अवयस्क बालक के साथ अश्लील व्यवहार करने के प्रकरण में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का निर्णय !

१. अवयस्क बालक के साथ अश्लील व्यवहार करने के प्रकरण में महिला के विरुद्ध अपराध पंजीकृत तथा इस प्रकरण में उसकी ओर से किया गया वाद-विवाद

प्रतिकात्मक छायाचित्र

‘एक महिला ने एक अवयस्क बालक को अपने पास रखा तथा उसके साथ बाहर जाकर उसके साथ अश्लील आचरण (गुप्तांग को स्पर्श) किया, साथ ही उसे ‘इस विषय में किसी को कुछ न बताने की धमकी दी, ऐसा आरोप अवयस्क बालक की दादी ने बद्दी पुलिस थाने में (हिमाचल प्रदेश) दी गई शिकायत में लगाया । इस शिकायत के अनुसार पुलिस ने अन्वेषण किया तथा प्रथमदृष्टि से अपराध घटित होने का ब्योरा तहसील दंडाधिकारी को भेजा । उसके अनुसार आरोपी के विरुद्ध आरोप सुनिश्चित किए गए । पंजीकृत अपराध को रद्द करने हेतु आरोपी महिला हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय गई ।

न्यायालय में वाद-विवाद में उसकी ओर से यह बताया गया कि, उसके विरुद्ध कोई प्रमाण नहीं मिला है । केवल पीडित लडके के द्वारा न्यायदंडाधिकारी के सामने कथन करने से अपराध सिद्ध नहीं होता । इसमें अवयस्क बालक के साथ अश्लील आचरण करने की उसकी मानसिकता कहीं पर भी स्पष्ट नहीं हुई है । साथ ही ‘पॉक्सो’ कानून में ‘सेक्स्युअल इंटेंट’ (यौन उद्देश्य) शब्द की परिभाषा नहीं दी गई है, साथ ही उसने अश्लील आचरण के उद्देश्य से उसने पीडित लडके का गुप्तांग जानबूझकर हाथ में लिया, यह सिद्ध नहीं होता । इसलिए उसके विरुद्ध पंजीकृत अपराध रद्द किया जाए ।.

२. आरोपी के विषय में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के उद्वेगपूर्ण उद्गार तथा स्पष्टोक्ति !

(पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी

इस वाद-विवाद पर न्यायाधीश ने उद्वेग व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘क्या हमने पाश्चात्त्य संस्कृति अपनाई है ? क्या हम पाश्चात्य देश में रह रहे हैं ? अथवा ऐसा कृत्य करने के लिए क्या हम पाश्चात्त्य व्यक्ति हैं ? अवयस्क बालक एवं बालिकाओं ेकी यौन अत्याचारों से रक्षा हो; इसके लिए ‘पॉक्सो’ कानून बनाया गया है । उसका सारांश यह बताता है अवयस्क बच्चों के शरीर अथवा शरीर के किसी विशिष्ट भाग को स्पर्श करने का अर्थ ही यौन उद्देश्य से ही उसके शरीर को स्पर्श किया गया है अथवा वैसा कृत्य किया गया है, यह होता है । यह कृत्य ही दोषी मानसिकतावाला है । उसके लिए भले ही स्वतंत्र परिभाषा नहीं दी गई हो; परंतु इस कानून का अर्थ अथवा उद्देश्य वही होता है ।’’

३. उच्च न्यायालय की ओर से आरोपी महिला की याचिका अस्वीकार !

आरोप सुनिश्चित करते समय न्यायदंडाधिकारी उनके सामने रखे गए प्रमाण को ध्यान में लेकर क्या यह अपराध प्रथम दृष्टि से प्रमाणित होता है ?, इसका विचार करते हैं तथा उसके उपरांत आरोप सुनिश्चित किए जाते हैं । इस समय आरोपी प्रमाण नहीं दे सकता; परंतु सामने रखा गया प्रमाण क्या आरोप को सिद्ध कर सकेगा ?, इस विषय में वाद-विवाद कर सकता है । इन सभी बातों का विचार कर ‘पॉक्सो’ कानून बनाया गया । उसकी पृष्ठभूमि को ध्यान में लेते हुए हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने संबंधित महिला का अपराध रद्द किए जाने की मांग करनेवाली याचिका खारिज की ।

४. समाज सुधार हेतु धर्मशिक्षा आवश्यक !

इस प्रकरण में न्यायाधीश ने जो उद्वेगपूर्ण उद्गार व्यक्त किए, दुर्भाग्य से वैसी परिस्थिति भारत में उत्पन्न हुई है । पहले यौन अपराधों के सभी प्रकरणों में केवल पुरुष ही आरोपी होते थे; परंतु आज समाज की स्थिति बदल गई है । अनेक बार महिलाएं भी यौन उद्देश्य से अवयस्क बालकों से निकटता बनाती हैं, साथ ही उनके साथ आपत्तिजनक आचरण करती हैं । समाज का रसातल पहुंचने का यह संकेत है । स्वतंत्रता प्राप्त होने से लेकर अभीतक एक भी सरकार ने बच्चों को धर्म की शिक्षा नहीं दी है, उसके कारण यह स्थिति उत्पन्न हुई है । दूरचित्रवाणी एवं चल-दूरभाष पर दिखाए जानेवाले दृश्य महिलाओं में यौन भावनाओं को उत्तेजना देते हैं । अतः केवल अयोध्या में श्रीराम मंदिर की स्थापना कर ही न रुककर रामराज्य लाने हेतु प्रयास करने आवश्यक हैं ।’

श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।

– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी, मुंबई उच्च न्यायालय (३१.१.२०२४)