‘एक बार हम परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा की हुई गुरुसेवा के बारे में चर्चा कर रहे थे । तब श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) गाडगीळजी ने निम्नांकित सूत्र बताए ।
१. परात्पर गुरुदेव डॉ. आठवलेजी द्वारा किए गए अविश्राम परिश्रम के कारण ही ‘सनातन’ के बीज ने वटवृक्ष का रूप धारण किया ।
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने अपार परिश्रम उठाकर स्वयं की देह की भी परवाह न करते हुए सबकुछ साधकों के लिए किया । सनातन संस्था की स्थापना की । सनातन के आश्रमों का निर्माण किया । सभी साधकों को तैयार किया । उनके द्वारा किए परिश्रम के कारण ही आज ‘सनातन’ नामक बीज ने वटवृक्ष का रूप धारण किया है । आज हम इस वृक्ष के फल आनंद से चख रहे हैं । अंतिम सांस तक गुरुदेवजी के चरणों में कृतज्ञ रहना, इतना ही हम सभी साधक कर सकते हैं ।’
श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ने ‘कृतज्ञता’ शब्दों के परे होने से वह भाव से भी उच्च है’, यह कहना
एक बार श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ने हमें कृतज्ञता के विषय में सुंदर दृष्टिकोण दिया । उन्होंने कहा, ‘शब्दों का अस्तित्व जहां समाप्त होता है, वही ‘कृतज्ञता है !’ हम ‘भाव’ को शब्दों में बांध सकते हैं । उसे व्यक्त भी किया जा सकता है; परंतु कृतज्ञता शब्दों के परे है, इसलिए वह भाव से भी उच्च है । शब्दों के परे कृतज्ञता का विश्व हमें भगवान तक पहुंचाता है । शब्दों के परे का विश्व निराकार होता है । ईश्वर भी निराकार ही हैं; इसलिए साधना अंतर्गत कृतज्ञता का महत्त्व अनन्यसाधारण है ।
‘क्या है कृतज्ञता ?’, यह सिखानेवाले परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी एवं ‘प्रत्यक्ष कृतज्ञता की स्थिति में कैसे रहना है ?’, यह सिखानेवालीं श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी के श्री चरणों में हम सनातन के सभी साधक कोटि-कोटि कृतज्ञ हैं । ‘हम सभी साधक शब्दों के परे कृतज्ञभाव में निरंतर रह पाएं’, यही गुरुदेवजी के श्री चरणों में प्रार्थना है !’
– श्री. विनायक शानभाग, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१५.६.२०१८)