आयुर्वेद में बुखार की व्याधि के लिए चिकित्सा सूत्र (लाइन ऑफ ट्रीटमेंट) इस लेख में दिया गया है ।
लङ्घनं स्वेदनं कालो यवाग्वस्तिक्तको रस: ।
– चरक संहिता, चिकित्सास्थान, अध्याय ३, श्लोक १४२
अर्थ : बुखार आते समय लंघन (भूखे रहना), स्वेद (पसीना आने तक सेंक लेते रहना), कुछ समय तक प्रतीक्षा करनी चाहिए, मांड एवं कडवा रस लेना चाहिए ।
ज्वरादौ लङ्घनं प्रोक्तं ज्वरमध्ये तु पाचनम् ।
ज्वरान्ते भेषजं दद्याज्ज्वरमुक्ते विरेचनम् ।।
– भावप्रकाश, मध्यखण्ड, प्रकरण ८, श्लोक २४
अर्थ : बुखार आना आरंभ होने पर लंघन करें (भूखे रहें), बुखार में पाचनशक्ति बढानेवाली औषधियां दें, बुखार उतरना आरंभ हो, तो समूल नष्ट होने तक औषधि दें और बुखार आना पूर्णरूप से रुकने पर विरेचन (दस्त की औषधि) दें, ऐसा बताया गया है ।
परिपक्वेषु दोषेषु सर्पिष्पानं यथाऽमृतम् ।
– चरक संहिता, चिकित्सास्थान, अध्याय ३, श्लोक १६५
अर्थ : बुखार में वात, पित्त एवं कफ, इन दोषों के अल्प होने पर घी प्राशन करना अमृत के समान है ।
१. लंघन (भूखे रहना)
वैद्य का मार्गदर्शन, प्रत्येक रोगी की स्वयं की शक्ति एवं बुखार की तीव्रता के अनुसार बुखार में ३, ६, ८, १०, १२, १४, २१, २४ दिनों तक उपवास रखें । इसका स्वरूप यह है कि रोगी को जागृत अवस्था में प्रति घंटा थोडा-थोडा १०० मि.ली. गरम पानी पीते रहना चाहिए । नींद आ जाने पर उठकर पानी न पीएं । बुखार में अन्नसेवन कतई नहीं, साथ ही चाय, दूध, कॉफी, शरबत, फलों का रस, स्नान, बाहर घूमना, बाहर की हवा, पंखा, कूलर एवं वातानुकूलन यंत्र की हवा, इन सभी को संपूर्णरूप से टालना आवश्यक है । इसमें संहिता में बताई गई शांगपानी (षडं्गपानीय) कल्पना अर्थात मुस्ता, पर्पट, खस, चंदन, उदीच्य एवं सोंठ आदि ६ औषधियों से सिद्ध किया हुआ पानी दे सकते हैं । संक्षेप में, रोगी अपना अलगीकरण (क्वारंटाइन) करने समान, केवल पानी पर रहकर स्वयं को अन्यों से अलग करे, जिससे कुछ भी खाने-पीने का मोह नहीं होता ।
सामान्य रूप से ३ दिन के उपवास के उपरांत कोई बुखार, भले कितनी भी तीव्रता का क्यों न हो, वह घटता जाता है । इस अवधि में दुर्बलता, उल्टी, दस्त, मस्तकशूल, सर्दी, शरीरशूल जैसे लक्षण दिखाई देते हैं । इनमें से किसी भी लक्षण के लिए औषधियां अथवा उपचार न करें; क्योंकि यह उपचार का ही एक भाग है । कुछ रोगियों का बुखार इससे भी अधिक उपवास कर उतर सकता है, ऐसे रोगियों को ६ से ८ दिन तक उपवास रखने के लिए कहकर उतने दिनों तक पानी अथवा शांगपानी दे सकते हैं ।
२. स्वेद (पसीना छूटने तक सेंक लेना)
रोगी को यदि शरीरशूल, पीठशूल, कमरशूल, मस्तकशूल अथवा छाती में कफ हो, तो बुखार की तीव्रता देखकर उन संबंधित अंगों के लिए स्वेदन अथवा सेंक ले सकते हैं । इसमें छाती में कफ हो, तो नाडी स्वेद अर्थात कूकूल की नली जोडकर उसकी भाप से पसीना छूटने तक सेंक लेना । रोगी अलगीकरण में हो, तो घर पर ही रबर की थैली से अथवा तवे पर कपडा रखकर सेंक ले सकते हैं । छाती में कफ हो, तो खडिया नमक से अथवा रेत से सेंक ले सकते हैं । बुखार में अग्नि रहित स्वेद अर्थात पसीना छूटने तक शरीर पर ओढकर लेटे रहना । जिस रोगी के पास सेंक लेने हेतु साधन उपलब्ध नहीं होता, ऐसे रोगी को अग्नि रहित स्वेद दे सकते हैं ।
३. काल
काल का अर्थ रुकना और प्रतीक्षा करना (वेट एंड वॉच) भी उपचार का ही एक भाग है । लंघन के अंतर्गत हमने यह देखा ही है कि विशिष्ट समय तक रोगी को पानी पर ही निर्भर रखना है । इसमें उद्देश्य यह है कि जब तक रोगी को शौच साफ होकर मलशुद्धि हो, जोर से भूख लगे, पानी पीने पर भी प्यास लगना, वस्त्र अथवा बिछौने पर स्थित कपडा (बेडशीट) पसीने से गीले होना, उत्साह प्रतीत होना, बुखार पूर्ण रूप से उतरना जैसे लक्षण दिखाई नहीं देते, तब तक जठराग्नि स्वस्थान पर नहीं आया है, यह समझें । इसलिए काल का उपचार ही करें ।
४. यवागू (तरल पदार्थ जैसे कनेर, मांड इत्यादि)
इसका अर्थ जब रोगी का बुखार उतरने पर उसे भूख लगने लगती है और रोगी उपवास की अवधि पूर्ण करता है, तो ऐसे समय रोगी पहले खाने के लिए कुछ मांगता है । ऐसे समय में चावल की मांड, दलहन की कढी, करेले का सूप इत्यादि आहार क्रमशः दे सकते हैं । उदा. किसी रोगी ने ३ दिन का उपवास रखा और उसका बुखार पूर्णरूप से उतर गया, तो चौथे दिन उसे दलहन की कढी, ५वें दिन चावल का तरल मांड, छठे दिन करेले का सूप, ७वें दिन मुलायम चावल और ८वें दिन फीकी दाल, इस क्रम से आहार दे सकते हैं ।
५. तिक्तको रस (कडवा रस देना)
इसमें बुखार संपूर्ण रूप से उतर जाने पर ज्वरनाशक कडवा रस देना चाहिए । इसमें प्रमुखता से कडवे रस की औषधियां, गिलोय, चिरायता, परवल, नागरमोथा, नीम इत्यादि के चूर्ण अथवा काढे दे सकते हैं ।
६. ज्वरान्ते विरेचन (बुखार संपूर्ण रूप से उतर जाने पर दस्त की औषधियां देना)
बुखार संपूर्ण रूप से उतर जाने पर रोगी जब थोडा हलका आहार लेना आरंभ करता है और वह आहार उसे पचने लगता है, तब बुखार पुनः न आए; इसके लिए विरेचन अर्थात दस्त की औषधि देनी है । रोगी का बल देखकर ऐसे समय में प्रमुखता से मृदुविरेचन जैसे कि आरग्वधशिम्बी फांट, कटुकी, त्रिफला इत्यादि दे सकते हैं । मलशुद्धि तथा प्रकृति के अनुसार अग्निबल प्राप्त होने के लक्षण दिखाई देने तक विरेचन दे सकते हैं । ये लक्षण सामान्यतः ३ से ५ दिनों में दिखाई देने लगते हैं ।
७. ज्वर मुक्ते सर्पिष पानं (बुखार आना संपूर्ण रूप से रुक जाने पर आहार में घी देना)
विरेचन ठीक से होने पर रोगी का बल बढाने हेतु उसे प्रचुर मात्रा में खाने के लिए घी दें । इसमें रोगी को संभवतः आहार में घी खाने के लिए प्रेरित करें । घी अच्छा न लगे, तो रोगी की प्रकृति एवं रुचि देखकर उस प्रकार की औषधियों से सिद्ध किया गया घी औषधि के रूप में दे सकते हैं । उदा. रोगी को तीखा खाना प्रिय है, तो ऐसे रोगी को तीखी औषधियां जैसे कि सोंठ, पिप्पली, काली मिर्च जैसी औषधियों से सिद्ध किया गया घी औषधि के रूप में ३० से ६० मि.ली. तक दिनभर में आहार के साथ दे सकते हैं । इस प्रकार घी का सेवन ७ दिन तक करें ।
यदि वैद्य इस प्रकार से चिकित्सा करते हैं, तो चाहे वह कोरोना का बुखार हो अथवा अन्य कोई भी बुखार हो; उससे रोगी का स्वास्थ्य गंभीर होने और उसे चिकित्सालय में भर्ती करने की स्थिति आने की संभावना बडी मात्रा में न्यून हो सकती है । बुखार में मृत्यु की भी संभावना बताए जाने पर सभी रोगी इस प्रकार से स्वस्थ हो ही जाएंगे, कोई इसकी आश्वस्तता नहीं दे सकता । आयुर्वेदीय चिकित्सा करनेवाले वैद्यों को संहिता में विशद की गई चिकित्सा आप्तोपदेश (आप्तों द्वारा अर्थात ऋषि-मुनियों द्वारा दिया गया उपदेश) को प्रमाण मानकर करने की प्रेरणा मिले, यही भगवान धन्वन्तरि के चरणों में प्रार्थना है !
– वैद्य मंदार श्रीकांत भिडे, आयुर्वेदाचार्य, रत्नागिरी, महाराष्ट्र.
टीप्पणी : यह लेख आयुर्वेदानुसार चिकित्सा करनेवाले वैद्यों के लिए है । प्रस्तुत चिकित्सा के साथ ही सरकार द्वारा मान्यताप्राप्त चिकित्सकीय उपचार और औषधियां लेना न टालें । अन्य सभी उपायों का पालन करें, साथ ही स्थल, काल एवं प्रकृति के अनुसार चिकित्सा में परिवर्तन हो सकता है । अतः उचित वैद्य से परामर्श भी लें । |