झारखंड राज्य का विश्वविख्यात श्री छिन्नमस्तिका देवी का अति प्राचीन मंदिर !
इस वर्ष ३ से १२ अक्टूबर की अवधि में शारदीय नवरात्रोत्सव मनाया जानेवाला है । इसके उपलक्ष्य में भारत की श्री छिन्नमस्तिका देवी एवं श्री ज्वालादेवी के प्रसिद्ध एवं प्राचीन मंदिरों का इतिहास, उनका महत्त्व, छायाचित्र, साथ ही नवरात्रोत्सव का अध्यात्मशास्त्र इत्यादि की जानकारी दे रहे हैं । इस माध्यम से पाठकों में देवी के प्रति भक्ति बढे, जगत्जननी श्री जगदंबामाता के चरणों में यही प्रार्थना है !
झारखंड की राजधानी रांची से ८० किलोमीटर की दूरी परी स्थित रामगढ जिले के रजरप्पा गांव में श्री छिन्नमस्तिका देवी का विश्वविख्यात मंदिर है । यह मंदिर भारत के प्राचीन मंदिरों में से एक है तथा यह मंदिर भैरवी एवं दामोदर नदियों के संगम पर स्थित है ।
मंदिर की स्थापना का इतिहास
इस मंदिर की स्थापना ६ सहस्र वर्ष पूर्व हुई थी । भारत में जब मुगलों का शासन था, उस समय अनेक बार उन्होंने इस मंदिर को ध्वस्त करने का प्रयास किया; परंतु उसमें वे सफल नहीं हुए । भारत में अंग्रजों के कार्यकाल में अंग्रेज भी देवी के दर्शन हेतु आते थे ।
श्री छिन्नमस्तिका देवी की मूर्ति !
मंदिर में देवी की स्वयंभू मूर्ति है । मंदिर की रचना वृत्ताकार गुंबद की भांति है, साथ ही पूर्व में मंदिर का प्रवेशद्वार है तथा देवी की मूर्ति दक्षिणमुखी है । मंदिर में उत्तर की दिशा में स्थित शिलाखंड पर देवी के ३ नेत्र हैं । देवी के गले में सर्पमाला एवं मुंडमालाएं हैं । राक्षसों का नाश करनेवाली होने से इस देवी के केश खुले हैं तथा जीभ बाहर है । देवी के दाहिने हाथ में तलवार तथा बाएं हाथ में स्वयं का सिर है, साथ ही दोनों बाजुओं में ‘डाकिनी’ एवं ‘शाकिनी’ देवियां हैं । देवी के शरीर से रक्त की ३ धाराएं बाहर निकल रही हैं तथा ‘डाकिनी’ एवं ‘शाकिनी’ ये दोनों देवियां दो धाराओं से रक्तपान करती हैं, जबकि एक धार से स्वयं छिन्नमस्तिका देवी रक्तपान कर रही हैं ।
श्री छिन्नमस्तिका देवी की उत्पत्तिसहस्रों वर्ष पूर्व राक्षस एवं दानवों के कारण मनुष्य तथा देवता भयभीत थे । उस समय मनुष्यों ने देवी को पुकारा, उस समय माता पार्वती छिन्नमस्तिका देवी के रूप में प्रकट हुईं तथा उन्होंने खड्ग से असुरों का संहार किया । देवी अन्न-पानी ग्रहण करना भूलकर केवल दुष्टों का संहार कर रही थीं, उसके कारण रक्त की नदियां बहने लगीं । देवी ने अपना प्रचंड स्वरूप धारण किया था । उससे देवी को ‘प्रचण्डचण्डिका’ नाम भी प्राप्त हुआ । दुष्टों का संहार होने के उपरांत भी देवी का क्रोध शांत नहीं हो रहा था । उस समय भयभीत देवताओं ने भगवान शिव से प्रार्थना की, ‘आप देवी के प्रचंड रूप को शांत करें, अन्यथा पृथ्वी नष्ट हो जाएगी !’ देवताओं की इस प्रार्थना के उपरांत भगवान शिव देवी के पास गए । उस समय देवी ने भगवान शिव से कहा, ‘‘हे भगवान, मुझे बुहत भूख लगी है, उसके निवारण हेतु मैं क्या करूं ?’’ तब भगवान शिव ने उनसे कहा, ‘‘हे देवी, आप संपूर्ण ब्रह्मांड की देवी हैं । आप स्वयं ही शक्ति हैं । आप स्वयं ही खड्ग से अपनी गर्दन काटकर उससे बहनेवाला शोनित (रक्त) पान करें, तो उससे आपकी भूख शांत हो जाएगी ।’’ यह सुनते ही देवी ने तुरंत अपनी गर्दन काटकर उसे अपने बाएं हाथ में ले लिया । मस्तक एवं गर्दन अलग होने पर उससे रक्त की ३ धाराएं बहने लगीं । देवी की बाईं तथा दाहिनी ओर स्थित डाकिनी एवं शाकिनी देवियों ने उनमें से दो धाराओं से, जबकि स्वयं देवी ने शेष एक धारा से बहनेवाला रक्त पान किया । इससे देवी तृप्त हुईं । |
मंदिर की कुछ अन्य विशेषताएं
१. पूर्णिमा एवं अमावस्या की तिथियों पर मंदिर मध्यरात्रि तक खुला रहता है ।
२. असम की कामाख्या देवी तथा बंगाल की तारादेवी के उपरांत झारखंड का यह छिन्नमस्तिका देवी का मंदिर तांत्रिक साधना करनेवालों का मुख्य स्थान है ।
३. देश-विदेशों से अनेक भक्त नवरात्रि, साथ ही प्रत्येक अमावस्या की रात देवी के दर्शन हेतु आते हैं ।
४. मंदिर के सामने बलि चढाने का स्थान है । यहां प्रतिदिन देवी को बकरे की बलि चढाई जाती है । बलि देने का स्थान होते हुए भी यहां एक भी मक्खी नहीं आती, यह आश्चर्यजनक ही है ।
५. मंदिर के सामने पापनाशिनी कुंड है । रोग से ग्रस्त व्यक्तियों ने इस कुंड में स्नान किया, तो वे रोगमुक्त हो जाते हैं, भक्तों में ऐसी मान्यता है ।
(संदर्भ : ‘भारत डिस्कवरी’ का जालस्थल)