साधकों के जीवन में गुरु के सगुण सान्निध्य के क्षण अनमोल होते हैं । साधकों के साथ उनका बातें करना, साधकों को तैयार करना, उनकी चूकें बताना, मार्गदर्शन करना, आवश्यकता पडने पर उन्हें संभाल लेना आदि विभिन्न माध्यमों से साधकों के अंतःकरण में वह दैवी सीख अंतर्भूत होती रहती है । सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने आरंभ से ही अपने आध्यात्मिक अधिकार का किसी प्रकार का आडंबर न कर साधकों के साथ साधकों की भांति रहकर उन्हें तैयार किया । उन्हीं के द्वारा स्थापित सनातन के आश्रम में भी वे इसी भाव से रहते हैं कि ‘मैं प.पू. भक्तराज महाराज का शिष्य हूं ।’ वहां भी वे साधकों से स्वयं की सेवा करवाने के स्थान पर ही साधकों की विभिन्न सेवाओं में यथासंभव उनकी सहायता करते हैं । उनके प्रत्यक्ष सान्निध्य में वे सामनेवाले व्यक्ति के लिए पूरक बनने का कितना प्रयास करते हैं, इसका अनुभव होता है । समष्टि को अपना बनानेवाले दैवी गुण, सादगी, सहजता, अन्यों का विचार एवं निरपेक्ष प्रीति के उच्च बिंदु हैं सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ! उनमें भगवान के सभी गुणों की प्रतीति होती है । अपना कोई भी भिन्न दल न रखकर सहजता के साथ साधकों के स्तर पर आकर उनके साथ रहने के संदर्भ में साधकों द्वारा अनुभव किए हुए कुछ क्षण यहां दे रहे हैं !
१. अभ्यासवर्ग के समय परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का सभी साधकों के साथ एक पुरानी धर्मशाला में रहना
एक बार रत्नागिरी में परात्पर गुरु डॉक्टरजी के अभ्यासवर्ग का आयोजन किया गया था । उस समय हम सभी साधक वहां की एक पुरानी धर्मशाला में रहे थे । उस समय परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने भी हमारे साथ निवास किया । वहां पत्थर का बना तथा अस्वच्छ स्नान कक्ष था, जहां अत्यंत अंधेरा था । परात्पर गुरु डॉक्टरजी स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के प्रति अत्यंत सतर्क रहते हैं, साथ ही वे एक बडे डॉक्टर एवं महान विभूति हैं । वे इंग्लैंड के अत्यंत उच्च स्तरीय भवनों में रह चुके हैं; परंतु ऐसा होते हुए भी कोई शिकायत किए बिना उन्होंने इसी स्नान कक्ष में स्नान किया । अपनी इस कृति से उन्होंने हम सभी साधकों के सामने एक आदर्श स्थापित किया ।’
– डॉ. रूपाली भाटकार, फोंडा, गोवा.
२. चप्पल मरम्मत के लिए देते समय उसे कागद में लपेटकर देना तथा साधिका उसे ले जाना न भूले; ऐसे स्थान पर उसे स्वयं ही ले जाकर रखना
परात्पर गुरु डॉक्टरजी के द्वारा कक्ष में उपयोग की जानेवाली चप्पल एक बार एक ओर से घिस गई थी । उन्हें उसे निर्माण-सेवा के साधक श्री. प्रकाश सुतार को सुधार कर लाने हेतु देनी थी, उस समय उन्होंने पूछा कि क्या मैं प्रकाश भैया को पहचानती हूं ? तथा जाते समय चप्पल लेकर उन्हें देने के लिए कहा । उन्होंने उसे मेरे पास दी होती, तो मैं वैसे ही ले गई होती; परंतु उन्होंने उस चप्पल को कागद में लपेटा तथा मुझसे पूछा, ‘‘मैं इसे कहां रखूं, जिससे तुम उसे ले जाना नहीं भूलोगी ?’’ मैंने उन्हें वह स्थान दिखाया तथा उन्होंने उस स्थान पर चप्पल रख दी ।
– कु. दीपाली मतकर (आज की सनातन की धर्मप्रचारक संत पू. दीपाली मतकरजी), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.
३. मार्गिका से आते समय बाहर उपयोग की जानेवाली चप्पल स्वयं ही हाथ में ले आना
एक बार परात्पर गुरु डॉक्टरजी के बडे भाई सद्गुरु अप्पा काका आश्रम आए हुए थे । वे जब जाने के लिए निकले, तब परात्पर गुरु डॉक्टरजी उन्हें विदा करने हेतु उनकी गाडी तक गए । वहां से वापस आते समय परात्पर गुरु डॉक्टरजी बाहर उपयोग की जानेवाली चप्पल हाथ में लेकर मार्गिका से दीवार को पकडकर पैदल चलते आ रहे थे । मैंने दूर से उन्हें देखा और कहा, ‘मैं चप्पल आपके कक्ष में ले जाकर रखती हूं ।’ उस पर उन्होंने कहा, ‘‘मैं अभी भी यह सेवा कर सकता हूं । जब मैं बूढा हो जाऊंगा, तब तुम करना ।’’ वे आश्रम में गुरुभाव में न रहकर ‘मैं अपने गुरु के आश्रम में रहता हूं, तो मैं भी शिष्य ही हूं’, इस भाव से रहते हैं । उसके कारण उन्हें जो कुछ करना संभव है, ऐसे काम वे स्वयं करते हैं ।
– श्रीमती साक्षी जोशी, गोवा.
४. साधक के साथ दिए जानेवाले आवश्यक बक्से को स्वयं उठाकर देखना तथा साधक को भी उसे उठाकर देखने के लिए कहना
‘हमारे एक पुराने साधक अमरजीत एक बार रामनाथी आश्रम आए हुए थे । वापस जाते समय उन्हें मुंबई सेवाकेंद्र में पहुंचाने के लिए ग्रंथों का एक बक्सा देना था । उस समय प.पू. डॉक्टरजी ने मुझसे पूछा, ‘अमरजीत भैया को पीठ का कष्ट तो नहीं है न ? क्या वह बक्सा लेकर जा सकता है ?’ ‘वह बक्सा लेकर जा सकता है’, ऐसा बताने पर साधकों ने वह बक्सा लाकर दिया । केवल मेरे कहने पर निर्भर न रहकर प.पू. डॉक्टरजी ने स्वयं को शारीरिक कष्ट होते हुए भी उस बक्से को उठाकर देखा तथा अमरजीत भैया को भी उठाकर देखने के लिए कहा । इस प्रसंग से ‘प.पू. डॉक्टरजी स्वयं में विद्यमान प्रेमभाव के कारण अन्यों का किस सूक्ष्मता से विचार करते हैं’, यह मुझे सीखने के लिए मिला ।’
– श्री. मनोज नारायण कुवेलकर (आध्यात्मिक स्तर ६६ प्रतिशत), कवळे, फोंडा, गोवा.
५. साधकों के कक्ष में पाठ करते समय उसमें बाधा न आए’, इस हेतु प्रयास करना
‘कुछ वर्ष पूर्व सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी पर आया संकट टले, इसके लिए साधक उनके कक्ष में प्रतिदिन एक से सवा घंटे तक मारुतिस्तोत्र का पाठ करते थे । इस अवधि में कोई साधक उनके कक्ष में सेवा हेतु आने पर गुरुदेवजी उनसे धीमी आवाज में बात करते थे । उन्हें कभी दृश्यश्रव्य-चक्रिकाओं को देखकर उनमें सुधार करने की सेवा होने पर वे उसकी आवाज धीमी रखते थे । ‘यह सब वे विनम्रतापूर्वक करते हैं’, ऐसा मुझे प्रतीत हुआ । उनमें विद्यमान ‘विनम्रता एवं अन्यों का विचार करना’, ये गुण साधकों के सीखनेयोग्य हैं ।
६. पाठ करने हेतु कक्ष में आनेवाले साधकों का ध्यान रखना
उनके कक्ष में जाते समय हमारे द्वारा दरवाजा खोलने से पूर्व ही उन्होंने खोल रखा हो, तो वे हाथ से दरवाजा पकडकर प्रसन्नता से तथा सम्मानपूर्वक हमें अंदर आने के लिए कहते थे । मैं एवं श्री. मुळ्ये जब उनके कक्ष में पाठ करने जाते थे, उस समय पंखा नहीं चल रहा होता था, तब वे स्वयं पंखा चलाते थे । कक्ष में अधूरा प्रकाश हो, तो वे स्वयं खिडकियों के परदे हटाते थे । अनेक बार उनके कक्ष में जाने से पहले ही वे कक्ष में स्थित वातानुकूलित यंत्र चलाकर रखते थे ।
कर्पूर-आरती संपन्न होने पर वे हमें पहले ही बताकर रखते थे, ‘‘आप आरती शांत होने पर न रुकें ।’’ ‘उसमें हमारा समय व्यर्थ न जाए’, यह उनका दृष्टिकोण होता था । आरती शांत होने के उपरांत वे स्वयं आरती उचित स्थान पर धोने के लिए रख देते थे ।
– कु. कल्याणी गांगण (आध्यात्मिक स्तर ६२ प्रतिशत), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.