न्यायव्यवस्था भारतीय ही चाहिए !

भारत के न्यायालयों में रोमन न्यायदेवता के स्थान पर भारतीय न्यायदेवता की मूर्ति हो; इसके लिए कुछ दिन पूर्व ‘बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा’ की ओर से मुख्य न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक प.पू. डॉ. मोहन भागवतजी से मांग की गई । इस अवसर पर उन्होंने भारतीय न्यायदेवता का संकल्पचित्र भी सौंपा । वर्तमान समय में भारत के न्यायालयों में जो मूर्ति लगाई जाती है, उसे रोमन राजतंत्र से लिया गया है । उसमें एक स्त्री की आंखों पर पट्टी, एक हाथ में तराजू तथा दूसरे हाथ में तलवार है । वर्तमान की इस प्रचलित न्यायदेवता की आंखों पर पट्टी होने का कारण यह बताया जाता है कि न्यायालय में पद, प्रतिष्ठा, मानसम्मान अथवा किसी भी उपाधि के अधीन न रहकर निष्पक्ष होकर न्याय मिले । भारत में अंग्रेजों का साम्राज्य स्थापित होने के उपरांत उन्होंने जो न्यायतंत्र प्रचलित किया, उसी के अंतर्गत न्यायदेवता का यह काल्पनिक रूप है । उसके कारण ‘स्वतंत्र भारत में न्यायदेवता का स्वरूप भारतीय संस्कृति पर आधारित होना चाहिए’, ऐसी किसी ने मांग की, तो उसमें कुछ भी अनुचित नहीं है; परंतु यह विषय केवल न्यायदेवता के स्वरूप तक सीमित नहीं है । कुल मिलाकर न्यायतंत्र में आमूलचूल परिवर्तन आने हेतु अभी तक प्रयास क्यों नहीं हुए ? उसपर केवल गंभीरता से विचार करने की ही नहीं, अपितु कृति करने की आवश्यकता है ।

‘भारतीय दंड संहिता’ ब्रिटिश कानून पर आधारित है । वर्ष १८३४ में लॉर्ड थॉमस मैकाले ने यह संहिता बनाई । उसकी अध्यक्षता में गठित कानून आयोग ने भारतीय कानून का प्रारूप तैयार किया । ६ अक्टूबर १८६० में इस प्रारूप को ‘कानून’ के रूप में पारित किया गया तथा १ जनवरी १८६२ से यह कानून भारत में प्रत्यक्षरूप से लागू किया गया, जो अभी तक बना हुआ है । भारतीयों पर राज्य करने हेतु अंग्रेजों द्वारा बनाए गए इस कानून में काल के अनुरूप परिवर्तन लाना स्वतंत्र भारत में प्रधानता से होना अपेक्षित था; परंतु उसकी ओर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया, यह भारतीयों का दुर्भाग्य है । इसपर कुछ भी विचार नहीं हुआ, ऐसा नहीं है । केंद्र में जब कांग्रेस की सरकार थी, उस समय देश में कालबाह्य हो चुके कानूनों में परिवर्तन लाने हेतु एक समिति का भी गठन किया गया; परंतु वास्तव में उस संबंध में कुछ ठोस कार्य नहीं हुआ । उसके कारण कुछ वर्ष पूर्व तक अर्थात २०१९ तक सैकडों कालबाह्य कानूनों का अस्तित्व था । वर्ष २०१४ में देश में भाजपाप्रणित राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार सत्ता में आने पर प्रधानमंत्री मोदी ने इस विषय में गति से काम करना आरंभ किया । प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में भारतीय दंडसंहिता में समाहित अनेक कालबाह्य कानून रद्द किए गए हैं; परंतु तब भी न्यायतंत्र में अभी भी अनेक गंभीर समस्याएं हैं । उसके कारण वर्तमान स्थिति को देखते हुए भारतीय न्यायतंत्र का विषय न्यायदेवता की मूर्ति बदलने के साथ ही इस व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की ओर अग्रसर होना अपेक्षित है ।

भारतीय संस्कृति पर आधारित कानून हों !

अनेक बार भारतीय न्यायालयों में न्यायदान के कार्य में अमेरिका, फ्रांस आदि विदेश के अभियोगों के संदर्भ लिए जाते हैं । संबंधित देश के अनुसार उनकी संस्कृति में परिवर्तन आता रहता है तथा न्यायप्रक्रिया पर भी उसका परिणाम होता है । यूरोप में स्वैराचार को स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का लेप चढाकर समाजमान्यता दी है; परंतु भारत में उसे व्यभिचार माना जाता है । ऐसे समय में भारत के कानूनों का भारतीय संस्कृति के अनुरूप तथा यहां की सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित होना आवश्यक होता है । दुर्भाग्यवश वैसा न होने के कारण भारत में ‘लिव इन रिलेशनशिप’, ‘समलैंगिकता’ जैसे यूरोप में चलनेवाले स्वैराचार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के रूप में चर्चा होने लगी । ब्रिटिशकालीन कानून, लंबित लाखों अभियोग, सत्र न्यायालय से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक ३६० कोण में बदलनेवाले निर्णय; न्यायालय जाने पर सामान्यजन अक्षरश: पीस जाए, इतना अधिवक्ताओं का शुल्क जैसी गंभीर समस्याओं के कारण न्यायालयीन प्रक्रिया जटिल हुई है, इसे स्वीकार करना ही पडेगा । ‘वर्षाें तक अभियोग लडकर तथा लाखों-करोडों रुपए व्यय कर जो मिलता है, वह न्याय है अथवा अन्याय ?’, यह प्रश्न मन में उठने तक हमारा न्यायतंत्र बदनाम हो चुका है । ऐसी स्थिति में भारत का प्राचीन न्यायतंत्र कैसा था ?, इसका अध्ययन करना अनिवार्य हो जाता है ।

प्राचीन न्यायदान का आदर्श लें !

प्राचीन भारतीय इतिहास में हमें निष्पक्ष, सत्य को प्रमाण मानकर चलनेवाले तथा तत्काल न्यायदान के उदाहरण देखने को मिलते हैं । यमधर्म के साथ बातचीत करते समय लक्ष्मण को वहां न आने की आज्ञा देकर भी प्रजाहित के लिए वहां आए लक्ष्मण को प्रभु श्रीराम ने राजसभा में मृत्युदंड सुनाया । कबूतर के प्राण बचानेवाले बाज ने स्वयं को अन्न से वंचित किए जाने की बात कहे जाने पर शिबी राजा ने एक क्षण का भी विलंब न लगाते हुए अपनी जंघा का मांस काटकर बाज को देकर उसके साथ तत्काल न्याय किया । स्वप्न में राज्य देने का वचन दिए जाने का स्मरण करानेवाले ऋषि विश्वामित्र को राजा हरिश्चंद्र ने तत्काल ही अपने शरीर पर धारण किए आभूषणोंसहित स्वयं का राज्य भी सौंपा । पेशवाओं के दरबार में प्रत्यक्ष दूसरे पेशवा को मृत्युदंड सुनानेवाले रामशास्त्री प्रभुणे जैसे न जाने कितने उदाहरण भारतीय न्यायतंत्र में देखने को मिलेंगे । वर्तमान समय में लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायतंत्र राजतंत्र से भले ही भिन्न हो; परंतु तब भी हमें न्यायदान का यह आदर्श अपने सामने रखना चाहिए ।

वर्तमान स्थिति में महाराष्ट्र के कारागृहों में दंड भुगत रहे ८० प्रतिशत बंदीजन न्यायालय की निर्णय की प्रतीक्षा में कारागृह में सड रहे हैं । किसी निर्दाेष व्यक्ति को न्यायतंत्र के विलंब के कारण वर्षाें से कारागृह में बंद रहना पडना, कोई अभियोग वर्षाें तक चलते रहना तथा न्याय मिलने हेतु लाखों रुपए का व्यय करना पडना, इसका अर्थ सर्वसामान्य एवं गरीब लोगों को न्याय मिलना ही नहीं चाहिए, ऐसी स्थिति उत्पन्न करनेवाला है । उसके कारण रोमन न्यायदेवता की प्रतिमासहित यूरोप की भांति भारत में भी न्यायाधीश एवं अधिवक्ता का काला चोगा एवं कोट की वेशभूषा, ‘माइ लॉर्ड’ कहने की यूरोपीय पद्धति जैसी बाह्य बातों में जैसे परिवर्तन लाने की आवश्यकता है, उसी प्रकार न्यायदान की प्रक्रिया शीघ्र गति से होने हेतु न्यायदान करनेवालों का भी धर्मशास्त्र के जानकार तथा धर्माचरण करनेवाले होना भी उतना ही आवश्यक है । ऐसे सभी स्तरों पर न्यायतंत्र का भारतियीकरण होना आवश्यक है । केंद्र सरकार ने भविष्य में यदि उस दृष्टि से कदम उठाए, तो वह समय, पैसा तथा राष्ट्रहित, इन सभी की दृष्टि से उपयुक्त सिद्ध होगा ।

स्वतंत्रता के उपरांत भारत की प्राचीन न्यायदान की प्रक्रिया अपनाने के स्थान पर पाश्चात्य न्यायतंत्र का ही बना रहना भारतीयों का दुर्भाग्य है !