‘गुरु बिना शिष्य नहीं एवं शिष्य बिना गुरु नहीं’, ऐसी एक कहावत है । ‘शिष्य का जीवन आनंदमय हो’, इसी में गुरु को आनंद होता है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के संदर्भ में भी यही है । सनातन के प्रत्येक साधक ने संकटकाल में उनकी प्रीति एवं कृपा का स्पर्श अनुभव किया है । अपने कुटुंब के सदस्य एवं सगे-संबंधी अपने शारीरिक एवं मानसिक स्तरों पर उनकी क्षमता के अनुसार सहायता करेंगे; परंतु उसके आगे वे कुछ नहीं कर सकते; परंतु ‘गुरु अपने शिष्यों एवं साधकों को शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक, ऐसी सर्व प्रकार की पीडाओं से मुक्त करते हैं’, सनातन के साधक इसकी प्रचीति ले रहे हैं । वास्तव में साधक को गुरु की सेवा करनी होती है । परात्पर गुरु डॉक्टरजी इतने साधकवत्सल हैं कि तीव्र शारीरिक कष्ट होते हुए भी वे साधकों के लिए कुछ न कुछ करते रहते हैं । साधक किस प्रकार परात्पर गुरु डॉक्टरजी की प्रीति अनुभूव कर रहे हैं, यह कुछ प्रसंगों से ध्यान में आएगा !
संकलन : कु. सायली डिंगरे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (५.५.२०२०)
‘आपातकाल आने से पूर्व पृथ्वी पर अनेक संत देहत्याग करेंगे; परंतु मैं तुम साधकों के साथ अंत तक, अर्थात संपतकाल आने तक (हिन्दू राष्ट्र स्थापित होने तक) रहूंगा ।’ – परात्पर गुरु डॉ. आठवले |
बीमार साधक का पूरा ध्यान रखनेवाले भक्तवत्सल !
१. बीमार साधक को कुछ कम न पडे; इसलिए सतत उसका हालचाल लेना : ‘बीमार साधक को मिलने के लिए सीढियां चढकर जाना संभव न होते हुए भी परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी स्वयं सीढियां चढकर उससे मिलने जाते हैं । उसे मिलकर पूछताछ करते हैं कि उसे कोई अडचन तो नहीं ? उसे जो खाने में अच्छा लगता है, वह बनाने के लिए कहते हैं । उस साधक को कुछ कम न पडे; इसलिए उसका ध्यान रखते हैं । इसके साथ ही विविध उपचार-पद्धतियां ढूंढकर उस साधक को शीघ्र ठीक करते हैं । – कु. तृप्ती गावडे, रामनाथी, गोवा. (१०.५.२०१८)
२. साधिका को मरणयातना न हो, इसलिए स्वयं नामजपादि उपचार कर साधिका के प्राण ऊपर सरकाना : दुर्धर व्याधि से ग्रस्त एक साधिका को मृत्यु के समय उसकी वेदना सुसह्य हो, इस हेतु प.पू. डॉक्टरजी ने स्वयं नामजप किया । इसलिए मृत्यु के समय उसे किसी भी प्रकार की यातना नहीं हुई एवं आनंद से वह मृत्यु स्वीकार सकी । प.पू. डॉक्टरजी की प्रीति के कारण अनेक साधकों का जीवन और मरण सुसह्य हो गया है ।’ – कु. मधुरा भोसले, रामनाथी, गोवा. (८.१.२०१३)
३. विदेश का एक साधक त्वचारोग से अत्यंत दुर्बल हो गया था एवं अपना पूरा शरीर ढककर रखता था । उसे प.पू. डॉक्टरजी के सामने आने में संकोच होता था । प.पू. डॉक्टरजी ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा, पैर से मोजे उतारने के लिए कहा एवं उसके मोजे उतारने पर उसकी व्याधि का स्वरूप देखा । उनके इस प्रेम के कारण उस साधक में जीने का उत्साह निर्माण हुआ । – श्री. योगेश जलतारे, रामनाथी, गोवा.
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी एवं साधकों में अटूट संबंध !
- एक प्रसंग में एक साधिका अपना स्वप्न परात्पर गुरु डॉक्टरजी को बता रही थी । उस स्वप्न में उसने देखा कि परात्पर गुरु डॉक्टरजी उसे छोडकर जा रहे हैं । उसका यह वाक्य पूरा होने से पहले ही परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने कहा, ‘‘मैं अपने साधकों को कभी भी छोडकर नहीं जाता ।’ तदुपरांत संवाद पूर्ण होने तक २ – ३ बार इस वाक्य का उच्चारण किया ।
- एक बार आश्रम में आए एक संत को विदा कर परात्पर गुरु डॉक्टरजी अपने निवासकक्ष की ओर जा रहे थे । तब मार्गिका के कुछ साधकों ने उन्हें हाथ हिलाकर ‘टाटा’ किया । तब परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने कहा, ‘‘निरोप कसला माझा घेता । जेथे साधक तेथे मी आता ।।’ अर्थ : मुझे क्या विदा करते हो । जहां साधक होते हैं, वहीं मैं होता हूं ।
- परात्पर गुरुदेवजी के लिए साधक ही सर्वस्व हैं । ‘मुझे सर्व फूलों में ‘साधक फूल’ सबसे प्रिय है’, उन्होंने एक बार ऐसा कहा था ।
‘तुम सभी साधकों और तुम्हारे परिवार का दायित्व मुझ पर है ।’ – परात्पर गुरु डॉ. आठवले (सावंतवाडी के मंदिर में साधकों को किया मार्गदर्शन)
कुछ वर्ष पूर्व ही परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने कहा था कि आनेवाले काल में सनातन वानप्रस्थाश्रम की भी स्थापना करनेवाला है । जिन साधकों ने जन्मभर ईश्वरप्राप्ति के लिए साधना की है, उनका मन ढलती आयु में माया में नहीं रमता । वानप्रस्थाश्रम का उद्देश्य है कि ऐसे साधकों को साधना का वातावरण मिले । वास्तव में ऐसे अनुपम प्रेम की कोई उपमा नहीं !