साधना करने के कारण मृत्यु के उपरांत साधक को दैवी गति प्राप्त होना तथा जीवन में साधना का महत्त्व !

श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी का अनमोल विचारधन !

 ‘एक साधक की मृत्यु हुई । एक संत ने उस साधक के विषय में बताया, ‘‘मृतक साधक का दो वर्ष उपरांत साधना करने के लिए पुनः जन्म होगा ।’ इसमें आश्चर्य की बात यह है कि ‘मृत्यु के उपरांत पुनः जन्मा वह साधक ७-८ वर्षाें की अवधि के उपरांत श्राद्धमाह में उसी संत के स्वप्न में दिखाई दिया । उस समय भी वह साधक सेवा ही कर रहा था’, ऐसा एक प्रसंग श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ने मुझे बताया ।

श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ

१. साधक की मृत्यु होने पर उसे साधना का पुनः एक बार अवसर मिले; इसके लिए ईश्वर उसे अच्छे वंश में जन्म दिलाते हैं; परंतु जीव साधना करनेवाला न हो, तो उसे मनुष्यजन्म लेने में अनेक वर्षाें का काल लग सकता है 

यह प्रसंग सुनकर मैंने जिज्ञासा से उनसे प्रश्न पूछा, ‘‘साधकों को पुनः-पुनः जन्म क्यों लेना पडता है ?’’ इसपर श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ने कहा, ‘‘मृतक जीव यदि पिछले जन्म में साधना करनेवाला हो, तो उसे पुनः एक बार साधना का अवसर मिले; इसके लिए ईश्वर उसे अच्छे वंश में जन्म देते हैं । यह उसपर ईश्वर की कृपा ही होती है । ईश्वर यह भी देखते हैं कि जिस वंश में उसका जन्म होना है, वह उसकी साधना के लिए पोषक हो । यह उस जीव के पिछले जन्म की साधना का पुण्य होता है; परंतु कोई जीव साधना न करनेवाला हो, तो उसे पुनः मनुष्यजन्म लेने में अनेक वर्षाें की अवधि लग सकती है । इस मध्य के काल में वह कीडा, चींटी, पशु-पक्षी जैसी अनंत योनियों में भ्रमण करता है । अनंत बार मृत्यु को प्राप्त होता है । अनंत भोग भोगता है; परंतु साधना करनेवाले जीव का ऐसा नहीं होता । ईश्वर उसे ‘बोनस’ के रूप में तुरंत मनुष्यजन्म दे सकते हैं; क्योंकि अन्य योनियों की तुलना में मनुष्यजन्म में तुरंत साधना कर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होना संभव होता है ।

२. पूर्वजन्म में मन एवं बुद्धि को जो सूक्ष्म संस्कार मिले होते हैं, उसके अनुसार उसे मृत्यु के उपरांत आगे की गति मिलती है 

मृत्यु को प्राप्त जीव के चित्त पर उसके पूर्वजन्म के संस्कार होते हैं । इन संस्कारों में पूर्वजन्म के दोष तथा अहं के संस्कार भी समाए होते हैं । मृत्यु के उपरांत की योनि में भ्रमण करते हुए उसके अनेक जन्म हो जाते हैं । पूर्वजन्म की बुद्धि, स्वभावदोष तथा अहं के संस्कार से दूषित मन की चादर को वैसे ही आत्मा पर ओढकर सामान्य व्यक्तियों के पुनः-पुनः जन्म होते हैं । जब जीव मनुष्ययोनि में पुनः जन्म लेता है, उस समय पूर्वजन्म में उसने जो शिक्षा ग्रहण की थी, जो धन-संपत्ति अर्जित की थी, उसे साथ लेकर वह पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु पूर्वजन्म में उसके मन एवं बुद्धि को जो सूक्ष्म संस्कार मिले होते हैं, उन्हीं को साथ लेकर उसका जन्म होता है अथवा मृत्यु के उपरांत उसे उस प्रकार की गति प्राप्त होती है । मनुष्य संबंधित जन्म में उसके कर्माें के भोग भोगता है ।

३. जीवनभर साधना करने का महत्त्व

इससे यह भी ध्यान में आता है कि ‘मात्र जन्म लेने से भी नहीं चलता, अपितु ‘पूर्वजन्म में की हुई साधना के संस्कारों के साथ जन्म लेना’ महत्त्वपूर्ण है । उसके लिए इसी जन्म में साधना कर ‘स्वभावदोष एवं अहं’ का निर्मूलन करना अनिवार्य है । यदि जीवनभर साधना की, तभी अंतिम समय में भगवान के नाम का स्मरण होता है । अंतिम समय आने पर गुरु भी उस साधक के पास सूक्ष्म से उपस्थित होते हैं । गुरु की उपस्थिति के कारण साधक को ले जाने के लिए यमदूत नहीं, अपितु देवदूत आते हैं । देवदूतों के स्पर्श से उस जीव को दैवी गति प्राप्त होती है । इस दैवी गति के कारण वह जीव मार्ग में कहीं भी बिना अटके उसके साधना के पुण्य के बल पर सीधे महर्लाेक, जनलोक अथवा तपलोक भी जा सकता है, अर्थात  ‘इस पृथ्वीवर साधना कर पुनः इस भूलोक में मेरा पुनः जन्म न हो’, यह स्थिति आवश्यक है ।’

– श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा