‘सनातन के मार्गदर्शन में साधना करनेवाले अनेक साधकों ने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को कभी नहीं देखा है; परंतु ऐसा होते हुए भी वे सभी परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा बताई गई साधना अत्यंत श्रद्धा के साथ कर रहे हैं । बाहर मोहमाया का प्रबल जाल होते हुए भी केवल परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के प्रति श्रद्धा के कारण सनातन के साधक सभी प्रकार के मोह को त्यागकर ईश्वरप्राप्ति हेतु साधना कर रहे हैं । जहां समाज में वामपंथी विचारधारा, नास्तिकतावाद अपनाना आदि बातों को प्रतिष्ठा मिल रही है, ऐसे में सनातन के साधक स्वयं धर्मनिष्ठ रहकर समाज को भी धर्माधिष्ठित करने हेतु मार्गदर्शन कर रहे हैं । इसके लिए ये साधक सक्षमता के साथ नास्तिक और तथाकथित आधुनिकतावादियों के विरोध का सामना करने के लिए भी तैयार हैं । सनातन के संपर्क में आने से पूर्व जो साधक इसी माया के विश्व का एक घटक थे; ऐसे साधकों को इस प्रकार प्रवाह के विरुद्ध तैरने के लिए कौन बल देते हैं ? सनातन के कठिन काल में समाज में विचरण करते समय, साधना-सेवा करते समय समाज की आलोचना, परिचित लोगों की टिप्पणियां और आवश्यकता पडने पर परिवार के सदस्यों का वैचारिक विरोध झेलकर भी ये साधक सनातन संस्था द्वारा बताई गई साधना के प्रति एकनिष्ठ हैं । साधना करने के कारण साधकों को वातावरण में व्याप्त अनिष्ट शक्तियों के तीव्र कष्ट भी भोगने पड रहे हैं । असहनीय कष्ट सहकर भी साधकों ने साधना नहीं छोडी है । इसके विपरीत वे अधिक प्रखरता से साधनारत हैं । यह सब किस कारण घटित हो रहा है ? ऐसी कौन सी शक्ति है, जो साधकों को परात्पर गुरु डॉक्टरजी से जोडकर रखती है ? साधकों को साधना के साथ जोडकर रखनेवाली, कठिन समय में मनोबल प्रदान करनेवाली वह शक्ति है परात्पर गुरु डॉक्टरजी में साधकों के प्रति निहित प्रीति ! समष्टि के प्रति उच्च प्रीति परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की एक अनूठी विशेषता है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी जैसे अवतारी समष्टि संतों के संदर्भ में उनकी प्रत्येक बात, कृत्य और विचारों से समष्टि के कल्याण की भरसक लगन दिखाई देती है । समष्टि के प्रति निहित प्रीति के कारण सभी को वात्सल्यपूर्ण कृपाछत्र का अनुभव होता है । इसी प्रीति के चैतन्यमय धागे से आज संपूर्ण परिवार बंधा हुआ है । पाठकों को परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी में निहित समष्टि के प्रति प्रीति का अल्प परिचय कराने का प्रयास कर रहे हैं । ऐसे श्री गुरुदेवजी की महिमा का वर्णन करने हेतु ईश्वर ही हमें बुद्धि एवं भक्ति प्रदान करें, यह उनके चरणों में प्रार्थना है !
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की प्रीति की व्यापकता
१. संगठनात्मक, प्रांतीय और धार्मिक बंधन नहीं ! : परात्पर गुरु डॉक्टरजी की प्रीति को किसी प्रकार का संगठनात्मक, प्रांतीय और धार्मिक बंधन नहीं है । सनातन के साधकों से अच्छी साधना हो; इसके लिए वे जितने प्रयास करते हैं, उतने ही प्रयास वे अन्य संगठनों के कार्यकर्ताओं की साधना के लिए भी करते हैं । उन्होंने साधकों को समय-समय पर संकट में पडे साधकों की सहायता करने के लिए कहा है । उन्होंने अनेक घंटे तक हिन्दू धर्म के संबंध में जानने हेतु आए अहिन्दू विदेशी जिज्ञासुओं की शंकाओं का निवारण किया है ।
२. विरोधियों के प्रति भी व्यक्तिगत शत्रुता न होना ! : अनेक लोगों ने विभिन्न पद्धतियों से सनातन का विरोध किया; परंतु तब भी इन विरोधियों के प्रति उनके मन में किसी भी प्रकार की व्यक्तिगत शत्रुता नहीं है । ईश्वरप्राप्ति हेतु प्रयास करनेवाले साधकों को कष्ट पहुंचाने से बडा पाप लगता है । ऐसे व्यक्तियों को यह पाप न लगे; इसके लिए ‘सनातन प्रभात’ नियतकालिकों के माध्यम से उनकी विचारधारा का प्रतिवाद किया जाता है । ‘उन्हें अपनी चूक समझ में आए और उससे उनका नैतिक पतन टल जाए’ और उससे ‘विरोधियों को हानि न पहुंचे’, उनका यह विचार उनकी प्रीति ही है !
३. शंकाओं के कारण सनातन छोडकर गए साधकों के प्रति भी अपनापन : साधना से दूर जा चुके साधकों के प्रति उनके मन में कभी भी कटुता नहीं रहती । शंकाओं के कारण दूर जा चुके साधक कुछ समय पश्चात जब वापस आते हैं, तब परात्पर गुरु डॉक्टरजी उन्हें उतनी ही सहजता के साथ अपनाते हैं । संकलक : कु. सायली डिंगरे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.
१. परात्पर गुरुदेवजी की प्रीति की विशेषताएं
१ अ. कुछ ही क्षणों के सान्निध्य से ही सामनेवाले को अपना बनाना
परात्पर गुरु डॉक्टरजी के संपर्क में केवल एक बार आया व्यक्ति भी उनका हो जाता है, इसे केवल साधकों ने ही अनुभव किया है, ऐसा नहीं है; अपितु समाज के धर्माभिमानी और अन्य संप्रदायों के संतों ने भी इसका अनुभव किया है । जिज्ञासु, साधक और धर्माभिमानियों को वे इतना प्रेम देते हैं और उनके साथ इतने अपनापन का व्यवहार करते हैं कि उन्हें वे कब परात्पर गुरु डॉक्टरजी के हो गए, इसका पता ही नहीं चलता । बाहर के कुछ संत और धर्माभिमानियों को भी रामनाथी आश्रम आने पर मायके (मां के घर) आने का अनुभव होता है । इसका कारण है आश्रम में पग-पग पर परात्पर गुरु डॉक्टरजी की बसाई हुई प्रीति ! वास्तव में पूरे आश्रम में ही परात्पर गुरु डॉक्टरजी की प्रीति की तरंगें अनुभव होती हैं, जो बाहर के संत और धर्माभिमानियों के मन में आश्रम के प्रति निकटता उत्पन्न करती हैं ।
१ आ. स्वयं के समान अन्यों में भी प्रीति का बीज बोना
परात्पर गुरु डॉक्टरजी की विशेषता यह है कि उन्होंने स्वयं में निहित प्रेमभाव को सनातन के सहस्रों साधकों में भी बोया है । अपने मूल निवास से अनेक किलोमीटर दूर जाकर सेवा करनेवाले सनातन के साधक आज अनोखे परिवारभाव से एक-दूसरे के साथ जुडे हुए हैं । आज के समय में दो सगे भाईयों में भी बात नहीं बनती, ऐसे समय में सनातन के आश्रमों में सैकडों साधक प्रेमभाव के साथ एकत्रित रह रहे हैं । इसका कारण है कि परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने स्वयं में निहित प्रेमभाव का अंश साधकों में भी बोया है । विगत अनेक वर्षाें से परात्पर गुरु डॉक्टरजी अपने कक्ष से बाहर भी नहीं आए हैं । ऐसे समय में उन्होंने समय-समय पर साधना के जो सूत्र बताए हैं, उनके आधार पर सनातन के मार्गदर्शक साधक और संत सर्वत्र के साधकों का साधना के विषय में मार्गदर्शन कर रहे हैं । इन सभी माध्यमों से भी साधक परात्पर गुरु डॉक्टरजी की प्रीति का अनुभव कर रहे हैं । उनकी प्रीति के लिए स्थल-काल की कोई सीमा नहीं है ।
परात्पर गुरु डॉक्टरजी में जिस प्रकार संत, साधक, धर्माभिमानी व समाज के प्रति प्रीति है, उसी प्रकार अब साधक भी समाज में अध्यात्मप्रसार करते समय प्रेमभाव से सभी को अपना लेते हैं ।
१ इ. साधकों को स्वयं में संलिप्त न होकर ईश्वरीय तत्त्व के साथ एकरूप होने की सीख देना
समष्टि कल्याण का कार्य आरंभ करने से परात्पर गुरु डॉक्टरजी पर अनिष्ट शक्तियों के अनेक आक्रमण होते रहते हैं । उनकी देह देवासुर युद्ध की युद्धभूमि ही बन चुकी है । वे स्थूल और सूक्ष्म से भी साधकों की सर्वाेपरि चिंता करते हैं और साधकों के कल्याण हेतु ही अपना सबकुछ न्योछावर करते हैं; परंतु तब भी वे साधकों को ‘आप मुझ में संलिप्त न होकर श्रीकृष्ण की ओर जाईए’, यही शिक्षा देते हैं । साधकों के प्रति भले ही उनमें प्रीति हो; परंतु ‘साधक ईश्वरीय तत्त्व से एकरूप हों और सर्वव्यापक ईश्वर की उपासना करें’, यही उनकी शिक्षा है ।
२. प्रीति के साथ अन्य विशेषताओं का सुंदर जोड
२ अ. साधकों की साधना की होनेवाली हानि को टालने हेतु अपनाई गई तत्त्वनिष्ठा
कोई साधक अपने स्वभावदोष अथवा अहं के कारण उससे चूकें होने पर यदि ईश्वर से दूर जा रहा हो, तो आवश्यकता पडने पर वे कठोर होकर साधक को उसके स्वभावदोषों के साथ संघर्ष करने का भान कराते हैं । एक ही प्रकार की चूक बार-बार होती हो, तो परात्पर गुरु डॉक्टरजी संबंधित साधकों को आश्रम में लगाए गए फलकों पर चूक लिखकर प्रायश्चित लेने के लिए कहते हैं । परात्पर गुरु डॉक्टरजी द्वारा समय-समय पर दिया गया ‘फलक/प्रायश्चित’ का संदेश उस दोष के निर्मूलन के लिए वरदान ही सिद्ध होता है; क्योंकि उस चूक के संदर्भ में गंभीरता से प्रक्रिया करने पर साधक से वैसी चूक पुनः नहीं होती ।
साधक की साधना की हानि टालने हेतु आवश्यकता पडने पर गुरुदेवजी द्वारा प्रयोग किए गए कठोर शब्द भी उनमें उस साधक के प्रति निहित प्रीति ही है । परात्पर गुरुदेवजी द्वारा बताए अनुसार स्वभावदोष-निर्मूलन एवं अहं-निर्मूलन प्रक्रिया को अपनाकर आज अनेकों साधकों का जीवन की ओर देखने का दृष्टिकोण सकारात्मक और आनंदित हुआ है ।
२ आ. अखिल मनुष्यजाति का मौलिक कल्याण करने की लगन
मनुष्य जीवन में अनेक समस्याएं आती हैं । राष्ट्र एवं धर्म के सामने भी वर्तमान में अनेक समस्याएं हैं । ऐसा होते हुए भी एक-एक समस्या पर कौन सा समाधान ढूंढा जाए, इसमें व्यर्थ समय न गंवाकर साधना करने से ही व्यक्ति का मौलिक कल्याण होनेवाला है, परात्पर गुरु डॉक्टरजी इस सूत्र को बार-बार मन पर अंकित करते हैं । अगले सहस्रों वर्षाें तक अखिल मनुष्यजाति का मार्गदर्शन करने हेतु वे ग्रंथलेखन का अखंडित कार्य कर रहे हैं । स्वयं में बहुत अल्प प्राणशक्ति होते हुए भी वैसी स्थिति में वे ग्रंथलेखन का कार्य पूरा करने को प्रधानता देते हैं । वास्तव में उनके जितनी उच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त अध्यात्म के अधिकारी व्यक्तियों को इतनी कठिन स्थिति में सेवा करने की आवश्यकता ही क्या
है ? परंतु अखिल मनुष्यजाति का कल्याण हो, इसके लिए वे आज भी ग्रंथलेखन कर रहे हैं । उनकी यह प्रीति अवर्णनीय है !
उनमें इन जैसे अनेक दैवीय गुणविशेषताओं का समुच्चय है । इन सभी लक्षणों का संपुट उनमें निहित प्रीति को प्राप्त है । उसके कारण ही उन्हें सभी अपने लगते हैं और सभी को परात्पर गुरु डॉक्टरजी अपने लगते हैं । गुरु-शिष्य के मध्य यह अनोखा लेन-देन है । विगत अनेक वर्षाें से हम साधक श्री गुरुदेवजी की प्रीति के सागर में डुबकी लगा रहे हैं । इस सागर में स्थित कुछ मोतियों को ही हम यहां कथन कर पाए हैं । हम पर शब्दों के परे कृपा की वर्षा करनेवाले श्री गुरुदेवजी की महिमा का शब्दों में वर्णन करने के लिए हमारी वाणी असमर्थ है । उनके कृपाछत्र में साधना कर उस प्रीति की वर्षा की अनुभूति करना ही उन्हें समझना है !’
संकलनकर्ता : कु. सायली डिंगरे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (४.५.२०२०)