स्वस्थसंपन्न भारत के लिए आवश्यक आहारशास्त्र !

१. जीभ पर नियंत्रण न होना ही रोग का कारण !

     जानवरों में क्‍या खाना चाहिए, क्‍या नहीं खाना चाहिए, इसकी जन्‍मजात बुद्धि होती है । गाय, बकरी आदि प्राणी विषैली वनस्पतियों के पत्ते नहीं खाते । मनुष्य को भोजन के संबंध में जन्मजात बुद्धि अत्यधिक अल्प होती है; परंतु मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है । आधुनिक चिकित्साशास्त्‍र ने प्रत्येक खाद्यपदार्थ में प्रथिन (प्रोटीन), स्निग्ध पदार्थ, कार्बोहाइड्रेट्स, खनिज पदार्थ, नमक, पानी की मात्रा खोज निकाली है । आयुर्वेद ने बताया है कि प्रत्‍येक खाद्यपदार्थ का शरीर के वात, पित्त और कफ आदि दोष, धातु, मल और अवयव पर क्या परिणाम होता है । उन शास्त्‍रों का अध्ययन कर प्रत्येक को अपनी प्रकृति, आयु, ऋतु, पाचनशक्ति आद़ि का विचार कर कितनी मात्रा में खाना चाहिए, यह विचार कर आहार लेने से वह निरोगी रहेगा; अर्थात ज्ञात है परंतु वैसा नहीं करते, ऐसी मनुष्य की अवस्था है; क्योंकि उसका जीभ पर नियंत्रण नहीं है । पेट की अम्लता बढी हुई होने पर भी सामने रखी हुई भेलपुरी खाने पर पेट में वेदना होगी, यह ज्ञात होते हुए भी व्यक्ति खाना नहीं छोडता । इसे ही आयुर्वेद में प्रज्ञापराध (बुद्धि का अपराध) और सर्व रोगों का मूल कारण कहा गया है ।

२. प्राकृतिक खाद्य से मानव दूर हो गया है ! 

     आदिमानव प्रकृति में मिलनेवाले कंदमूल, फल और प्राणियों की शिकार कर उनका मांस खाता था । प्रकृति की स्वच्छ हवा, झरने का पानी और हाल ही बनाया हुआ भोजन आदि के कारण वह निरोगी था । अब जनसंख्या बहुत बढ गई है । जंगल और वृक्ष अल्प हो गए हैं । कारखानों का धुआं और रासायनिक पदार्थ, वाहनों की आवाज और मनुष्यों की भीड के कारण वातावरण और पानी प्रदूषित हो गया है । व्यापारी खाद्य पदार्थों में मिलावट करते हैं । फल, अनाज, सब्जियों में कीडा लगने से रोकने के लिए कीटनाशकों का उपयोग खुलकर हो रहा है; इसलिए सब्जियां और फल स्वच्‍छ न धोने से कीटकनाशक विषैले द्रव्यों का शरीर पर अनिष्ट परिणाम हो रहा है । प्राणियों की भूख और वजन बढने के लिए उन्हें ‘कॉर्टिकोस्टिरॉइड’ जैसे हार्मोन की गोलियां दी जाती हैं । ऐसे प्राणियों का मांस खाने से उस हार्मोन के दुष्परिणाम मनुष्य को भी भोगने पडते हैं । नमक की खोज होने से पूर्व खाद्यपदार्थों में नमक का उपयोग नहीं किया जाता था ।

     इसलिए रक्‍तचाप, हृदय के विकार, सूजन आना आदि विकार बहुत कम दिखाई देते थे। खाद्य पदार्थ स्वादिष्ट बनाने के लिए नमक का उपयोग बढ जाने के कारण रक्तचाप, हृदयविकार की मात्रा बहुत बढ गई है ।

     शक्‍कर की खोज के उपरांत शक्‍कर से बनाई गई मीठी जलेबी, श्रीखंड, मुरब्‍बे, पेडे, बर्फी का उपयोग अधिक होने लगा । इसके कारण स्‍थूलता, रक्‍तचाप, मधुमेह आदि रोगों की मात्रा बढ गई । चाय-कॉफी जैसे उत्तेजक पेय, अचार, मसालों के पदार्थों के बढते उपयोग के कारण एसिडिटी, अल्सर आदि रोग बढ गए । खाद्यपदार्थों को सडने से रोकने हेतु मिलनेवाले टोमॅटो केचअप, शीतलपेय व अन्य खाद़्‍यपदार्थों के रासायनिक परिरक्षक का भी (प्रिजरवेटिव्ज) शरीर पर अनिष्ट परिणाम होता है ।

     अन्‍य देशों के विविध खाद्यपदार्थ, मसालों के पदार्थों का भी हमारे आहार में समावेश हो रहा है । अब चाइनीज डिश, मेक्सिकन डिश आदि पदार्थ भी सर्वत्र मिलने लगे हैं । पदार्थ स्वादिष्ट और चटपटे बनाने के कारण जीभ पर नियंत्रण रखना असंभव हो रहा है । यंत्र (मशीन) की खोज होने पर लोग गन्ना और अन्य फलों का रस पीने लगे । आयुर्वेद ने कहा है कि फल खाएं, गन्ना खाएं; परंतु उनका रस न पिएं । क्योंकि गन्ना अथवा फल खाते समय यदि उनमें भीतर कीडा लगा हो, तो हम फल अथवा कीडा लगा हुआ भाग फेंक देते हैं; परंतु यंत्र में रस निकालते समय कीडा लगे हुए भाग का रस भी उसमें मिल जाता है ।

     कृत्रिम स्‍वाद की आदत पड जाने से सेब जैसे स्‍वादिष्‍ट फलों को भी नमक अथवा मसाला लगाकर खाया जाता है । फ्रिज के कारण सप्ताहभर की सब्जियों का संग्रह किया जाता है तथा खाद्यपदार्थ भी फ्रिज में संग्रहित किए जाते हैं । इसके विपरीत आयुर्वेद ने नियम बताया है कि ‘एक बार ठंडा हुआ खाद्यपदार्थ पुनः गरम कर न खाएं । प्राकृतिक भोजन से जीवनसत्त्व और कैलशियम, लौह (आयर्न) आदि प्राप्त करने की अपेक्षा टॉनिक की गोलियां खाने की प्रथा प्रारंभ हो गई है । जीवनसत्त्व और कैलशियम, लौह आदि खनिज पदार्थ अधिक मात्रा में ग्रहण करने से शरीर पर उनके दुष्परिणाम होते हैं ।

     अनेक बार काल और परिस्थिति के कारण परिवर्तित होनेवाली आदतों से दुष्परिणाम तुरंत ध्यान में नहीं आते, तब भी कालांतर से ध्यान में आते हैं; इसलिए हाल ही बनाया हुआ खाने तथा जीभ पर नियंत्रण रखने से मनुष्य स्वस्थसंपन्‍न जीवन के आनंद का उपभोग कर पाएगा ।’

– वैद्याचार्य (सद़्‍गुरु) वसंत बाळाजी आठवले