विशेष स्तंभ !
छत्रपति शिवाजी महाराजजी द्वारा स्थापित किए गए हिंदवी स्वराज्य के लिए जिसप्रकार मावळों (छत्रपति शिवाजी महाराजजी के सैनिकों को मावळे कहते थे) और धर्मयोद्धाओं द्वारा किया गया त्याग सर्वोच्च है, उसीप्रकार आज भी अनेक हिन्दुत्वनिष्ठ और राष्ट्रप्रेमी नागरिक हिन्दू धर्म एवं राष्ट्र की रक्षा के लिए ‘धर्मयोद्धा’ के रूप में कार्य कर रहे हैं । निधर्मीवादी सरकार, साथ ही प्रशासन और पुलिस से होनेवाला कष्ट सहन करते हुए वे निःस्वार्थभाव से केवल राष्ट्र-धर्मरक्षा के लिए रात-दिन संघर्ष कर रहे हैं । आज राष्ट्रविरोधी शक्ति निधर्मीवादियों के समर्थन से बलवान होकर हिन्दूविरोधी, इसके साथ ही राष्ट्रविरोधी षड्यंत्र करते हुए हमारे मन में ‘हिन्दुओं और राष्ट्र का आगे कैसे होगा ?’, ऐसी चिंता होती है । उस समय हिन्दुत्व और राष्ट्र की रक्षा के लिए लडनेवाले इन मावळों और धर्मयोद्धाओं के संघर्ष के उदाहरण पढने पर निश्चितरूप से हमारे मन की चिंता दूर होकर उत्साह निर्माण होगा । इसलिए हमने ऐसे धर्मयोद्धाओं और उनके हिन्दू धर्मरक्षा के संघर्ष की जानकारी देनेवाला ‘हिन्दुत्व के धर्मयोद्धा’ यह स्तंभ आरंभ किया है ।
डोंबिवली (जिला ठाणे) के श्री. दुर्गेश जयवंत परुळकरजी हिन्दुत्वनिष्ठ व्याख्याता एवं लेखक हैं । वे अखंडरूप से हिन्दू राष्ट्र निर्मिति के लिए वीर सावरकरजी की विचारधारा का प्रसार कर रहे हैं । वर्तमान में वे सावरकरजी के विविध विषयों पर व्याख्यान, राष्ट्र-धर्म की दयनीय स्थिति और हिन्दू राष्ट्र स्थापना की आवश्यकता, पर अनेक स्थानों पर उद्बोधन भी कर रहे हैं । उनके द्वारा किया कार्य और उन्हें कार्य के लिए मिली प्रेरणा, इस संदर्भ की जानकारी यहां दी है ।
श्री. दुर्गेश परुळकर का अल्प परिचय

१. विविध क्षेत्रों में कार्यरत
श्री. परुळकर वर्ष १९७७ से शैक्षिक और सामाजिक क्षेत्रों में कार्यरत हैं । उन्होंने आज तक विविध विषयों पर २,५०० से अधिक व्याख्यान दिए हैं । इसके साथ ही उनके अनेक लेख विविध नियतकालिकों में प्रकाशित हुए हैं । वर्तमान में उनके साप्ताहिक ‘हिन्दुस्थान पोस्ट’ और दैनिक ‘सनातन प्रभात’ में विविध विषयों पर लेख प्रकाशित हो रहे हैं ।
२. ग्रंथसंपदा
अ. डॉ. सच्चिदानंद शेवडे के साथ लिखे गए ४ ग्रंथ (मराठी भाषा में) : ‘शिवरायांची युद्धनीती’ (शिवाजी महाराजजी की युद्धनीति), ‘पानिपतचा रणसंग्राम’ (पानीपत का रणसंग्राम), ‘गोवा मुक्तीसंग्राम’ एवं ‘ज्ञात-अज्ञात सावरकर’
आ. स्वतंत्ररूप से लिखे गए १३ ग्रंथ (मराठी भाषा में) : ‘सावरकरांची राजनीती’ (सावरकरजी की राजनीति), ‘क्रांतिवेदीवरील समिधा’ (क्रांतिवेदी में समिधा), ‘क्रांतिकारक बाबाराव सावरकर’, ‘सावरकरांचा मार्सेलीस पराक्रम’ (सावरकरजी का मार्सेलीस पराक्रम, ‘कश्मीर – उत्कर्ष आणि संघर्ष’ (कश्मीर – उत्कर्ष एवं संघर्ष), ‘तेजस्वी जीवन’, ‘छत्रपती शिवाजी महाराज आणि महात्मा गांधी’ (छत्रपति शिवाजी महाराज एवं महात्मा गांधी), ‘धगधगत्या समिधा’ (धधकती समिधा), ‘१९६५ चा विजय’ (१९६५ की विजय), ‘धर्मनिष्ठ सावरकर’, ‘भगवद्गीता पद्यानुवाद’, ‘निष्काम कर्मयोगी भीष्म’ एवं ‘योगेश्वर श्रीकृष्ण’.
३. राष्ट्रीय कार्य में सहभाग
अ. ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक, दादर, मुंबई’ के भूतपूर्व कार्यकारिणी सदस्य
आ. डोंबिवली, साथ ही मुंबई में ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर अभ्यास मंडळ’ के भूतपूर्व कार्यवाह
इ. ‘हिन्दू जनजागृति समिति’की ओर से आयोजित किए गए अनेक आंदोलनों में सहभाग
४. आध्यात्मिक विशेषता
श्री. दुर्गेश परुळकर द्वारा ६१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त करने की घोषणा १७.६.२०२२ को गोवा में हुए ‘दशम् अखिल भारतीय हिन्दू राष्ट्र अधिवेशन’में हिन्दू जनजागृति समिति के राष्ट्रीय मार्गदर्शक सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळे ने की थी ।
देह में प्राण रहने तक कर्तव्य के रूप में राष्ट्र और धर्म अभिमान जागृत करने का संकल्प लेनेवाले श्री. दुर्गेश परुळकर !

१. वीर सावरकर की विचारधारा के प्रचार और प्रसार कार्य अपने हाथ में लेने का कारण
हिन्दू धर्म और संस्कृति, यह क्षात्रतेज और ब्राह्मतेज से सुसज्जित है । ‘श्रीराम, श्रीकृष्ण अपने देश के राष्ट्रपुरुष भी हैं’, इसका भान क्षात्रतेज को भुला देनेवाले हिन्दू समाज को उनका विस्मरण हो गया है । इसलिए हिन्दू समाज की प्रतिकारशक्ति नष्ट होने का भान वीर सावरकर को हुआ । देश में अहिंसा और सहिष्णुता का अतिरेक हो गया । परिणामस्वरूप हिन्दू समाज अपनी राजकीय दृष्टि गंवा बैठा । इसलिए हिन्दू समाज ने क्षात्रतेज की ओर पीठ फेर ली; इसीकारण सावरकर ने सशस्त्र क्रांति का बीडा उठाया । ‘केवल ब्राह्मतेज अथवा केवल क्षात्रतेज उपयुक्त नहीं है । दुष्टों को पराजित करने के लिए दोनों ही अनिवार्य हैं । इसका भान सावरकरजी ने हिन्दू समाज को करवाने के लिए सावरकरजी ने ‘हिन्दुत्व’ ग्रंथ लिखा और शस्त्र और शास्त्र का महत्त्व विशद किया । दुर्भाग्यवश सावरकरजी के इन विचारों को हिन्दू समाज ने अनदेखा किया । परिणामस्वरूप राष्ट्र की अपरिमित हानि हुई ।
‘मुसलमान समाज को अपने नियंत्रण में रखने के स्थान पर हिन्दू समाज मुसलमानों की चापलूसी के लिए तैयार हो गया । सावरकरजी समझ गए थे कि यदि ऐसा हुआ तो देश को पुन: पराधीनता देखनी होगी; इसीलिए उन्होंने ‘हिन्दुत्व’ नामक ग्रंथ हिन्दू समाज के हाथों में सौंपा । वीर सावरकर का यह ग्रंथ दूसरी भगवद्गीता ही है । रावण का वध करनेवाले श्रीराम और अर्जुन के सारथी बनकर उसे युद्ध के लिए प्रवृत्त करनेवाले श्रीकृष्ण, इन दो महापुरुषों को हिन्दू समाज अपना प्रेरणास्थान मान ले, तो विश्व की कोई भी शक्ति हिन्दू समाज को पराभूत नहीं कर सकती ।
‘जब तक हिन्दू समाज जातिभेद के दलदल से बाहर नहीं आता, तब तक हिन्दू समाज का संगठन होना असंभव है’, यह सावरकरजी समझ गए थे और इसीलिए उन्होंने अस्पृश्यता अभियान आरंभ किया । हिन्दू समाज का हो रहा धर्मांतर टालने के लिए सावरकरजी ने शुद्धिकरण अभियान का आधार लिया । ‘धर्मांतर अर्थात राष्ट्रांतर, यह सिद्धांत सावरकरजी ने प्रस्तुत किया । सावरकरजी की यह विचारधारा हिन्दू समाज और हिन्दू राष्ट्र निर्मिति के लिए पोषक है; इसीलिए सावरकरजी की इस विचारधारा का प्रचार और प्रसार करने का कार्य हाथ में लिया ।
२. वैचारिक प्रतिवाद कर सत्य सामने लाना
वीर सावरकरजी की विचारधारा मुसलमानों का तुष्टीकरण करने की अनुमति नहीं देती । सावरकरजी के प्रखर राष्ट्र्रवाद के सामने उनकी दाल नहीं गलेगी, यह भली-भांति समझ जाने पर काँग्रेस ने सावरकरजी से बैर साध लिया । सावरकरजी को अवमानित और उनकी अपकीर्ति करने की कुटिल चाल काँग्रेस ने चली । ‘सावरकरजी की अपकीर्ति किए बिना हिन्दुस्थान की जनता हमारा साथ नहीं देगी और यदि सावरकरजी का राष्ट्रवाद स्वीकारते हैं, तो मुसलमानों का समर्थन नहीं मिलेगा और अपना श्रेष्ठत्व भी समाप्त हो जाएगा’, इसकी निश्चिती काँग्रेस को थी और है ।
अपना अस्तित्व टिकाने की विकृत मनोवृत्ति के कारण काँग्रेस को राष्ट्रघातक विचारधारा का समर्थन करने के अतिरिक्त और कोई भी पर्याय नहीं सूझा । सावरकरजी से वैचारिक प्रतिवाद कर उनका पराभव करने की सावरकरजी समान प्रखर राष्ट्रनिष्ठा, देश के विजय की ऐतिहासिक परंपरा और प्राणों का बलिदान देकर भी स्वत्व टिकाने के लिए आवश्यक प्रखर प्रतिकारनिष्ठा का अभाव काँग्रेस में है । किसी भी परिस्थिति में वे सावरकरजी से स्पर्धा नहीं कर पाएंगे; इसलिए सावरकरजी की अपकीर्ति करने का बारंबार प्रयत्न किया जा रहा है, यह ध्यान में आया और उनका निर्दोषत्व सिद्ध करने के लिए उनकी विचारधारा को सातत्य से बताते रहना, इसे ही हमने अपना राष्ट्रीय कर्तव्य माना है ।
३. धर्म-अध्यात्म, राष्ट्रभक्ति के प्रसार के कार्य में लेखन के माध्यम से अमूल्य योगदान !
‘वीर सावरकर के विचार और आचार समझकर उनके द्वारा पढे हुए ग्रंथों का हमें भी अभ्यास करना चाहिए’, ऐसा मार्गदर्शन आदरणीय ज.द. जोगळेकर ने हमें किया । इस मार्गदर्शनानुसार जितना संभव हो, उतना अभ्यास करने का प्रयत्न हमने किया । सावरकरजी ने ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ ग्रंथों का परीक्षण किया । उनकी तीव्र इच्छा थी कि यह वेदामृत सभी को उपलब्ध होना चाहिए । सावरकरजी विज्ञाननिष्ठ थे, तब भी उनकी विज्ञानदृष्टि यह मानती थी कि प्रकृति के चमत्कार, ये सृष्टि द्वारा विज्ञान के समक्ष रखे आवाहन हैं !
‘मुझे मृत्यु से भय नहीं लगता; कारण श्रीकृष्ण का पहचानपत्र मेरे पास है’, ऐसा सावरकरजी ने ‘मृत्युशय्येवर’ (मृत्युशैय्या पर) इस कविता में स्पष्टरूप से कहा है । इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा था ‘आइ नो हाउ टू एंड माइ लाईफ’ ! उन्हें भी संतों समान अपने जीवन का समापन करना था । ‘प्रायोपवेशन’ (अन्न, जल और औषदि का त्याग करने से होनेवाली मृत्यु) कर सावरकरजी ने संतों समान मार्गक्रमण किया । उन्होंने अध्यात्मशास्त्र की भी अनदेखी नहीं की, यह बात भी उतनी ही सत्य है । यह ध्यान में रखते हुए ही रामायण और महाभारत का अभ्यास हमने किया है ।
‘सहा सोनेरी पाने’ इस मराठी ग्रंथ (छ: सुनहरे पन्ने) की ‘सद्गुण विकृती’ इस प्रकरण में सावरकरजी ने श्रीकृष्ण और श्रीराम उदाहरण दिए हैं । इतना ही नहीं, अपितु सावरकरजी कहते हैं, ‘प्रभु रामचंद्र पहले हिन्दूसम्राट हैं ।’ श्रीराम और श्रीकृष्ण का चरित्र उन्हें राजकीयदृष्टि देने में उपयुक्त सिद्ध हुआ और इसका प्रभाव सावरकरजी के विचारों पर पडा ।
४. समाज में राष्ट्रप्रेम की बीज बोना, हिन्दुओं में जागृति और धर्माभिमान करनेवाला लेखन की प्रेरणा
वीर सावरकरजी का श्रीराम और श्रीकृष्ण समान ही छत्रपति शिवाजी महाराज भी उपास्यदेवता थे । छत्रपति शिवाजी महाराजजी ने अपने साथियों और सहयोगियों में तेजस्वी राष्ट्रभक्ति जागृत की । समर्थ रामदासस्वामी ने अपने कार्य के लिए उपयुक्त विचार हिन्दू समाज में गहराई तक अंकित किए । ‘मारिता मारिता मरेपर्यंत झुंजेन’ (अर्थात मारते-मारते मृत्यु आने तक लडेंगे), ऐसी लढाऊ वृत्ति, यह प्रतिकारनिष्ठा छत्रपति के हिन्दवी स्वराज्य की शपथ के लिए पूरक सिद्ध हुई । ‘हिन्दू पदपादशाही’ नामक ग्रंथ में सावरकर ने यही सूत्र प्रस्तुत किए ।
छत्रपति शिवाजी ने ‘यह देश मेरा है । यह राष्ट्र मेरा है; इसलिए इस राष्ट्र के संरक्षण और संवर्धन का दायित्व मुझ पर है’, यह भावना मावळों में निर्माण की । इसीलिए ‘घर में किसी भी शुभकार्य की तुलना में राष्ट्रीय कर्तव्य अधिक श्रेष्ठ है’, इसका भान सर्वसामान्य मावळों के अंत:करण में गहराई तक अंकित था । इसीलिए ‘आधी लगीन कोंढाण्याचे आणि मग माझ्या रायबाचे !’ (पहले विवाह कोंढाणा किले का फिर मेरे बेटे रायबा का अर्थात कोंढाणा किले के युद्ध से सकुशल लौट आया तब अपने बेटे रायबा का विवाह करूंगा), असे सहज उद्गार सरदार तानाजी मालुसरे के मुख से निकले । छत्रपति संभाजी महाराज ने तो राष्ट्र और धर्म के लिए अपने प्राणार्पण तक कर दिए । उनकी देह के टुकडे-टुकडे कर दिए गए; परतुं उनकी राष्ट्र और धर्म निष्ठा तनिक भी कम नहीं हुई । मृत्यु के भय से भी वे पीछे नहीं हटे ।
प्रखर राष्ट्रभक्ति मृत्यु पर मात करने की प्रेरणा देता है । सावरकरजी ने अंदमान में अनंत यातनाएं सहन कीं । आत्महत्या करने का विचार सावरकरजी के मन में भी आया; परंतु उन्होंने उस पर विजय पाई । हिन्दुस्थान के तेजस्वी इतिहास में ये उदाहरण राष्ट्र के लिए संगठित होकर राष्ट्ररक्षा की प्रेरणा देते हैं, इसके साथ ही वीरगति के लिए भी मन की पूरी तैयारी करवा लेते हैं । ‘आत्मा अमर है और उसे शस्त्र भी नष्ट नहीं कर सकती । पानी उसे भिगो नहीं सकता । अग्नि जला नहीं सकती और न ही वायु उसे सुखा सकती है । ‘भगवद्गीता’की यह सीख सभी क्रांतिकारियों ने आत्मसात् की थी । ये प्रेरणादायी विचार ही धर्माभिमान जागृत करने में उपयुक्त हैं । इसपर दृढ विश्वास होने से उसका आधार लेकर राष्ट्र और धर्म अभिमान जगाने का कार्य हो सका ।
‘सनातन संस्था की ओर से किए गए आंदोलनों में सम्मिलित होने के लिए इन्ही विचारों ने प्रवृत्त किया । यह बात विनम्रतापूर्वक बताने में मुझे गर्व हो रहा है । जैसा कि सावरकरजी कहते हैं, यह राष्ट्रीय कार्य का व्रत है । ‘देह में प्राण रहने तक कर्तव्य के रूप में’, इस व्रत का पालन करना है ।