‘उज्जैन (मध्य प्रदेश) भारत की सांस्कृतिक नगरी है । अब यह नगरी भारत सहित संपूर्ण विश्व को वैश्विक कालगणना के अनुसार समय बतानेवाली है । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हस्तों ‘विक्रमादित्य वैदिक घडी’, इस अद्भुत घडी का लोकार्पण किया गया । इस घडी के कारण भारतीय कालगणना को पुनः महत्त्व प्राप्त हुआ है । इस पृष्ठभूमि पर ‘भारतीय कालगणना कैसी थी ?’ तथा वैदिक घडी की विशेषताओं को समझना उचित रहेगा ।
१. भारत को प्राप्त सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिकों की विशाल परंपरा !
भारत के सांस्कृतिक स्थानों में उज्जैन सदैव केंद्रस्थान पर रहा है । महाकाल के आशीर्वादप्राप्त यह नगरी, संस्कृत साहित्य में कवि कुलगुरु कालिदास के निवास की नगरी के रूप में भी विख्यात है । अब यह नगरी भारतसहित संपूर्ण विश्व को वैदिक कालगणना के अनुसार समय बतानेवाली है । भारत को सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिकों की विशाल परंपरा प्राप्त है । भारतीय ज्ञानशाखाओं में शून्य की खोज, वैदिक गणित, पाइथागोरस के सिद्धांत से पूर्व के शूल्बसूत्र, खगोलशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र तथा विज्ञान के अनेक सिद्धांत दिखाई देते हैं । तो कालगणना भी इसका अपवाद कैसे रह सकती है ?
२. कालगणना क्या है ?
काल की गणना करने की पद्धति को ‘कालगणना’ कहते हैं । अंग्रेजी के ‘क्रॉनॉलॉजी’ एवं ‘एरा’, इन दो शब्दों के लिए हिंदी में कालगणना संज्ञा का उपयोग किया जाता है । घटित हो रही तथा घटित घटनाओं का कालानुक्रम बताना कालगणना का मूल उद्देश्य होता है । ऐतिहासिक कालगणना में अतीत की घटनाओं का कालानुक्रम सुनिश्चित करने का प्रयास होता है, कालगणना की यह पद्धति भिन्न प्रदेशों में भिन्न प्रकार की दिखाई देती है । विभिन्न कालों में विभिन्न कालगणनाओं का अस्तित्व दिखाई देता है । वर्तमान समय में प्रचलित एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ईसाई कालगणना है ।
३. भारतीय कालगणना
हमारे नित्य जीवन में हम यह देखते हैं कि विवाह अथवा पूजा के लिए कोई विशिष्ट तिथि होने पर भी ‘मुहूर्त’ निकाला जाता है । विशिष्ट तिथि, दिन तथा ग्रहों का अध्ययन कर कुछ विशिष्ट समय सुनिश्चित किए होते हैं । वैदिक साहित्य में इस कालगणना के संदर्भ मिलते हैं । वैदिक काल के लोगों को अहोरात्र पक्ष, चंद्रमास, ऋतु एवं नक्षत्रों का अच्छा ज्ञान था । केवल इतना ही नहीं, अपितु सौर एवं चंद्र मास का मेल करने हेतु आवश्यक अधिक मास का भी उन्हें ज्ञान हुआ था । उससे भी आगे जाकर उन्हें वासंतिक एवं शरद संपात का भी ज्ञान था; परंतु कालगणना के लिए उन्हें ४ अथवा ५ वर्ष के एक चक्र अथवा युग की कल्पना करनी पडी । लोकमान्य टिळक ने अपने ‘ओरायन’ एवं ‘आर्क्टिक होम इन द वेदाज’ ग्रंथों में इसका गहरा अध्ययन किया है ।
कुछ देशों में १० महिनों का एक वर्ष माना जाता था; परंतु भारत में चंद्रमा की दृष्टि से १२ चंद्र मासों का चंद्र वर्ष, सूर्य एवं तारों की दृष्टि से आनेवाला सौर वर्ष, साथ ही उनका मेल कराने हेतु विचार में लेनेयोग्य अधिक मास के संदर्भ में वेदकालीन लोग अन्यों की तुलना में बहुत आगे थे, तथापि २७ नक्षत्रों से तैयार की गई १२ राशियां तथा सप्तग्रहों से बनाए गए दिवस भारतीयों ने ग्रीक लोगों से लिए थे, ऐसा दिखाई देता है । राशि दिनों का जब पश्चिम से भारत में संक्रमण हो रहा था, तब वह अरबस्तान, ईरान आदि देशों में ये दिन स्थापित क्यों नहीं हुए ?, यह एक प्रश्न ही है । अरबी एवं ईरानी संस्कृति में पहले ५ दिनों को अर्थात रविवार से गुरुवार, इन दिनों को क्रमशः पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवा दिन अथवा यक्शंबा, दूशंबा, सेशंबा, चहारशंबा, पंजशंबा, शुक्रवार को जुमा, आदिना तथा शनिवार को सुबत अथवा शंबा, ये नाम दिए गए हैं । इससे इन देशों में दिनों की प्रथा स्थापित नहीं हुई, यह स्पष्ट होता है । राशियां भारत में जब प्रचालित हुईं, तभी इन देशों में भी प्रचलित हुई । इसके कारण भारतीय ज्योतिष में कौनसा भाग कब अंतर्भूत हुआ, यह देखना बहुत उद्बोधक होगा ।
४. भारत में प्रादेशिक स्थिति के अनुसार कुछ कालगणनाओं की निर्मिति !
भारत का विस्तार कश्मीर से कन्याकुमारी अथवा प्राग्योतिष से सिंध तक विशाल है । इस साम्राज्य का छोटे-छोटे विभागों में विभाजन हुआ । इस प्रत्येक प्रदेश की स्वतंत्र आचार-संस्कृति बन गई, वैसे लोकव्यवहार भी प्रचलित हुए । इससे प्रादेशिक स्तर पर सुविधा के अनुसार कुछ कालगणनाएं प्रचलित हुईं, उदा. भारत में श्री गणेश चतुर्थी के दिन श्री गणेश पूजन किया जाता है; परंतु सभी स्थानों पर गणेश चतुर्थी एक ही दिन तथा उसी समय होगी, ऐसा नहीं है । उसमें कुछ अंतर भी दिखाई देते हैं । भारत में विभिन्न कालगणनाएं प्रचलित होने का और भी एक कारण है । इतिहास के अध्ययन से हमें ऐसा दिखाई देता है कि अनेक समुदाय विभिन्न काल में भारत के बाहर से भारत आए तथा यहां सदा के लिए बस गए । वे अपने साथ कुछ आचार-विचार भी ले आए । उनमें कालगणनाएं भी थीं । उन समुदायों में से कुछ समुदायों ने यहां उनके राज्य भी स्थापित किए, उस समय उनकी कालगणनाएं भी यहां प्रचालित हुईं ।
५. भारत में प्रचलित कालगणनाएं
भारत में वर्तमान समय में ३६ कालगणनाओं का अस्तित्व है । उनमें, इलाही, कटकी , कलचुरी, कलियुग, कोल्लम, गांगेय अथवा गंग-कदंब, गुप्त, ग्रहपरिवृत्ति, चालुक्य विक्रम, जव्हार, जुलूस, तुर्की द्वादशवर्षचक्र एवं चीनी षष्टिवर्षचक्र, नेवार (नेपाल), पर्गनाती, पुदुवैप्पु, फसली, बंगाली, बार्हस्पत्य वर्षचक्र १ एवं २, बुद्धनिर्वाण, भाटिक, मगी, मब्लूदी, मौर्य, राज्याभिषेक, लक्ष्मण सेन, विक्रम, विलायती, वीरनिर्वाण, शक, शुहूर, सप्तर्षि, सिंह, सिल्युसिडी, हर्ष एवं हिजरी हैं ।
६. पराक्रमी राजाओं के द्वारा विभिन्न कालगणनाओं की निर्मिति
भारत में विभिन्न कालगणनाएं प्रचलित होने का तीसरा भी एक कारण है । यहां के हिन्दू राजाओं में ऐसी एक कल्पना प्रचलित थी कि कोई अत्यंत पराक्रमी राजा उसकी स्वतंत्र कालगणना आरंभ करता था । विक्रमादित्य एवं शालिवाहन बडे पराक्रमी राजा थे । उन्होंने उनकी कालगणनाएं आरंभ की । ‘हम यदि उनके जैसे पराक्रमी हैं, तो हम भी कालगणना क्यों न आरंभ करें ?’, इस विचार से कुछ राजाओं ने भी उनकी कालगणनाएं आरंभ की । चालुक्य, छठे विक्रमादित्य, अकबर, छत्रपति शिवाजी महाराज, टीपू इत्यादि राजा थे । सारांश यह कि भारत में विगत २ सहस्र ५०० वर्षाें में अनेक कालगणनाएं उत्पन्न हुईं अथवा प्रचलित की गईं । इनमें से कुछ शुद्ध भारतीय, कुछ विदेशी, जबकि कुछ मिश्र स्वरूप की हैं । कुछ कालगणनाओं का स्रोत पता चलता है, तो कुछ कालगणनाओं का नहीं चलता । स्थानीय स्तर पर भी तथा धार्मिक परंपराओं के अनुसार विभिन्न कालगणनाओं का पालन किया जाता है ।
७. राजा विक्रमादित्य वैदिक घडी की विशेषताएं
अ. यह एक विशेषतापूर्ण घडी है तथा वैदिक कालगणना के अनुसार समय दर्शानेवाली घडी है । इस घडी में ‘इंडियन स्टैंडर्ड टाइम’ तथा ‘ग्रीनविच मीन टाइम’ के साथ ही पंचांग एवं मुहूर्ताें के विषय में भी जानकारी मिलेगी ।
आ. ‘विक्रमादित्य वैदिक घंटा’ ४८ मिनट का होगा । इस घडी में २४ घंटे नहीं, अपितु ३० घंटे होंगे । यह घडी सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक का संपूर्ण समय दिखाएगी । वैदिक गणना के अनुसार लगभग ३० घंटे होते हैं ।
इ. यह घडी केवल समय ही नहीं, अपितु मुहूर्त, ग्रहण, तिथि, शुभमुहूर्त, पर्व, उपवास, ग्रह-भद्रा स्थिति, योग, त्योहार, सूर्य एवं चंद्रग्रहण सहित अनेक बातों की जानकारी देगी ।
ई. ‘आईआईटी देहली’ के छात्रों ने यह विक्रमादित्य वैदिक घडी तैयार की है, साथ ही इस घडी का ‘एप’ भी उपलब्ध है । यह घडी ‘इंटरनेट’ एवं ‘जीपीएस’ से (इंटरनेट प्रणाली से) जोड दी गई है । इसके साथ ही वह भारत के प्रमुख मंदिरों से संलग्न रहेगी । इस घडी में अंग्रेजी समय भी दर्शाया जाएगा ।
८५ फुट ऊंचे मीनार पर स्थापित यह वैदिक घडी भारत की समृद्ध परंपरा को आगे बढानेवाली सिद्ध हुई है । इस घडी के उपलक्ष्य में भारत के स्वर्णिम इतिहास में विभिन्न गणीतीय शोधों का अध्ययन किया गया । इतिहास के अध्ययन से भारत पुनः समृद्ध भविष्य बनाएगा, इसका यह आरंभ ही है ।’
– वसुमती करंदीकर
(साभार : साप्ताहिक ‘विवेक मराठी’, २०.३.२०२४)