दत्तात्रेय की त्रिमुखी मूर्ति के हाथ में रहा कमंडल (त्याग और चैतन्य का प्रतीक)

१. अर्थ

     ‘ईश्वर के निर्गुण तरंगों को समाहित करनेवाले, एवं अनिष्ट शक्तियों के कष्ट से रक्षण होने के लिए संपूर्ण त्रिलोक को एक ही समय एक पल में मंडल निकालने की क्षमता रखनेवाला जल जिस कुंड में सामाहित हैं, वह कुंड अर्थात दत्तात्रेय के हाथ में विद्यमान कमंडलू ।’

– एक विद्वान (श्रीचितशक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ‘एक विद्वान’ के उपनाम से भाष्य करती हैं, ८.५.२००५)

२. विशेषताएं

     ‘दत्तात्रेय के हाथ में विद्यमान कमंडल में शेष जल सबसे पवित्र होता है ।’ – कु. मधुरा भोसले, ११.५.२००५)

३. किसका प्रतीक ?

     कमंडल और दंड, ये वस्तुएं संन्यासी के साथ रहती हैं । संन्यासी विरक्त रहते हैं । कमंडल एक प्रकार से त्याग का प्रतीक है; कारण कमंडल ही उसका ऐहिक धन है । ‘दत्तात्रेय के हाथ में विद्यमान कमंडल निर्गुण रूपी सुप्त मारक चैतन्य का प्रतीक है ।

४. दिशानुसार कमंडलू के कार्य

     कमंडल जिस दिशा में झुकता है, उस दिशा में विद्यमान अनिष्ट शक्तियों का नाश : दत्तात्रेय के हाथ में विद्यमान कमंडल आवश्यकता के अनुसार अनिष्ट शक्तियों के निर्दालन के लिए झुकी हुई अवस्था में भी दसों दिशाओं में भ्रमण कर उस स्थान पर निर्गुण रूपी मारक चैतन्य का प्रवाही स्रोत प्रक्षेपित करता है । विनाश काल में कमंडल पूर्णतः पाताल की दिशा में उलटा होकर पाताल की सर्व प्रकार की अनिष्ट शक्तियों का संहार कर शिवजी की लय शक्ति को सहायता करता है । कमंडल की आकाश की दिशा में रही स्थिर स्थिति ब्रह्मांड की संतुलित अवस्था दर्शाती है ।’

– एक विद्वान (श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ‘एक विद्वान’ के उपनाम से भाष्य करती हैं, ८.५.२००५)

दत्त भुवर्लाेक के प्रमुख देवता हैं ।

भुवर्लाेक के लिंगदेहों को अगले लोक में जाने के लिए गति (ऊर्जा) देना इनकी विशेषता है ।’

दत्त के दूत

रूप : दत्त के दूत दस से बारह वर्ष आयु के बालकों के रूप में प्रकट होते हैं । उस समय उनका रूप इस प्रकार का होता है ।

अ. वे गेरुए वस्त्र परिधान करते हैं ।

आ. माथेपर खडे आकारमें (वैष्णव पद्धतिसे) तिलक लगा हुआ रहता है ।

इ. शीर्षस्थान पर जटाओं का (बालोंका) जूडा बनाकर उसके चारों ओर रुद्राक्षकी मालाएं बांधते हैं ।

ई. हाथमें कमण्डलु रहता है ।

उ. वे गायोंके समूहमें घूमते हैं ।