सहस्रों वर्षों की परंपरा एवं हिन्दुओं की सांस्कृतिक एकता का खुला व्यासपीठ !

 

     वेद तथा पुराणों में कुंभ मेले का उल्‍लेख है । नारद पुराण में बताया गया है, ‘कुंभ पर्व अति उत्तम होता है ।’ शासकीय कर्मचारी वर्ग एवं अधिकारी वर्ग भी प्रजा के कल्‍याणार्थ कुंभ पर्व महोत्‍सव में भाग लें, ऐसा सामवेद में कहा गया है । कुछ विद्वानों के अनुसार, ईसापूर्व ३४६४ में यह पर्व प्रारंभ हुआ होगा, अर्थात यह सिंधु संस्‍कृति से १ सहस्र वर्ष पूर्व की परंपरा है । वर्ष ६२९ में चीनी यात्री हुआंगत्‍संग ने भी अपनी पुस्‍तक ‘भारतयात्रा का वर्णन’ में कुंभ मेले का वर्णन किया है तथा ‘सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल में प्रयाग में हिन्‍द़ुओं का कुंभ पर्व होता है ।’ ऐसा उल्‍लेख किया है ।

     प्रयागराज (इलाहाबाद), हरद्वार (हरिद्वार), उज्‍जैन एवं त्र्यंबकेश्‍वर-नाशिक, इन चार स्‍थानों पर होनेवाले कुंभ मेेलों के निमित्त धर्मव्‍यवस्‍था द्वारा चार सार्वजनिक मंच हिन्‍दू समाज को उपलब्‍ध करवाए हैं । कुंभ मेले के ये चार क्षेत्र चार दिशाओं के प्रतीक हैं । परिवहन के आधुनिक साधनों की खोज होने से पूर्व से ये कुंभ मेले लग रहे हैं । उस समय भारत की चारों दिशाओं से एक स्‍थान पर एकत्रित होना सहजसाध्‍य नहीं था । इसीलिए ये कुंभ मेले भारतीय एकता के प्रतीक एवं हिन्‍दू संस्‍कृति अंतर्गत समानता के सूत्र सिद्ध होते हैं ।

धर्म संरक्षण करनेवाले धर्म सम्‍मेलन !

     ‘प्राचीन काल से कुंभ मेले धर्मजागरण का एक उत्‍कृष्‍ट व्‍यासपीठ बने हैं। प्रारंभ में कुंभ मेले में केवल विद्वतजन, योगी, संत, ऋषि आदि का सहभाग रहता था । वहां सनातन धर्म, संस्‍कृति तथा नीति के व्‍यवहार की दृष्टि से शोध करने का कार्य साधु-संतों द्वारा किया जाता था। इस शोध से अनेक प्रकार के मतमतांतरों में समन्वय स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य कुंभ पर्वस्थल में होने लगा और आज भी होता है । उनके बीच होनेवाली चर्चा से देशभर के राजपुरुष, विद्वतजन तथा सामान्यजन को धार्मिक उपदेश मिलते हैं । इसी कारण भारत की धार्मिक महिमा बनाए रखने में कुंभ मेले लाभदायक सिद्ध हुए । जब भारत में विदेशी आक्रमणकारी अराजकता फैला रहे थे तथा हिन्दू संस्कृति के मूल्य बलपूर्वक कुचल रहे थे । उस समय धर्म के संरक्षणार्थ ब्रह्मास्त्र के रूप में कुंभ मेलों ने अपनी भूमिका निभाई ।’ (दैनिक तरुण भारत, २२.७.२००३)

कुंभमेले का आध्‍यात्मिक लाभ प्राप्‍त करें !

     कुंभपर्व का सांस्‍कृतिक, धार्मिक, आध्‍यात्मिक, ऐतिहासिक के साथ ही वैज्ञानिक महत्त्व भी है । कुंभपर्व के समय विशिष्ट ग्रहों के योग से प्रकृति में निर्माण होनेवाले वातावरण का परिणाम साधना तथा धर्मकृत्य करने के लिए लाभदायक होता है । इसलिए संत-महात्मा तथा श्रद्धालु जन कुंभपर्वकाल में कुंभपर्वक्षेत्र में जाकर गंगास्नान, पूजा-अर्चना, पितृतर्पण, श्राद्धकर्म, यज्ञयाग, दानधर्म, ध्यानधारणा, जप-तप आदि धर्मकृत्य तथा साधना करते हैं ।

     पूरे भारत में चार तीर्थक्षेत्रों में कुंभपर्व के समय कुंभमेला अथवा अर्धकुंभेमला होने का उद्देश्‍य आध्यात्मिक है । कुंभपर्व के पुण्य अवसर के निमित्त दूर दूर रह रहे श्रद्धालु हरिद्वार, प्रयागादि पवित्र तीर्थों पर एकत्र आकर देवनदी गंगा का पुण्यदायी स्नान करें, ऋषिमुनी तथा संतमहात्मा के प्रवचनों से ज्ञानप्राप्ति करें । तदनुसार श्रद्धालु ध्यान, दान, यज्ञ, तप, जप आदि साधना कर आध्यात्मिक प्रगति करें तथा मृत्यु के उपरांत सद्गति प्‍राप्त करें, यह कुंभमेले का आध्यात्मिक दृष्‍टिकोण से प्रयोजन है ।

     कुंभमेले का यह आध्‍यात्मिक प्रयोजन ध्‍यान में रख सश्रद्ध हिन्‍द़ू समाज केवल कुंभपर्व में ही नहीं, वर्षके ३६५ दिन आध्यात्मिक प्रगति के लिए साधना करे, यह ईश्वरचरणों में प्रार्थना है !

१. हिन्‍दू धर्म के विविध पंथ तथा संप्रदायों की एकता का मेला !

     कुंभ मेलों की परंपरा भले ही वेदकालीन हो; परंतु वर्तमानकाल में प्रचलित कुंभ मेलों को आद्यशंकराचार्यजी ने संतसमाज में प्रतिष्ठा प्रदान की । आद्य शंकराचार्यजी ने संन्यासी संघों का आवाहन करते हुए कहा कि ‘धर्म का निरंतर प्रचार तथा श्रद्धालुआें का एकत्रीकरण करते रहने के लिए प्रत्येक बारह वर्ष उपरांत कुंभक्षेत्र में एकत्र हों ।’ उन्हीं की प्रेरणा से कुंभ मेलों में हिन्दू धर्म के विविध पंथ तथा संप्रदाय के साधुसंतों ने भाग लेना प्रारंभ किया । तब से कुंभ मेले में सहभागी साधु-संत देश, काल एवं परिस्थिति के अनुरूप लोकहित की दृष्टि से धर्‍म की रक्षा तथा धर्म का प्रसार करने का कार्य कर रहे हैं । अभी कुंभ मेले में शैव, वैष्णव, दत्त, शक्ति आदि संप्रदायों के साथ ही जैन, बौद्ध तथा सिख पंथों के अनुयायी भी सहभागी होेते हैं ।

२. करोडों श्रद्धालु, यही व्‍याप्‍ति

    प्रयाग के महाकुंभ मेले में न्‍यूनतम १० करोड श्रद्धालु गंगास्नान के लिए आते हैं । हरद्वार (हरिद्वार), उज्‍जैन एवं त्र्यंबकेश्‍वर-नासिक के कुंभ मेलों में ५ करोड श्रद्धालु उपस्‍थित रहते हैं । प्रयाग के कुंभ मेले के श्रद्धालुओं की उपस्‍थिति ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्‍ड रेकॉर्ड्‍स’ में पंजीकृत (दर्ज) हुई है । इस कारण विश्‍व में कुंभ मेले के प्रति आकर्षण जागृत हुआ तथा विविध देशों के नागरिक भी इस मेले में बडे उत्‍साह से सम्‍मिलित होते हैं ।

३. केवल पंचांग के माध्‍यमसे १२ वर्षों में एक बार आनेवाले पवित्र कुंभ मेले की जानकारी
पूर्व में ही देकर करोडों हिन्‍दुओं को बिना निमंत्रण के एकत्रित कर पानेवाला प्राचीन हिन्‍दू धर्म !

     ‘वर्ष १९४२ मेें भारत के वॉईसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने पं. मदनमोहन मालवीय के साथ प्रयाग का कुंभ पर्व विमान से देखा । वे लाखों श्रद्धालुओं का जनसागर देखकर आश्‍चर्यचकित हो गए । उन्‍होंने उत्‍सुकतावश पं. मालवीय से प्रश्‍न किया, ‘‘इस कुंभ मेले में जनसमूह को एकत्रित करने के लिए आयोजकों को अत्‍यधिक परिश्रम करना पडा होगा न? आयोजकों को इस कार्य के लिए कितना खर्च करना पडा होगा ?’’ पं. मालवीय ने उत्तर दिया, ‘‘केवल दो पैसे !’’ यह उत्तर सुनकर लॉर्ड लिनलिथगो ने पं. मालवीय से प्रतिप्रश्‍न किया, ‘‘पंडितजी, आप विनोद (मजाक) कर रहे हैं ?’’ पं. मालवीय ने थैली से पंचांग निकाला तथा वह लॉर्ड लिनलिथगो के हाथ में देते हुए बोले, ‘‘इसका मूल्‍य केवल दो पैसे है । इससे जनसामान्‍य को कुंभ पर्व के पवित्र कालखंड की जानकारी मिलती है । उसके अनुसार सब जन उस समय स्नान के लिए स्‍वयं उपस्‍थित रहते हैं । किसी भी व्‍यक्‍ति को व्‍यक्‍तिगत निमंत्रण नहीं दिया जाता ।’’ (‘केशव संवाद’, २७.७.२००७)

४. नागा साधुआें की शोभायात्रा के विषय में अंग्रेजों द्वारा व्यक्त
गौरवोद्गार, उन्हें ‘अश्लील’ कहनेवाले धर्मनिरपेक्षतावादियों के मुंह पर तमाचा !

     अंग्रेज अधिकारी ने वर्ष १८८८ में ब्रिटिश संसद को भेजे पत्र में लिखा था, ‘नागा साधुआें की शोभायात्रा अश्‍लीलता नहीं फैलाती । वह संपूर्णतया धर्म को समर्पित होती है । अखाडों की परंपराआें का पालन किया जाता है ।’

५. ‘राजयोगी (शाही) स्नान’ के लिए निकलनेवाली अखाडे के
साधु-संतों की सशस्‍त्र शोभायात्रा तथा श्रद्धालुओं की असीम भक्‍ति का दर्शन !

     प्रातः लगभग चार बजे ‘राजयोगी स्नान’ के लिए जाने हेतु अखाडे के साधु-संतों की सशस्‍त्र शोभायात्रा निकलती है, यह तो जैसे तप, ज्ञान, वैराग्‍य इत्‍यादि दैवी गुणों की ही शोभायात्रा है ! उस समय मार्ग के दोनों ओर विशाल जनसमुदाय एकत्रित होता है । स्‍थानीय श्रद्धालु शोभायात्रा से पूर्व ही मार्ग रंगोलियों तथा पुष्‍पों की पंखुडियों से सजाते हैं । तत्‍पश्‍चात इस मार्ग से एक-एक अखाडा, अपने संतमहंत एवं शिष्‍य, हाथी, ऊंट, घोडे ऐसे परिवार सहित ठाठ में तथा वाद्यों की धुन पर पवित्र तीर्थ की ओर जाते हैं । कुछ स्‍वामी हाथी पर, तो कुछ रथ पर विराजमान होते हैं । श्रद्धालु उनपर पुष्‍प की वर्षा करते हैं । इस समय ढोल, ताशे, नगाडे इत्‍यादि वाद्यों के नाद तथा ‘हर हर शंकर, गौरी शंकर, हर हर महादेव ।’ एवं ‘गंगा मैया की जय ।’ घोषणाएं गूंजती हैं । शरीर पर भस्‍म लगाए सहस्रों नग्‍न साधु गले में फूलों की मालाएं, हाथों में दमकती तलवारें अथवा अन्य शस्त्‍र तथा ध्वजपताकाएं लेते हैं । शरीर पर भस्म लगाने के कारण अमानवीय आकृति प्रतीत होते सहस्रों से अधिक नागा साधु ‘हर हर महादेऽऽव’, ‘हर हर गंगेऽऽ’, ऐसा जयघोष करते हैं ।

(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ – कुंभपर्वकी महिमा)