कोरोना की आड में आजकल नास्तिकतावादी हिन्दू धर्म को लक्ष्य करने का एक भी अवसर नहीं छोडते । आजकल श्राद्धकर्म को लक्ष्य कर उसके विरुद्ध नास्तिकों का एक वॉट्सएप संदेश प्रसारित हो रहा है, हाल ही में एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति ने इसकी जानकारी दी है । इस संदेश के कारण दिग्भ्रमित हो रहे अनेक लोगों के मन की शंकाआें का उत्तर देना आवश्यक था; इसलिए इस लेख का प्रयोजन है …
– श्री. चेतन राजहंस, राष्ट्रीय प्रवक्ता, सनातन संस्था
१. श्राद्धकर्म को लक्ष्य बनानेवाले नास्तिकवादियों के अनुचित विचार
आजकल ‘वॉट्सएप’ और ‘फेसबुक’ पर एक संदेश घूम रहा है । वह संदेश इस प्रकार है –
‘‘कोरोना के कारण आजकल अनेक लोगों की मृत्यु हो रही है, न उनका पिंडदान हो रहा है, न तेरहवीं, न गरुड पुराण का पारायण, न किसी को दान-दक्षिणा, अस्थि विसर्जन करने कोई नासिक, आळंदी, पंचगंगा, काशी, आेंकारेश्वर, पैठण आदि स्थानों पर नहीं जा रहे हैं, वहां किसी को दान नहीं दे रहे हैं; परंतु आत्माआें को जहां जाना है, वहां वे जा रही हैं ! इसका अर्थ संत तुकाराम, प्रबोधनकार ठाकरे, तुकडोजी महाराज, गाडगेबाबा जो बताते थे, वही यथार्थ सत्य है । अंधी रूढि-परंपराआें पर व्यर्थ खर्च करने की अपेक्षा स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च करें !’’
२. अध्यात्म का अध्ययन न करने से अनुचित निष्कर्ष निकालनेवाले बुद्धिजीवी !
वास्तव में नास्तिकों द्वारा फैलाए गए संदेश आगे भेजनेवाले लोगों ने मृत्युपरांत अंतिम संस्कार, १३ दिन के संस्कार और गरुड पुराण का पारायण किसलिए किया जाता है, इसका ज्ञान लेने का परिश्रम उठाया होता, तो वे वैसा लिखने का साहस नहीं दिखाते । बिना अध्ययन किए ऐसे चिंतन रखना, इससे आधुनिक बुद्धिजीवियों की मर्यादाएं ध्यान में आती हैं । अध्यात्म का अध्ययन न करने से इस प्रकार के हास्यास्पद निष्कर्ष निकाले जाते हैं ।
२ अ. लिंगदेह को सद़्गति मिलने हेतु श्राद्धादि कर्म करना आवश्यक !
सनातन धर्म में पुनर्जन्म सिद्धांत बताया गया है । शास्त्र बताता है, ‘व्यक्ति के कर्म के अनुसार उसे मृत्योत्तर गति प्राप्त होती है ।’ पूरे जीवन में सत्कर्म किए हों, तो जीव को मृत्यु के उपरांत सद़्गति प्राप्त होती है; परंतु जीवन में पाप, परपीडा, अनैतिक कृत्य किए हों, तो उन कर्मों के फल उस लिंगदेह को परलोक में अधोगति की ओर ले जाते हैं । ऐसे लोगों का मनुष्य रूप में नहीं, अपितु कीडा, चींटी, कुत्ता, वनस्पति आदि ८४ लक्ष योनियों में कहीं भी पुनर्जन्म हो सकता है ।
मृत्यु तक सत्कर्म न करने से और मृत्यु के पूर्व की इच्छा-आकांक्षाआें के कारण मृत्यु के उपरांत शरीर त्यागनेवाली लिंगदेह पृथ्वी के ऊपर स्थित भुवर्लोक में फंस जाती है । वह वहां न फंसे और उसे आगे की गति मिले अर्थात स्वर्गादि उच्चलोक प्राप्त हो; इसके लिए शास्त्र में श्राद्धकर्मादि कृत्य बताए गए हैं । अंतिम संस्कार, १३ दिवसीय संस्कार, गरुड पुराण का पारायण इत्यादि कृत्य करने की परंपरा तो इसी के लिए है । यहां आवश्यक और महत्त्वपूर्ण सूत्र यह है कि जो भुवर्लोक में फंसे हैं, उनकी मुक्ति के लिए ये धार्मिक कृत्य किए जाते हैं । जो पूरे जीवन में सत्कर्म और धर्म के मार्ग पर चलते हैं, वे अपने धर्मबल के आधार पर परमगति को प्राप्त करते हैं । किसी ने उनका श्राद्ध किया अथवा न किया, तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पडता । साधना में उन्नति करनेवाले जीव तो पृथ्वी पर पुनः जन्म ही नहीं लेते । वे सप्तलोकों को भेदते हुए मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या हम पूरे जीवन में सत्कर्म ही करते हैं और पूरे जीवन में धर्म के पथ पर चलते हैं ? हमारा उत्तर ‘नहीं’ है, तो हमारी मृत्यु के पश्चात हमारे वंशजों को हमारी श्राद्धविधि करने की आवश्यकता है । ‘कोरोना महामारी के कारण श्राद्धविधि, अंतिम संस्कार आदि पर मर्यादाएं हैं’, यह स्वीकार है; परंतु धर्म ने इसकी भी व्यवस्था की है । ऐसे काल के लिए आपद्धर्म की व्यवस्था है । जिज्ञासु ही ज्ञान का अधिकारी होता है ।
२ आ. गरुड पुराण के श्रवण का महत्त्व समझें !
पक्षीराज गरुड भगवान विष्णु के वाहन हैं । एक बार पक्षीराज गरुड ने भगवान विष्णु को प्राणियों की मृत्यु के पश्चात उनकी स्थिति, जीव की यमलोक यात्रा, विभिन्न दुष्कर्मों के कारण प्राप्त होनेवाले नरक, ८४ लक्ष योनि, पाप करनेवालों की होनेवाली दुर्गति इत्यादि के संबंध में अनेक गहन प्रश्न पूछे । उस पर भगवान विष्णु ने उन्हें जो ज्ञानयुक्त उपदेश दिए, उसे इस पुराण में विशद किया गया है । जीव की मृत्यु के उपरांत उसका परिवार इस पुराण का श्रवण कर सन्मार्ग के पथ पर चले, पूरे जीवन सत्कर्म करने का संकल्प ले और मृत्यु के उपरांत सद़्गति प्राप्त करे; इसके लिए गरुड पुराण का श्रवण करने का धर्मशास्त्रीय प्रावधान है । अर्थात नास्तिक लोगों के सत्कर्म करने के बंधन का पालन करने की तैयारी न होने से वे गरुड पुराण के श्रवण का विरोध करते हैं !
२ इ. ‘श्राद्धकर्म न करें’, ऐसा बतानेवाला संत तुकाराम महाराज का एक भी अभंग (भक्तिरचना) नहीं है !
महाराष्ट्र के महान संत तुकाराम महाराजजी ने ‘अंतिम संस्कार न करें’, ‘श्राद्धकर्म न करें’, अपने किसी भी अभंग में ऐसा नहीं बताया है । यह संदेश लिखनेवाले ने संतों के नाम तो लिए हैं; परंतु उनके उस आशय की रचना का प्रमाण देने का कष्ट नहीं किया है; क्योंकि वास्तविकता यह नहीं है ! संत तुकाराम महाराजजी का ऐसा एक भी अभंग दिखाएं, जिसमें ऐसा उदाहरण हो । इसके विपरीत संत तुकाराम महाराज बताते हैं कि श्राद्ध करना चाहिए । उन्होंने अपने ग्रंथ में इस आशय का निम्न अभंग लिखा है –
पिंड को पद पर । दिया अपने हाथों से ।
मेरा हुआ गयावर्जन । चुका पूर्वजों का ऋण ।
किया कर्मातर । होहल्ला किया हरिहर का ।
तुका बोले मेरा । उतर गया बोझ ।
उक्त अभंग में संत तुकाराम महाराज बताते हैं कि जब मैंने पूर्वजों के नाम से पिंड को हाथ में लेकर उन्हें सद़्गति मिलने हेतु प्रार्थना की, तब मुझे गया जाकर पिंडदान करने का आभास हुआ और इस पिंड के कारण मेरे २१ कुलों के लोगों का उद्धार होगा, ऐसा मुझे लग रहा है ।
आगे जाकर इसी अभंग में वे आगे लिखते हैं कि यह कर्मकांड करते समय ही मैंने विठ्ठलजी को पुकारा है और विठ्ठलजी के आशीर्वाद और पूर्वजों के पुण्यकर्मों के कारण मेरा यह बोझ उतर गया है, साथ ही श्राद्धविधि करने की संतुष्टि मिलकर उनके बंधन का बोझ भी हल्का हुआ है; ऐसा मुझे लगता है । अतः संतश्रेष्ठ जगद़्गुरु संत तुकाराम महाराज ने अपने पूर्वजों के प्रति आदर व्यक्त करने हेतु श्राद्धविधि कर यह अभंग लिखा होगा, ऐसा कहा जा सकता है ।
२ इ. समाजसेवक कोई धर्माधिकारी नहीं हैं !
प्रबोधनकार ठाकरे (शिवसेना प्रमुख बाळ ठाकरे के पिता) और संत गाडगेबाबा समाजसेवी थे; परंतु वे धर्म के अधिकारी नहीं थे । इसलिए उनके धर्म से संबंधित वक्तव्यों का प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है । ‘पात्रता देखकर उपदेश करना चाहिए’, ऐसा बताया गया है । राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज भी भक्तिमार्ग से समाजकार्य और राष्ट्रकार्य करते थे; परंतु धर्माधिकारी नहीं थे । उसके कारण उन्होंने कर्मकांड का विरोध किया; परंतु कितने लोगों ने उनकी सीख पर आचरण किया । इसके विपरीत उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी समाधि का निर्माण किया गया और आगे जाकर उनकी समाधि की भी पूजा की जाने लगी !
२ ई. काल की कसौटी पर टिकी हुई चैतन्यमयी श्राद्धपरंपरा !
रामकृष्णादि अवतारों ने भी श्राद्धकर्म किए । लाखों वर्षों से श्राद्धपरंपरा चली आ रही है । कोई परंपरा लाखों वर्ष इसलिए टिकी रहती है; क्योंकि उसमें कुछ न कुछ चैतन्य होता है; इसीलिए ! प्रबोधनकार ठाकरे की मृत्यु के पश्चात क्या श्राद्ध करने की परंपरा रुक गई ? इसका उत्तर नकारात्मक है । इसका कारण उनके पुत्र मा. बाळासाहेब ठाकरे की अंतिम विधि उनके पुत्र मा. उद्धव ठाकरे ने संपन्न की । जिस व्यक्ति द्वारा बताए गए तत्त्वज्ञान का पालन उनकी अगली पीढी ने भी नहीं किया, उसमें क्या चैतन्य हो सकता है ?
२ उ. ‘पूर्वजों के लिए पैसे खर्च न करें’, ऐसा बताना कृतघ्नता !
‘श्राद्ध के लिए व्यर्थ पैसे खर्च करने की अपेक्षा स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च करें !’, ऐसा बोलना नास्तिकवादियों का बडबोलापन है । ये लोग स्वयं समाज के स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च नहीं करते । ऐसे लोगों के शिक्षासंस्थान नहीं होते और चिकित्सालय भी नहीं होते । वे अपनी जेब से खर्च कर समाजसेवा नहीं करते, अपितु ये लोग केवल श्रद्धावान लोगों में दुष्प्रचार कर मुफ्त के पैसों पर समाजकार्य करते हैं । इसके विपरीत श्रद्धावान लोग धर्मादाय संस्थाआें के माध्यम से बडी मात्रा में शिक्षासंस्थान और चिकित्सालय चलाते हैं । पूर्वजों के प्रति कृतघ्न नास्तिकवादियों को क्या यह उपदेश देने का नैतिक अधिकार है क्या ?
३. श्रद्धावान समाज का आवाहन
ऐसे नास्तिकवादी लोग इस प्रकार के ‘वॉट्सएप मेसेज’ भेजकर लोगों को धर्म के पथ से दूर ले जाते हैं । उनमें न रामकृष्णजी के प्रति श्रद्धा होती है अथवा न संत तुकाराम महाराज के प्रति ! इसलिए आप सभी से यह आवाहन है कि आप ऐसे नास्तिकवादियों से दूर रहें ! पूर्वजों को सद़्गति मिले; इसके लिए महाराज भगीरथ और उनके पूर्वज राजपुरुषों ने सहस्रों वर्ष तप किए; इसी कारण हम आज देवनदी गंगाजी के दिव्य सान्निध्य का अनुभव कर रहे हैं । श्राद्धकर्म का फल तो उत्तम ही होता है; इसलिए श्रद्धापूर्वक श्राद्धकर्म करें !
– श्री. चेतन राजहंस, राष्ट्रीय प्रवक्ता, सनातन संस्था