प्राचीन काल में तुलसी जी को जल चढाकर वंदन किया जाता था; परन्तु आज अनेक लोगों के घर तुलसीवृन्दावन भी नहीं होता । प्राचीन काल में सायंकाल दीपक जलाकर ईश्वर के समक्ष स्तोत्र पठन किया जाता था; परन्तु आज सायंकाल बच्चे दूरदर्शन पर कार्यक्रम देखने में मग्न रहते हैं । हिन्दू धर्म द्वारा बताए गए आचारों के पालन से हिन्दू बहुत दूर होते जा रहे हैं । आचारों का पालन करना ही अध्यात्म की नींव है । प्रत्येक कृत्य से स्वयं में विद्यमान रज-तम घटे और सत्त्वगुण बढे तथा अनिष्ट शक्तियों की पीडा से रक्षा हो, यह साध्य होने की दृष्टि से ही हिन्दू धर्म में प्रत्येक आचार की व्यवस्था है । इसीलिए इस अंक में कुछ आचारों की आदर्श दिनचर्या एवं उसकी सूक्ष्म स्तरीय अध्यात्मशास्त्रीय कारणमीमांसा भी स्पष्ट की है । इससे पाठकों की आचारों के प्रति, अर्थात हिन्दू धर्म के प्रति श्रद्धा दृढ होने में सहायता होगी ।
ग्रन्थमाला ‘आचारधर्म’ यह ग्रन्थ पढकर हिन्दुओं को अपने आचारधर्म की महानता ज्ञात हो तथा उन्हें उसपर प्रत्यक्ष आचरण कर बच्चों पर भी संस्कार करने की प्रेरणा मिले, ऐसी श्री गुरुदेवजी के चरणों में प्रार्थना है ।’ – संकलनकर्ता
तुलसी को जल देना एवं नमस्कार करना
देवतापूजन प्रारम्भ करने से पूर्व तुलसी को जल अर्पण कर उसका पूजन करें । इस समय निम्नलिखित श्लोकका उच्चारण करें ।
तुलसि श्रीसखि शुभे पापहारिणि पुण्यदे ।
नमस्ते नारदनुते नारायणमनःप्रिये ॥
– श्री तुलसीस्तोत्र, श्लोक १५
अर्थ : श्री लक्ष्मी की भगिनी, कल्याणकारी, पाप दूर करनेवाली, पुण्यदा, जिनकी स्तुति नारदजी करते हैं एवं जो श्रीविष्णु को अत्यंत प्रिय हैं, ऐसी
तुलसी माता को मैं नमस्कार करता हूं ।
स्त्रियां तुलसीपूजन नित्य करें एवं पूजन के उपरांत नित्य-नैमित्तिक कर्म आरंभ करें । तुलसी को नमस्कार करने का इतना अधिक महत्त्व है, इसीलिए प्रत्येक घर में तुलसीवृन्दावन हुआ करते थे ।
केश की आवश्यक देखभाल कैसे करें ?
केश निरोग रखने के लिए आवश्यक आहार
केश निरोग रखने के लिए आहार में दलहन और पत्तेवाली तरकारी (मुख्यरूप से प्याजके पत्तों) का उपयोग करें । अन्नपदार्थ पकाने के लिए तिल अथवा नारियल के तेल का उपयोग करें । इसी प्रकार आंवला, लिसोडा, आम, नारियल, चिरौंजी, ये फल खाने चाहिए । अतिरिक्त लवण (नमक) का सेवन केश के लिए अहितकर होने से इसका न्यूनतम प्रयोग करना चाहिए । सिर को तेल मर्दन (मालिश) उंगलियों के अग्रभाग अथवा हथेलियों से सिर को दबाते हुए मर्दन करते समय तेल में विभूति मिलाएं । साथ ही ईश्वर से प्रार्थना करें, ‘केश के मूल में विद्यमान अनिष्ट शक्तियों के स्थान नष्ट हों ।’ इससे केश के मूल में विद्यमान काली शक्तियों के स्थान नष्ट होने में सहायता मिलती है और त्वचा उत्तेजित होकर उस स्थान पर रक्तप्रवाह बढ जाता है ।
व्यायाम एवं आसन करना
व्यायाम से पाचनशक्ति सुधरती है, रोगप्रतिरोधक शक्ति बढती है एवं त्वचा कान्तिमान बनती है । नियमित व्यायाम से केश आरोग्य-सम्पन्न रहते हैं तथा मन की स्थिति सुधरकर एकाग्रता बढती है । प्राणायाम भी करें । शीर्षासन से सिर की ओर रक्तप्रवाह बढता है । शवासन से मानसिक तनाव घटता है एवं तनाव से उत्पन्न केश की समस्याएं दूर हो सकती हैं ।
स्नानपूर्व करनेयोग्य प्रार्थना व स्नान करते समय उपयुक्त श्लोकपाठ
१. जलदेवता से प्रार्थना
‘हे जलदेवता, आपके पवित्र जल से मेरे स्थूलदेह के सर्व ओर निर्माण हुआ रज-तम का कष्टदायक शक्ति का आवरण नष्ट होने
दें । बाह्यशुद्धि के समान ही मेरा अंतर्मन भी स्वच्छ एवं निर्मल बनने दें ।’
२. नामजप अथवा श्लोकपाठ करते हुए स्नान करने का महत्त्व
‘नामजप या श्लोकपाठ करते हुए स्नान करने से जल का अंगभूत चैतन्य जागृत होता है । देह से उसका स्पर्श होकर चैतन्य का संक्रमण रोम-रोम में होता है । इससे देह को देवत्व प्राप्त होता है तथा दिनभर के कृत्य चैतन्य के स्तर पर करने हेतु देह सक्षम बनती है ।’
– एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळजी के माध्यम से, ३०.१०.२००७, दोपहर १.२३)
रसोई बनाते समय कौन-सी सावधानियां बरतें ?
१. ‘प्रारम्भ में श्री अन्नपूर्णादेवी से, जलदेवता से एवं अग्निदेवता से प्रार्थना करें, ‘हे देवता, मुझसे भोजन बनाने की सेवा करवानेवाले आप ही हैं । इस सेवा का कर्तापन आपके चरणों में समर्पित होने दें ।’ तदुपरान्त शान्तचित्त से भोजन बनाना आरम्भ करें ।
इस प्रकार की अन्य प्रार्थनाएं थोडे-थोडे समय के पश्चात कृत्य के अनुरूप भी करें, उदा. रोटियां सेंकते समय, दाल-तरकारी में नमक एवं मिर्च डालते समय ।
२. रसोई बनाते समय हम जो विविध कृत्य करते हैं, उन्हें मन ही मन भगवान को बताकर अथवा उनसे पूछकर करें । इससे हम निरंतर भगवान से जुडे रहते हैं, सेवा करते हुए आनंद मिलता है तथा सेवा अल्प कालावधि में पूर्ण होती है ।
३. यह भाव रखें कि रसोई में प्रयुक्त बरतन निर्गुण चैतन्य से भरे हैं तथा उसमें हमने परात्पर गुरु डॉक्टरजी या अपने गुरु द्वारा दिया प्रसाद रखा है ।
४. भोजन बनाते समय अपशब्द न बोलना (गालियां न देना) : अपशब्द बोलते हुए बनाए गए अन्नपर तेजरूप आघातमय स्पन्दनों का विपरीत परिणाम होने के कारण ऐसे अन्न का सेवन करनेवाला व्यक्ति दुराचारी बनता है ।
५. क्रोध से बचना : क्रोध में भोजन बनाते समय क्रोध की वेगवान तेजरूप कष्टदायक स्पन्दनों से अन्न के पोषकतत्त्व जलने की सम्भावना बढती है ।
६. भोजन बनाने के उपरांत कृतज्ञता व्यक्त करें ।’
(संदर्भ : सनातन की ग्रंथमाला ‘आचारधर्म’)
….यह क्यों न करें ?
१. गर्भवती स्त्री यह न करे
अ. चौखट पर खडे रहना : इससे गर्भ को हानि होती है ।
आ. सायंकाल घर लौटनेवाले प्राणियों को देखना : भूत-पिशाच प्राणियों के पैरों में प्रवेश कर घर में घुसने का प्रयत्न करते हैं । इसलिए सायंकाल घर लौटते हुए प्राणियों को न देखें ।
२. अग्निहोत्रियों के लिए
अग्निहोत्री सन्धिकाल के पूर्व ही अग्नि प्रज्वलित करते हैं; परन्तु संधिकाल बीतने के उपरांत होम करते हैं ।
३. यथासंभव गंगा के अतिरिक्त अन्य नदियों के तट पर न बैठें ।
आरोहणं गवां पृष्ठे प्रेतधूमं सरित्तटम् ।
बालातपं दिवास्वापं त्यजेद्दीर्घं जिजीविषुः ।
– स्कन्दपुराण, ब्राह्मखण्ड, धर्मारण्यमाहात्म्य, अध्याय ६, श्लोक ६६, ६७
अर्थ : जो दीर्घकाल जीवित रहना चाहता है, वह गाय-बैल की पीठ पर न बैठे, चिता का धुंआ अपने शरीर को न लगने दे, (गंगा के अतिरिक्त दूसरी) नदी के तट पर न बैठे, उदयकालीन सूर्य की किरणों का स्पर्श न होने दे तथा दिन के समय सोना छोड दे । सात्त्विक तरंगों के कारण गंगातट का वायुमंडल शुद्ध एवं चैतन्यमय बना रहता है । इसलिए इस वातावरण में अनिष्ट शक्तियों द्वारा पीडा होने की आशंका अत्यल्प होती है । इसके विपरीत, अन्य नदियों के तट पर सात्त्विकता अपेक्षाकृत न्यून होती है । इसलिए नदी के किनारे बैठे जीव को अनिष्ट शक्तियों के संचार के कारण कष्ट होने की आशंका अधिक होती है । नदी के किनारे विचरनेवाली कनिष्ठ स्तर की अनिष्ट शक्तियों में पृथ्वी एवं आपतत्त्व प्रबल होने से, ये शक्तियां पृथ्वी एवं आप तत्त्वों से बनी मानवीय देह के साथ अल्पावधि में एकरूप हो सकती हैं । इसलिए यथासम्भव सन्ध्यासमय नदी के तट पर न बैठें एवं नदी के तट पर घूमने से बचें ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळजी के माध्यम से, २१.३.२००५, दोपहर १.४७)
४. रात्रिकाल में दर्पण न देखें !
‘रात का समय रज-तमात्मक वायुसंचार हेतु पूरक होता है । अतः वह सूक्ष्म रज-तमात्मक गतिविधियों एवं अनिष्ट शक्तियों
की सजगता से सम्बन्धित होता है । दर्पण में दिखाई देनेवाले देह का प्रतिबिंब देह से प्रक्षेपित जीव की सूक्ष्म तरंगों से अधिक सम्बन्धित होता है, इसलिए इस प्रतिबिंब पर वातावरण में स्थित प्राबल्यदर्शक अनिष्ट शक्तियां तुरंत ही आक्रमण कर सकती हैं ।
इसके विपरीत सवेरे वायुमंडल सात्त्विक तरंगों से युक्त होता है । अतः दर्पण में दिखाई देनेवाले सूक्ष्म प्रतिबिंब पर, वायुमंडल में स्थित सात्त्विक तरंगों की सहायता से आध्यात्मिक उपाय होते हैं एवं स्थूलदेह अपनेआप ही हलकी हो जाती है । इसलिए प्रातः दर्पण में प्रतिबिंब देखना लाभदायक है, तथापि वही प्रतिबिंब रज-तमात्मक गतिविधियों के लिए पूरक रात्रिकाल में देखना कष्टदायक हो सकता है ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळजीके माध्यमसे, २५.१२.२००७, रात्रि ७.५०)