वैटिकन के नाम बडे दर्शन खोटे !

     कार्डिनल रॉबर्ट साराह को ईसाईयों के पुराणमतवादी धर्मगुरु के रूप में पहचाना जाता है । कट्टर ईसाईयों में कार्डिनल साराह बहुत लोकप्रिय थे । इतना ही नहीं पोप फ्रान्सिस के पश्‍चात ‘भावी पोप’ के रूप में उनकी ओर देखा जाता था । ‘भूतपूर्व पोप’ पोप बेनिडिक्ट को भी वे प्रिय थे; परंतु पोप फ्रान्सिस ने उन्हें तत्परता से पदमुक्त कर दिया । ‘संसार को दिखाने के लिए कार्डिनल साराह ने त्यागपत्र दिया तथा पोप ने उसे स्वीकार कर लिया’, ऐसा चर्च द्वारा दिखाया जा रहा है; तथापि कार्डिनल साराह का यह निष्कासन ही था । वैटिकन चर्च में अलग-अलग पदों पर कार्यरत पादरी ७५ वर्ष की आयु तक कार्यरत रह सकते हैं । वहां के किसी भी पादरी को ७५ वर्ष की आयु होने पर त्यागपत्र देना पडता है। ऐसा होते हुए भी पोप अधिकांश पादरियों के त्यागपत्र निरस्त कर उन्हें कार्यरत रहने की अनुमति देते हैं”। इसलिए त्यागपत्र वैसे तो संस्कार होता है; परंतु कार्डिनल साराह के संदर्भ में ऐसा कुछ नहीं हुआ । उन्होंने जून २०२० में त्यागपत्‍र दिया था और पोप ने वह फरवरी २०२१ में स्वीकार कर उन्हें पदमुक्त कर दिया । इस निष्कासन के प्रकरण के कारण वैटिकन चर्च का पोप विरुद्ध कार्डिनल, यह अंतर्गत विवाद चौराहे पर आ गया है । जो ईसाई उनके अंतर्गत प्रश्‍न सौहार्द्रता और शांति से नहीं सुलझा पाते, वे हिन्‍द़ुआें को प्रेम, शांति और सौहार्द्रता न
सिखाएं । ईसाई पंथ को आध्‍यात्मिकता, साधना की नींव न होने के कारण उनकी स्थिति नाम बडे दर्शन खोटे ऐसी हो गई है ।

पोप विरुद्ध कार्डिनल !

     पोप फ्रान्‍सिस को ईसाईयों में चर्च से संबंधित बढती हुई उदासीनता सता रही है । इसलिए वे वैटिकन चर्च आधुनिक विचारों का स्वीकार करे, इसके लिए आगे आए हैं । बाइबिल समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं देता; परंतु पोप फ्रान्सिस को लगता है कि उस संबंध में चर्च नरम भूमिका अपनाए । इसके साथ ही गर्भपात, महिला स्वतंत्‍रता आदि ऐसे सूत्र हैं, जिस संबंध में पोप नरम भूमिका लेने के इच्छुक हैं । इसके विपरीत कार्डिनल साराह का मत है कि ‘समलैंगिक विवाह और गर्भपात को मान्यता देना एक प्रकार से नाजी विचारधारा को मान्यता देने के समान है ।’ वर्तमान काल में संपूर्ण संसार के वासनांध पादरियों के पाप बाहर आ रहे हैं । पोप फ्रान्सिस उन्हें बचाने का काम कर रहे हैं तथा कार्डिनल साराह का दृढ मत है कि पादरियों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए । इन दोनों में सबसे बडा विवाद मुसलमान शरणार्थियों के संदर्भ में हुआ । पोप फ्रान्सिस को लगता था कि यूरोपीय देशों को शरणार्थियों का स्वागत करना चाहिए तथा कार्डिनल साराह का मत था कि यदि यूरोपीय देश मुसलमान शरणार्थियों को आश्रय देंगे, तो संपूर्ण संसार में इस्लाम के आक्रमण प्रारंभ हो जाएंगे । पोप फ्रान्सिस को आधुनिकतावाद अपनाकर ईसाई पंथ बचाना है तथा कार्डिनल साराह को पुराणमतवादी विचार स्वीकारकर ईसाई पंथ को पुनर्जीवित करना
है । यहां कौन उचित और कौन अनुचित है, इसमें हमें हस्‍तक्षेप नहीं करना है अथवा कार्डिनल साराह के प्रति हिन्‍द़ुआें को सहानुभूति भी दिखाने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि ईसाईयों के सर्वोच्च धर्‍मगुुरुपद पर कोई भी विराजमान हो, उनका लक्ष्य भारत का ईसाईकरण करना ही होता है । यहां महत्त्वपूर्ण यह है कि पादरियों के मध्य का विवाद मिटाने के लिए कोई सामने आया है, ऐसा सुनने में नहीं आया है । इससे उनकी वैचारिक अपरिपक्वता भी दिखाई दी है ।

ईसाई पंथ की धर्म समीक्षा होनी चाहिए !

     किसी निपुण राज्‍यकर्ता के समान पोप फ्रान्‍सिस ने कार्डिनल साराह का ‘कांटा’ निकाल दिया । ऐसी घटना यदि हिन्‍द़ुआें के सर्वोच्च पद पर विराजमान शंकराचार्य अथवा अन्य धर्मगुरु के संदर्भ में घटी होती तो प्रसारमाध्यमों ने इस प्रकरण में आलोचना की होती; परंतु पोप फ्रान्सिस को इस प्रकार की आलोचना का सामना नहीं करना पडा । इस संपूर्ण विवाद के प्रकरण में न ही चर्च ने स्पष्टीकरण दिया और न ही प्रसारमाध्यमों अथवा सुधारवादियों ने उन्हें स्पष्‍टीकरण देने हेतु बाध्य किया । हिन्दुआें की प्रथा-परंपराआें के संबंध में किसी भी चर्चासत्र में इस टोली द्वारा मांग की जाती है कि ‘हिन्दू धर्म की समीक्षा होनी चाहिए ।’ दूसरी ओर संपूर्ण संसार में वासनांध पादरियों की बढती कार्यवाहियां, प्रलोभन देकर धर्मांतरण, चर्च का बढता अनाचार आदि सूत्र देखते हुए ‘ईसाई पंथ की समीक्षा करें’, ऐसी मांग करते हुए कोई क्‍यों दिखाई नहीं
देता ? ऐसा करने से स्‍त्री पर अत्‍याचार करने अथवा इन्क्‍विजिशन करने की ‘प्रेरणा’ ईसाईयों को कहां से मिली, यह संसार के सामने आ जाएगा ।

     वैटिकन चर्च को ईसाई पंथ बढाना है; परंतु उसके लिए स्‍वीकार किया गया मार्ग उसे विनाश की खाई में ढकेलनेवाला है । कोई सिक्‍का खरा हो, तो झूठ अथवा अनाचार का आधार नहीं लेना पडता, यह पादरियों को कौन बताएगा ? संपूर्ण संसार के पादरियों के कुकर्म के कारण वैटिकन चर्च की प्रतिमा संसार में मलिन हो गई है । अब पोप विरुद्ध कार्डिनल की लडाई में चर्च की अंतर्गत राजनीति भी सामने आ गई है । आध्यात्‍मिकता, त्याग, परमार्थ की कोई सीख न ही पादरियों को दी जाती है न ही ईसाईयों को । ऐसे खोखले और दांभिक विचारोंवाले पादरियों
को भारत में मान-सम्‍मान मिलता है, यह संतापजनक है !