शिवतत्त्व का लाभ करानेवाले प्रमुख व्रत एवं उत्सव

 

प्रदोष व्रत

तिथि : प्रत्येक माह की शुक्ल एवं कृष्ण त्रयोदशी पर सूर्यास्त उपरांत के तीन घटकों के कालको प्रदोष कहते हैं । प्रदोषो रजनीमुखम् ।

व्रत करने की पद्धति : इस तिथि पर दिनभर उपवास एवं उपासना कर,रात को शिवपूजा उपरांत भोजन करें । प्रदोेष के अगले दिन श्रीविष्णुपूजन अवश्य करें। संभवतः इस व्रत का प्रारंभ उत्तरायण में करें । यह व्रत तीन से बारह वर्ष की अवधि का होता है । कृष्ण पक्ष का प्रदोष यदि शनिवार को हो, तो उसे विशेष फलदायी मानते हैं ।

निषेध : विधान है कि प्रदोषकाल में वेदाध्ययन नहीं करना चाहिए;क्योंकि यह रात्रिकाल का व्रत है और वेदाध्ययन तो सूर्य के रहते करना चाहिए ।

प्रकार : प्रदोष व्रत के चार प्रकार हैं -सोमप्रदोष, भौमप्रदोष, शनिप्रदोष एवं पक्षप्रदोष ।

हरितालिका

तिथि : भाद्रपद शुक्ल पक्ष तृतीया

इतिहास एवं उद्देश्य : पार्वती ने यह व्रत रखकर शिवजी को पति के रूप में प्राप्त किया था;इसलिए मनपसंद वर पाने के लिए,साथ ही अखंड सौभाग्य प्राप्ति के लिए स्त्रियां यह व्रत रखती हैं ।

व्रत करने की पद्धति : प्रात:काल मंगलस्नान कर पार्वती एवं उसकी सखी की मूर्ति लाकर उस शिवलिंगसहित उनकी पूजा की जाती है । रात को जागरण करते हैं । अगलेे दिन सवेरे उत्तरपूजा कर लिंंग एवं मूर्ति विसर्जित करते हैं ।

श्रावण सोमवार और कार्तिक सोमवार

अन्य देवताओं की अपेक्षा श्रीविष्णु एवं शिव का विशेष महत्त्व होने से श्रीविष्णु की भान्ति शिव के भी और दो त्योहार हैं – श्रावण सोमवार और कार्तिक सोमवार । इन में श्रावण सोमवार दयास्वरूप, जबकि कार्तिक सोमवार न्यायस्वरूप त्योहार है । श्रावण मास से कार्तिक मास तक घर के भीतर ही दानधर्म करना होता है,जबकि कार्तिक मास से श्रावण मास तक दानधर्म बाहर करना होता है । तीर्थयात्रा इत्यादि भी कार्तिक से श्रावण के मध्य करनी होती है ।

श्रावणी सोमवार एवं शिवमुष्टिव्रत

श्रावणी सोमवार : श्रावण महीने में हर सोमवार शंकरजी के मंदिर जाकर उनकी पूजा करें और संभव हो, तो निराहार उपवास रखें अथवा नक्त व्रत रखें । मान्यता है कि इससे शंकरजी प्रसन्न होते हैं और शिवसायुज्य मुक्ति मिलती है ।

शिवमुष्टिव्रत : महाराष्ट्र में विवाह के उपरांत पहले पांच वर्ष क्रम से ये व्रत किए जाते हैं । इसमें श्रावण के प्रत्येक सोमवार एकभुक्त रहकर शिवलिंग की पूजा करने की और चावल, तिल, मूंग, अलसी एवं सत्तू (पांचवा सोमवार आए तो) के धान्य की पांच मुट्ठी देवता पर चढाने की विधि है ।

शिवपरिक्रमा व्रत

     यह एक काम्य व्रत है ।

तिथि : वैशाख, श्रावण, कार्तिक अथवा माघ में से किसी एक माह में यह व्रत करते हैं ।

व्रत की पद्धति : व्रत की दीक्षा लेकर शिवपूजा कर शिवलिंग की एक लाख परिक्रमा करना, इस व्रत की प्रधान विधि है । परिक्रमा पूर्ण होने पर व्रत का उद्यापन करते हैं । उद्यापन के समय उमा-महेश्‍वर की स्वर्णप्रतिमा की पूजा तथा होम करते हैं । तदुपरांत ब्राह्मणभोजन करवाकर सर्व पूजा के उपकरण ब्राह्मण को दान करते हैं ।

निषेध : दान लेना, परान्न भक्षण करना, असत्य बोलना, शिव एवं श्रीविष्णु जैसे देवताओं के निंदकों से संबंध रखना इत्यादि व्रतकाल में वर्जित हैं ।

(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ भगवान शिवकी उपासना का अध्यात्मशास्त्र)