‘आरोग्यम् धनसंपदा ।’
सायंकाल में दीप जलाने के समय भगवान से श्लोकरूपी प्रार्थना करते समय हमने अनेक बार ‘आरोग्यम् धनसंपदा’, इस शब्द का उल्लेख किया है अथवा सुना है । दीप जलाने के समय श्लोक बोलने की पद्धति भले ही भारत में विलुप्त हो रही है, तब भी स्वास्थ्य धनसंपत्ति है, यह बात अब पाश्चात्यों के ध्यान में आ रही है । प्राचीन काल से लंबे समय से सुखकारक एवं स्वास्थ्यमय जीवन व्यतीत करने हेतु मनुष्य परिश्रम उठा रहा है । उसके लिए वह भिन्न-भिन्न ‘टॉनिक्स’, शक्तिवर्धक औषधियां तथा यौवन टिकाए रखनेवाली औषधियों का निरंतर शोध करते आया है ।
अंग्रेजी में ‘बीमारी न हो; इसके लिए प्रयास करना बीमारी होने के पश्चात उपाय करने की अपेक्षा श्रेष्ठ है (Prevention is better than cure.)’, इस आशय की एक कहावत है । ‘बीमारी न हो, इसके लिए नित्य जीवन में आहार, विहार (क्रिया) इत्यादि कैसे होने चाहिए’, यह प्रत्येक मनुष्य को ज्ञात होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । यह समझने के लिए ही, प्रतिवर्ष २१ जून को मनाए जानेवाले अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के उपलक्ष्य में इस अंक का प्रयोजन है !
‘आयुर्वेद अर्थात वेद अथवा मानवीय जीवन का शास्त्र ! उसमें शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य कैसे बनाए रखना चाहिए ?, इसका मार्गदर्शन किया है । जीवन के लिए हितकारी एवं अहितकारी आहार, विहार एवं आचार का विवेचन किया है । मानवीय जीवन का ध्येय तथा वास्तविक सुख किसमें है, इसका भी विचार किया है । इसके साथ ही बीमारियों के कारण, लक्षण, उपचार तथा बीमारी ही न हो; इसके लिए उपाय दिए हैं । केवल इसी जन्म में नहीं, अपितु अगले जन्मों में भी सर्वांगीण उन्नति कर मनुष्य जीवन का अंतिम ध्येय ‘दुखों से शाश्वत मुक्ति तथा सच्चिदानंद स्वरूप की निरंतर अनुभूति’ कैसे प्राप्त की जाए ?, इसका भी मार्गदर्शन आयुर्वेद ने किया है । संक्षेप में कहा जाए, तो मानवीय जीवन का सर्वांगीण विचार करनेवाला तथा सफल, पुण्यमय, दीर्घ एवं स्वास्थ्यमय जीवन कैसे व्यतीत करना चाहिए ?, इसका मार्गदर्शन करनेवाला शास्त्र है आयुर्वेद ! अपना स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए सभी को आयुर्वेद में दिए स्वास्थ्य संबंधी नियम, दिनचर्या एवं ऋतुचर्या को समझ लेना आवश्यक है ।
मोक्षप्राप्ति – आयुर्वेद का अंतिम ध्येय !
केवल बीमारी से नहीं, अपितु भवरोगों से अर्थात जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त कर मनुष्य को दुख से स्थायी रूप से मुक्त कराना तथा उसे सच्चिदानंद स्वरूप की, अर्थात मोक्ष की प्राप्ति करवाना ही आयुर्वेद का अंतिम ध्येय है । चरकाचार्य कहते हैं, ‘प्रत्येक व्यक्ति योगसाधना कर मोक्ष प्राप्त करे ।’
योगे मोक्षे च सर्वासां वेदनानामर्वतनम् योगो मोक्षप्रवर्तकः ।
आयुर्वेद का केंद्रबिंदु
मनुष्य आयुर्वेद का केंद्रबिंदु है । मनुष्य के लिए ही आयुर्वेद उत्पन्न हुआ है । आयुर्वेद ने उत्साहित एवं स्वास्थ्यसंपन्न जीवन जीने के लिए उत्कृष्ट मार्गदर्शन किया है । उसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन योजनापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिए । सवेरे जागने से लेकर रात में सोने तक हमारे नित्य व्यवहार शास्त्रोक्त एवं संस्कारयुक्त ही हों, इसपर आयुर्वेद ने बल दिया है तथा शरीर का प्रत्येक अंग स्वास्थ्यसंपन्न बना रहे, उसके लिए क्या उपाय करने चाहिए, इसका शास्त्रोक्त विवेचन भी किया है ।
‘विश्व स्वास्थ्य संगठन की भी स्वास्थ्य की परिभाषा केवल बीमारी न होना, यह न होकर सर्वाेपरि अर्थात ही शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य ही सुखसंवेदना का अनुभव करने की अवस्था ही स्वास्थ्य है, यही है !
१. शारीरिक स्वास्थ्य
सुदृढ, बलवान, स्वस्थ शरीर, तेजस्वी आंखें, कांतिमान त्वचा, तेजस्वी केश, अच्छी भूख, शांत नींद, सांस, मूत्रविसर्जन, शौच, जोडों की हलचल, अन्य अंगों की तथा सभी इंद्रियों के कार्य सुचारु तथा सुलभ पद्धति से होना शारीरिक स्वास्थ्य के लक्षण हैं ।
२. मानसिक स्वास्थ्य
अ. मन में किसी प्रकार का दुःख अथवा तनाव न होना
आ. काम, क्रोधादि षड्रिपुओं पर नियंत्रण होना
इ. अपने ज्ञान में निरंतर वृद्धि कर प्रत्येक कृति कुशलतापूर्वक तथा उत्साह के साथ करना, माता-पिता, वरिष्ठ एवं संतों के प्रति आदर रखना
३. सामाजिक स्वास्थ्य
हम समाज का एक घटक हैं । यदि समाज सुखी हो, तभी हम सुखी होंगे; इसे समझकर समाज की उन्नति एवं कल्याण के लिए परिश्रम उठाने की मनोवृत्ति होना
अ. किसी के प्रति द्वेष अथवा जलन न रखकर सभी के प्रति प्रेम एवं मित्रता प्रतीत होना
आ. अपनी क्षमता के अनुसार अन्यों की सहायता करना
इ. चूक के लिए अन्यों को क्षमा करना
ई. समाजकार्य के लिए प्रतिदिन थोडासा समय तथा धन देना
४. आध्यात्मिक स्वास्थ्य
निरंतर सच्चिदानंद स्वरूप में बने रहने के लिए, स्वार्थ छोडकर तथा सभी विषयों के प्रति आसक्ति छोडकर निष्काम बुद्धि से समाजकार्य अथवा भगवद्भक्ति करनी चाहिए । ‘ठेविले अनंते तैसेचि रहावे । चित्ति असू द्यावे समाधान ।।’ अर्थात जो स्थिति है, उसमें सदैव संतुष्ट रहना चाहिए ।’
– संदर्भ : सनातन का मराठी ग्रंथ ‘आयुर्वेद के मूलतत्त्व’
आहार में ‘सैलड’ का समावेश सीमित होना चाहिए !‘कुछ लोग आहार नियंत्रण (डाएटिंग) के नाम पर केवल सैलड खाते हैं । कुछ लोग चावल अथवा रोटी जैसे पिष्टमय पदार्थ अत्यंत अल्प खाते हैं तथा सैलड प्रचुर मात्रा में खाते हैं । ऐसा करना अनुचित है । सैलड का अधिक मात्रा में सेवन करने से शरीर में समाहित अग्नि (पाचन शक्ति) धीमी पड जाती है । हमारी परंपरा के अनुसार भोजन के बरतन में भोजन करनेवाले की बाईं ओर परोसे जानेवाले पदार्थ अल्प मात्रा में अथवा केवल स्वाद लेने तक सीमित खाने होते हैं । नींबू, नमक, विभिन्न चटनियां, सैलड, अचार, ये पदार्थ बरतन की बाईं ओर परोसे जाते हैं । अतः सैलड का अतिरेक टालना चाहिए ।’ |
प्रतिदिन के दिनक्रम में पालन करनेयोग्य कुछ नियम
१. सवेरे ६ बजे से पहले उठ जाएं । पेट साफ होने के पश्चात ही कोई आहार अथवा तरल पदार्थ का सेवन करें ।
२. अल्पाहार सभी के लिए अनिवार्य नहीं है । कफ प्रकृति, अपचन, भूख न लगी हो तथा धूप-वर्षा के मौसम में अल्पाहार न करें; परंतु ऐसी स्थिति में दोपहर १ बजे से पूर्व भोजन करें ।
३. भोजन करने पर पेट भारी लगता हो, आयु के अनुसार पाचनक्षमता क्षीण हुई हो, बवासीर आदि शिकायतें हों, तो भोजन से पूर्व अदरक-सैंधव खाएं ।
४. गरम पदार्थ खाने के उपरांत तुरंत ही ठंडे पदार्थ अथवा ठंडे पदार्थ के तुरंत उपरांत गरम पदार्थ, दही को गरम कर अथवा शहद गरम पानी में लेना टालें ।
५. वर्तमान समय में सभी काम खडे रहकर अथवा ऊंचाई पर बैठकर होने के कारण कुछ समय तक स्मरणपूर्वक भूमि पर बैठें । आगे-पीछे झुकना, सूर्यनमस्कार, घुटने तथा रीढ के व्यायाम अवश्य करें ।
६. सायंकालीन भोजन ७.३० बजे से पहले करना अच्छा ! इस भोजन का शीघ्र पाचन होता हे तथा प्रमेह, हृदयरोग जैसी आहार-विहार से संबंधित बीमारियां नहीं होती
– वैद्या (श्रीमती) स्वराली शेंड्ये, यशप्रभा आयुर्वेद, पुणे