‘कई बार साधकों को कुछ शारीरिक व्याधि अथवा मानसिक समस्या का सामना करना पडता है । ‘उपचार आरंभ रहते हुए अथवा उपचार से अपेक्षित लाभ न होने पर साधक उस विषय पर नकारात्मक विचार करते रहते हैं एवं उसी प्रकार साधकों द्वारा उस विषय पर बार-बार अन्यों को बताया जाता है । स्वयं की समस्या के बारे में विचार करने से तथा उसके बारे में निरंतर अन्यों को बताना, मन को नकारात्मक स्वसूचना देने समान होता है । परिणामस्वरूप मन के नकारात्मक विचारों का पोषण होता है और मन की अस्थिरता बढती है तथा कार्यक्षमता भी घटती है ।
१. साधकों को स्वयं की व्याधि अथवा समस्या के बारे में बोलना है, तो वह डॉक्टर अथवा मनोरोग विशेषज्ञ से बात करें । इससे उचित समाधान योजना मिल सकती है ।
२. इसके साथ ही साधक आध्यात्मिक स्तर पर उपचार भी करें, उदा. मन में आनेवाले सभी नकारात्मक विचार कागज पर लिखें और उसके चारों ओर नामजप का मंडल बनाएं ।
३. साधकों को अपनी समस्या के लिए मार्गदर्शन लेने के साथ ही वस्तुस्थिति स्वीकार हो, इसके लिए मन को स्वसूचना देना भी आवश्यक है । कई बार साधकों को डॉक्टर द्वारा बताया जाता है कि उनके एकाध कष्ट (उदा. घुटने दुखना / पीठ दुखना) के पूर्णरूप से ठीक होने की संभावना कम है । उस समय साधकों का मन वस्तुस्थिति स्वीकार नहीं पाता । वह स्वीकार कर पाए और मन की स्थिरता बढाने के लिए साधक आगे दिए अनुसार स्वसूचना लें ।
‘जब मैं अपनी ……….. समस्या के बारे में परिवार के सदस्य / साधक / विभागसेवक से बार-बार बोलूंगा, तब मुझे उसका भान होगा कि इसके कारण मेरे मन की नकारात्मकता और अस्वस्थता बढ रही है, तथा इससे अन्यों की ऊर्जा और समय भी व्यर्थ जा रहा है । इसलिए मैं उचित विशेषज्ञ की सहायता लूंगा व उनके मार्गदर्शन के अनुसार प्रयत्न करूंगा ।’
– (श्रीसत्शक्ति) श्रीमती बिंदा सिंगबाळ, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (९.३.२०२२)