नवरात्रि का शास्त्र एवं इतिहास

‘हिन्दू धर्म में भगवतीदेवी की विशेष आराधना प्रतिवर्ष दो बार की जाती है ।

अ. वासंतिक नवरात्रि : चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल नवमी तक

आ. शारदीय नवरात्रि : आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आश्विन शुक्ल नवमी तक

शरद ऋतु में किए जानेवाले देवीपूजन को ‘अकाल पूजा’ एवं वसंत ऋतु में किए जानेवाले देवीपूजन को ‘सकाल पूजा’ कहते हैं । शरद ऋतु में ‘देवरात्रि’ होती है, इसलिए इस काल में की जानेवाली पूजा को अकाल पूजा कहते हैं । तांत्रिक साधना करनेवालों की दृष्टि से ‘रात्रि’ का काल महत्त्वपूर्ण होता है । ऐसी कई प्रकार की रात्रि होती है, उदा. कालरात्रि, शिवरात्रि, मोहरात्रि, वीररात्रि, दिव्यरात्रि, देवरात्रि आदि । इन रात्रि में भगवती को जागृत करना आवश्यक होता है; परंतु वासंतिक पूजा में जागृत करना आवश्यक नहीं होता ।’ शारदीय नवरात्रि अधिक प्रचलित है । इसलिए इसी नवरात्रि संबंधी जानकारी यहां दी है ।

‘रात्रि’ अर्थात हो रहा परिवर्तन । देवी का एक नाम ‘कालरात्रि’ है । ‘कालरात्रि’ अर्थात कालपुरुष में परिवर्तन करनेवाली । घूमना पृथ्वी का गुणधर्म है । पृथ्वी के घूमने से परिवर्तन होते हैं; अर्थात, रात्रि एवं दिवस होते हैं । ऐसे परिवर्तन सहने की क्षमता प्राप्त करने हेतु व्रत किए जाते हैं ।

इतिहास

श्रीरामचंद्रजी के हाथों रावण का वध हो, इस उद्देश्य से नारदमुनि ने श्रीराम को नवरात्रि का व्रत करने के लिए बताया । तत्पश्चात यह व्रत पूर्ण कर श्रीराम ने लंका पर चढाई कर, रावण का वध कर दिया ।

महत्त्व

जब-जब विश्व में तामसी, असुरी एवं क्रूर लोग प्रबल होकर सात्त्विक एवं धर्मनिष्ठ सज्जनों का छल करते हैं, तब-तब देवी धर्मसंस्थापना हेतु पुनः अवतार लेती हैं । उस देवी का यह व्रत है ।

प्रांतभेद

नवरात्रों में गुजरात में मातृशक्ति के प्रतीकस्वरूप अनेक छिद्रोंवाले मिट्टी के कलश में रखे दीप को पूजा जाता है । स्त्री की सृजनशक्ति का प्रतीक मानकर नौ दिन पूजे जानेवाले ‘दीपगर्भ’ के ‘दीप’ शब्द का लोप होकर गर्भ-गरभो-गरबो अथवा गरबा शब्द प्रचलित हुआ ।

भावार्थ :  असुर शब्द की व्युत्पत्ति है – ‘असुषु रमन्ते इति असुरः ।’ अर्थात जो ‘प्राणों में ही, भोगों में ही रमते हैं, वे असुर हैं ।’ ऐसे महिषासुर का आज प्रत्येक मनुष्य के हृदय में वास है । उसने मनुष्य की आंतरिक दैवीवृत्ति पर अधिकार प्रस्थापित किया है । महिषासुर की माया पहचानकर उसके आसुरी बंधन से मुक्त होने के लिए शक्ति की उपासना करने की आवश्यकता है । इसलिए नवरात्रि के नौ दिन शक्ति की उपासना करनी चाहिए । दशमी पर विजयोत्सव मनाएं । इसे ‘दशहरा’ कहते हैं ।

(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘शक्ति की उपासना’)