साधकों की शंकाओं का समाधान कर उन्हें साधना के लिए प्रोत्साहित करनेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का अमूल्य मार्गदर्शन !

परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने वर्ष १९९० से अध्यात्मप्रसार का कार्य आरंभ किया । उसके अंतर्गत उन्होंने ‘आनंदप्राप्ति हेतु साधना’ विषय पर अभ्यासवर्ग लेना, विभिन्न ग्रंथों का संकलन करना, अनेक बडे प्रवचन करना’ जैसी विभिन्न पद्धतियां अपनाई हैं । आरंभ से ही ‘जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान करना’ तथा ‘अच्छा साधक कैसे बनें ?’, इस विषय में मार्गदर्शन करना उनके कार्य का एकमात्र उद्देश्य था । ‘साधना के संबंध में साधकों की समस्याएं समझ लेना तथा उनका समाधान कर उन्हें उपाय बताना’ उनके कार्य का एक अभिन्न अंग है । ‘बालक तोतले बोल बोले, तब भी माता समझ जाती है ।’ इस कहावत के अनुसार साधकों की साधना से संबंधित समस्याएं परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के तुरंत ध्यान में आती हैं तथा वे उन्हें उसके अचूक उपाय भी बताते हैं’, इसकी अनेक साधकों ने अनुभूति की है । इस लेख में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा विभिन्न स्थानों पर किए गए मार्गदर्शन में समाहित कुछ चयनित सूत्र यहां दिए गए हैं ।

(भाग १)

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवले

१. ‘मुझे ईश्वरप्राप्ति करनी है’, इस निश्चय के साथ साधना के प्रयास करने से चूकें नहीं होती ! 

एक साधिका : कुछ वर्ष पूर्व कुछ साधकों से चूकें होने से उन्हें व्यष्टि साधना करने के लिए आश्रम से घर जाने के लिए कहा गया । उस समय वे युवा थे, उसके कारण उन्हें नौकरी अथवा काम मिल सकता है; परंतु अब यदि कुछ मध्यम आयु के साधक आश्रम में आए, उनसे कुछ चूकें हुईं तथा उन्हें यदि घर जाने के लिए कहा गया, तो उस आयु में उन्हें नौकरी मिलना संभव ही नहीं है, तो ऐसी स्थिति में वे क्या करें ?

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : जब हमारा यह निश्चय होता है, ‘मुझे ईश्वरप्राप्ति करनी है’, तब हम से चूकें नहीं होतीं । ईश्वर प्रत्येक बार हमारी सहायता करते हैं । प्रत्येक कृति अन्यों से पूछकर की, तो चूक होगी कैसे ? हमने यदि साधकों के बताए अनुसार किया, तो उससे हमारी साधना होती है । साधकों ने हमारी चूक बताई, तो उसे स्वीकार करना ! आश्रम में सैकडों साधक हैं, उन्हें ऐसा करना संभव होता है, तो आपको क्यों नहीं संभव होगा ?

आश्रम में २४ घंटे सात्त्विक वातावरण होता है । जब हम घर पर होते हैं, तब हमारे मन में माया से संबंधित कुछ न कुछ विचार चलते ही रहते हैं, माया से संबंधित बातें होती हैं तथा पडोसी होते हैं; परंतु आश्रम में केवल साधना करनेवाले साधक होते हैं ।

२. अन्यों के मन को समझ में आए, इस प्रकार साधना बताना तथा सिखाना साधना में आगे बढने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है !

एक साधिका : जब मैं कॉलेज में नौकरी करती थी, तब मैं सनातन के सात्त्विक उत्पादों का वितरण करती थी । अब मकर संक्रांति के समय पर उपहार देते समय मैं सनातन के उत्पाद देती हूं तथा सनातन पंचांग का वितरण करती हूं । इस प्रकार मेरी थोडी-बहुत सेवा होती है । मुझे साधना में और आगे जाने के लिए क्या करना चाहिए ?

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : यह केवल वितरण करना हुआ; परंतु सबसे महत्त्वपूर्ण क्या है ? वितरण करना पैसों से संबंधित है । हम तन-मन-धन की बात करते हैं । मन से संबंधित क्या है ? अन्यों के मन को समझ में आए, इस प्रकार साधना बताना तथा सिखाना ! सामनेवाले व्यक्ति ने २ वस्तुएं लीं, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, अपितु सत्संग लेना अधिक महत्त्वपूर्ण है । हमारे जो इतने साधक संत बन चुके हैं तथा कुछ संत बनने की ओर अग्रसर हैं, तो यह कैसे ?, प्रत्येक साधक यही करता है । वह धर्मसत्संग लेता है तथा लोगों को सिखाता है । आया न ध्यान में ?

३. अच्छा साधक बनने के लिए  संत एवं गुरु जो बताते हैं, वैसा करना महत्त्वपूर्ण है !

एक साधक : अच्छा साधक अथवा शिष्य बनने के लिए क्या प्रयास करने चाहिए ?

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : अच्छा साधक अथवा शिष्य कहता है, ‘गुरु ने बताया, वह मैं करूंगा ।’ उसके कारण उसका मनोलय होता है । मन नष्ट हो जाता है । बुद्धिलय होता है अर्थात बुद्धि नष्ट हो जाती है । तो शेष क्या बचा ? अंत में क्या होना आवश्यक है ? हमें कुछ सुनिश्चित नहीं करना है । साधक, संत एवं गुरु जो बताते हैं, वह करना है । उसके कारण हम ईश्वर के निकट पहुंचते हैं । मोक्ष की दिशा में हम अग्रसर होते हैं । शरीर को एक न एक दिन छोडना है, उसका तो हमें विचार ही नहीं करना है । केवल मनुष्यजीवन में हम तथा केवल साधक ही मनोलय एवं बुद्धिलय कर सकता है । ‘दूसरा बताए, वह सुना । उसके विषय में मन में प्रश्न ही नहीं है ।’ तो उसके मन में ‘क्यों ? किसलिए बता रहा है ?’, ये विचार नहीं आते । सामनेवाले की बात सुनने से हमारा मनोलय होता है । यदि हम ‘क्यों ?’ और ‘कैसे ?’, इसका ही विचार करते रहे, तो मान लें कि हम ‘अभी भी मन के स्तर पर फंसे हुए हैं तथा अच्छे साधक नहीं बने हैं ।’

४. ईश्वर के प्रति हमारी श्रद्धा बढी, तो  ईश्वर निश्चित ही हमारा ध्यान रखते हैं !

एक साधिका : ‘पहले देवद (पनवेल) में स्थित सनातन के आश्रम के पास ही हमारा आवास था । उसके कारण नौकरी से घर आने पर मैं सेवा के लिए देवद आश्रम जाती था । कोरोना काल में हम गांव गए थे । गांव से लौटने पर हम नए घर में रहने गए । वर्तमान में मैं वहां रहती हूं, जो स्थान आश्रम से बहुत दूर है । उसके कारण आने-जाने में अर्थात यात्रा से मुझे बहुत कष्ट होता है । उसके कारण मेरी समष्टि साधना नहीं होती । मुझे अब क्या करना चाहिए ? अब हम आश्रम के पास ही घर देख रहे हैं । मैं नौकरी करती हूं ।

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : हां ! परंतु आगे ईश्वर हैं न ! ईश्वर के प्रति श्रद्धा बढ गई, तो वे देख लेंगे; ऐसा सब होता है ।

एक साधिका : अब हमारा यह विचार चल रहा है कि आश्रम के पास ही घर लें । पहले नौकरी से लौटने के उपरांत मैं प्रतिदिन दोपहर ४ से रात ८ बजे तक अनाज से संबंधित सेवा करती थी । अब हमारी वही नियोजन चल रहा है कि आश्रम के पास घर लेकर सेवा में पुनः लौटें ।

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी : आपने ईश्वर की सेवा की, तो क्या वे आपका ध्यान नहीं रखेंगे ?

(क्रमश:)