आच्छादन : ‘सुभाष पाळेकर प्राकृतिक कृषि तंत्र’ का एक प्रमुख स्तंभ !

सनातन का ‘घर-घर रोपण’ अभियान : लेखांक ७

(टिप्पणी : ‘आच्छादन’ अर्थात भूमि के पृष्ठभाग को ढकना)

पद्मश्री सुभाष पाळेकर
श्रीमती राघवी कोनेकर

     आच्छादन, वाफसा, जीवामृत एवं बीजामृत, ये ‘सुभाष पाळेकर प्राकृतिक कृषि तंत्र’ के मूल तत्त्व हैं । इस लेख में ‘आच्छादन का अर्थ क्या है ?’, इसके साथ ही उसका महत्त्व एवं लाभ समझ लेंगे ।

संकलनकर्ता : श्रीमती राघवी मयुरेश कोनेकर, फोंडा, गोवा.

१. आच्छादन से क्या तात्पर्य है ?

     ‘भूमि के पृष्ठभाग को ढकना’ अर्थात ‘आच्छादन’ ! भूमि की सजीवता एवं उर्वरता बनाए रखने का कार्य आच्छादन करता है । आच्छादन के कारण ‘सूक्ष्म पर्यावरण की’ निर्मिति सहज होती है । ‘सूक्ष्म पर्यावरण’ अर्थात ‘भूमि के सूक्ष्म जीवाणु एवं केंचुए के कार्य के लिए आवश्यक वातावरण ।’ इससे मिट्टी उपजाऊ एवं भुरभुरी होती है, इसके साथ ही मिट्टी में सर्व प्रकार के जीवाणुओं की संख्या बढने में सहायता मिलती है । (पौधों को सभी सर्व प्रकार के अन्नद्रव्य उपलब्ध होने हेतु जीवाणुओं की आवश्यकता होती है । ‘ये जिवाणु कैसे कार्य करते हैं ?’, यह हमने ‘लेखांक ६’ में देखा ही है ।)

२. आच्छादन के प्रकार

     घर के घर में रोपण के लिए उपयुक्त आच्छादन के २ प्रकार हैं – काष्ठ आच्छादन एवं सजीव आच्छादन

२ अ. काष्ठ आच्छादन : ‘पेड अथवा पौधे के आसपास की भूमि का पृष्ठभाग सूखी हुई पत्तियां, सूखी लकडियां, नारियल की जटा, अनाज का भूसा, गन्ने का चिपडा, रसोईघर का गीला कचरा आदि की सहायता से ढकना’ इसे ‘काष्ठ आच्छादन’ कहते हैं । ये सबकुछ हमें घर से एवं आसपास के परिसर से सहजता से एवं निःशुल्क मिल जाता है । काष्ठ आच्छादन साढे चार इंच मोटा बना सकते हैं; परंतु रसोईघर का गीला कचरा फैलाते समय एक स्थान पर एक इंच से अधिक मोटा न फैलाएं ।

     आच्छादन पर सप्ताह में अथवा १५ दिन में एक बार १० गुना पानी में पतला किया हुआ जीवामृत छिडकें, जिससे उसकी विघटन की प्रक्रिया शीघ्र होती है और उसका ह्युमस में (काली भुरभुरी एवं उपजाऊ मिट्टी में) रूपांतर होता है । इस कारण कुछ दिनों में पुन: काष्ठ आच्छादन करना पडता है ।

२ आ. सजीव आच्छादन : ‘मुख्य फसल के आसपास उस फसल की अपेक्षा अल्प ऊंचाई की दूसरी फसल का रोपण करना’ अर्थात ‘सजीव आच्छादन’ । उदा. एक गमले के मध्यभाग में टॉमेटो का एक पौधा लगाया तो आसपास की शेष जगह में मेथी, धनिया जैसी हरी सब्जियां अथवा मूली, गाजर, बीट, प्याज, लहसून जैसी कंदवर्गीय सब्जियां लगाना ।

     इस प्रकार आंतरफसलों से अल्प जगह में अधिक उपज ले सकते हैं और भूमि भी आच्छादित रहती है । खरबूज, तरबूज, कद्दू, सफेद कद्दू, शकरकंद की बेल भूमि पर फैल जाती हैं । इससे भी भूमि का आच्छादन अपनेआप ही होता है ।

३. काष्ठ आच्छादन के लिए आवश्यक सूखे पत्ते वर्षा से पहले जितना संभव हो निकालकर रख लें !

     काष्ठ आच्छादन का सतत विघटन होते रहने से वह कुछ दिनों के अंतराल में पुन:-पुन: करना होता है । केवल सूखे पत्तों का उपयोग कर रोपण करना हो, तो वह अधिक मात्रा में लगता है । जून से अक्टूबर के समय में वर्षा होने से सूखे पत्ते एकत्र कर लाना कठिन हो जाता है । इसलिए नवंबर से मई, इस काल में अधिकाधिक सूखे पत्ते एकत्र कर रख सकते हैं ।

४. आच्छादन के लाभ

अ. आच्छादन के कारण भूमि की कडी धूप, अत्यंत ठंड, जोरदार हवा एवं वर्षा की बूंदों से रक्षा होती है ।

आ. आच्छादन करने से धूप एवं हवा की मिट्टी से सीधा संपर्क नहीं आता । इससे मिट्टी में नमी दीर्घकाल तक बनी रहती है और पानी अल्प मात्रा में लगता है ।

इ. आच्छादन के कारण केंचुओं की संख्या में वृद्धि होने में सहायता मिलती है । केंचुआ पक्षियों के खा जाने के डर से दिन में काम न करते हुए केवल रात्रि में ही काम करते हैं । आच्छादन करने से केंचुओं को सूर्यप्रकाश है, यह समझ में न आने से वे दिन-रात काम करते हैं । उनकी हलचल के कारण भूमि सच्छिद्र एवं भुरभुरी रहती है और अलग से मशागत करने की आवश्यकता नहीं रहती ।

ई. आच्छादन के सर्व प्राकृतिक घटकों का विघटन होकर ‘ह्यूमस’ (उपजाऊ मिट्टी) तैयार होने की प्रक्रिया सतत होती रहती है । इससे पेडों को भरपूर जीवनद्रव्य उपलब्ध होकर वे सृदृढ होते हैं ।

उ. सजीव आच्छादन करते समय मुख्य फसल एकदल होगी, जबकि मध्यावधि फसल द्विदल और मुख्य फसल द्विदल होगा, तथा मध्यावधि फसल एकदल, ऐसा नियोजन करने से द्विदल फसलों की जडों से भूमि में नत्र की (नाइट्रोजन की) आपूर्ति होती रहती है । (जिनकी दाल बनती है, वह अनाज द्विदल, जबकि अन्य अनाज एकदल प्रकार के होते हैं ।)

ऊ. आच्छादन के कारण भूमि में अपनेआप आवश्यक उतनी ही नमी रहती है और ‘वाफसा’ स्थिति तैयार होती है । (भूमि में दो मिट्टी के कणों के बीच की रिक्ति में पानी का अस्तित्व न रहते हुए ५० प्रतिशत वाफ एवं ५० प्रतिशत हवा का सम्मिश्रण होना, इसे ‘वाफसा’ कहते हैं ।) ‘वाफसा’ होगा, तो ही पेड की जडें उनकी प्राणवायु एवं पानी की आवश्यकता पूर्ण कर सकते हैं ।

ए. आच्छादन के कारण ‘ह्यूमस’ के कण हवा के साथ उडकर नहीं जाते, इसके साथ ही तेज धूप से जलते भी नहीं । इससे मिट्टी की सजीवता बनी रहती है ।

ऐ. अकाल परिस्थिति में आच्छादन हवा से नमी खींच लेता है । इससे पेड को अल्प पानी मिलने पर भी वे हरे-भरे रहते हैं ।

५. कचरे की समस्या सुलझाने में सहायता करनेवाले आच्छादन तंत्र का उपयोग करें !

     उपरोक्त सर्व सूत्रों से यही समझ में आता है कि ‘सुभाष पाळेकर प्राकृतिक कृषि तंत्र’ में आच्छादन की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है । आच्छादन के लिए उपयोग में लाए जानेवाले प्राकृतिक घटक (सूखी हुई पत्तियां, नारियल के छिलके, अनाज का भूसा, गन्ने का चिपडा, रसोईघर का गीला कचरा इत्यादि) यह सामान्य व्यक्तियों के लिए ‘कचरा’ श्रेणी में आता है; परंतु यही घटक प्राकृतिक कृषि करते समय एक बहुत बडा वरदान है, यह उपरोक्त दिए सर्व विवेचन से स्पष्ट होता है । वर्तमान में सभी बडे शहरों में एवं गांव-गांव में भी ‘घन कचरा व्यवस्थापन’ यह सरकारी तंत्र के सामने बडी समस्या है । आच्छादन के लिए निःशुल्क मिलनेवाले ये सर्व प्राकृतिक घटक उपयोग में लाकर हम एक प्रकार से पर्यावरण रक्षा के लिए अपनी ओर से सहायता कर रहे हैं और उसके बदले में प्रकृति हमें विषमुक्त एवं पौष्टिक सब्जियां एवं भरपूर फल देती है । (२८.१२.२०२१)

(‘सुभाष पाळेकर प्राकृतिक कृषि तंत्र’ पर आधारित लेखों से संकलित लेख)

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