरी से प्रतिमाह १७९ करोड ९४ लाख रुपये इतना व्यय किया जाता है ।
अनेक पदों का निवृत्तिवेतन हथियानेवाले ‘सेवक’ कैसे ?
वर्तमान में महाराष्ट्र के अनेक राजनेताओं के घरों पर प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग, आर्थिक अपराध जांच संस्था आदि द्वारा कार्यवाही होने पर करोडों रुपयों की संपत्ति नियंत्रण में लेने के समाचार आए दिन नागरिक देख रहे हैं । एक बार नगरसेवक के रूप में चुनकर आया व्यक्ति विधायक और उसके बाद सांसद बन गया, तो उसे इन सभी पदों का वेतन लागू होता है । ऐसी व्यवस्था है । कुछ प्रतिनिधि एक ही समय पर २ अथवा ३ पदों का वेतन लेते हैं । ऐसा देखा गया है कि कुछ समय पूर्व मुंबई महानगरपालिका में नगरसेवक से विधायक हो जाने के पश्चात भी दोनों पदों का वेतन लेते थे । शासकीय नौकरी करनेवाला व्यक्ति एक ही समय पर २ कामों के लिए शासकीय वेतन नहीं ले सकता; परंतु यह नियम जनप्रतिनिधियों पर लागू नहीं होता ।
कार्य के मूल्यांकन पर निवृत्तिवेतन !
संविधान के अनुसार चुनकर आए जनप्रतिनिधि जनता की सेवा करें, ऐसे लोकतंत्र में प्रजासत्ताक व्यवस्था की संकल्पना है । लोकसेवा का व्रत लेनेवाले व्यक्ति को लोकसेवा करते समय घर-गृहस्थी चलाते समय अडचनें न आएं, इसलिए उन्हें वेतन देने की व्यवस्था है; परंतु वर्तमान स्थिति को देखते हुए धनाढ्य लोग चुनाव लडने के ठेकेदार बन चुके हैं । जहां सामान्य परिवार का व्यक्ति प्रत्याशी (उम्मीदवारी) अर्जी भरने के लिए ‘डिपॉजिट’ भी नहीं भर सकता, वह चुनावों के लिए करोडों रुपया कैसे खर्च करेगा ? इसलिए करोडों रुपये खर्च करने की जिसमें क्षमता है, ऐसों को ही राजकीय पक्षों द्वारा उम्मीदवारी दी जाती है । करोडों रुपयों का व्यय करनेवाले, चुनकर आने पर भ्रष्ट मार्ग से करोडों रुपयों की संपत्ति जमा करनेवालों को निवृत्तिवेतन क्यों और किसलिए देना चाहिए ? इस विषय में कभी तो विचारमंथन होना आवश्यक है । जो चुनकर आने के लिए भरपूर आश्वासन देते हैं; परंतु चुनकर आने के पश्चात उसे पूरा नहीं करते । इसीलिए लोकतंत्र की ऐसी दयनीय अवस्था हो गई है । शासकीय कामकाज में काम निकृष्ट हो गया, तो ठेकेदार का नाम काली सूची में डाल दिया जाता है । फिर जनता के काम न किए हों, तो क्या उन जनप्रतिनिधियों के कामों का मूल्यांकन नहीं करना चाहिए ? उनके कामों के मूल्यांकन पर ही उनका वेतन और निवृत्तिवेतन निश्चित करना चाहिए । ‘जनप्रतिनिधि निवृत्तिवेतन न ले’, ऐसे कोई नहीं कहता, परंतु प्रश्न यह है कि जनता का पैसा हथियाकर धनाढ्य बने जनप्रतिनिधि यदि पुन: जनता के कर से निवृत्तिवेतन लेते होंगे, तो वह जनता को नहीं भाएगा ।