‘रामायण’ एक ऐतिहासिक ग्रंथ है । हिन्दुस्थान सांस्कृतिक, धार्मिक, वैज्ञानिक एवं आर्थिक, ऐसे सभी क्षेत्रों में सर्वाेच्च स्थान पर विराजमान एकमात्र देश था । हिन्दुस्थान का यह वैभव पशुवत वृत्ति के इस्लामी एवं ईसाई विदेशी आक्रांताओं को सहन नहीं हुआ । उन्होंने हिन्दुस्थान पर असंख्य आक्रमण कर आर्थिक लूट की । विदेशी आक्रांताओं ने उनके ग्रंथों में ‘हिन्दुस्थान गरीब, पिछडा, जंगली एवं असंस्कृत देश है’, ऐसा मत व्यक्त कर हिन्दुस्थान को कलंकित करने का विभिन्न प्रकार से प्रयास किया । आज भी यह प्रयास विश्व स्तर पर रुका नहीं है ।
इस्लामी आक्रांताओं ने हिन्दुस्थान पर अनेक आक्रमण किए । बाबर उनमें से एक था । उसने श्रीराम की जन्मभूमि पर आक्रमण कर उनका मंदिर जमींदोज किया । इसके पीछे उनका प्रमुख उद्देश्य था, हिन्दुस्थान के आस्था के केंद्रों को नष्ट करना । श्रीराम हिन्दुओं की आस्था के केंद्र हैं, उसी प्रकार श्रीराम राजा भी थे । ‘हिन्दुओं को प्रेरणा देनेवाले श्रीराम के मंदिर को नष्ट किए बिना हिन्दुस्थान पर स्वयं का वर्चस्व स्थापित करना असंभव है’, यह पहचानकर ही बाबर ने श्रीराम का मंदिर ध्वस्त कर वहां उसने अपने पंथ की साक्ष देनेवाली मस्जिद बनाई ।
प्रभु श्रीराम की विशेषताश्रीराम उत्तम रणनीतिकार थे । अपराजित योद्धा के रूप में उनकी ख्याति थी । उनकी रणनीति अनाकलनीय है । उनके शौर्य की तुलना किसी से नहीं की जा सकती । युद्ध करने से पूर्व उन्होंने एक ही बार शत्रु का मानसिक परिवर्तन करने का प्रयास किया, अर्थात शत्रु को स्वयं में सुधार लाने का एक ही बार अवसर दिया । शत्रु को जब सभ्यता की अथवा समझदारी की भाषा समझ में नहीं आती, तब शस्त्र के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाता, यह प्रभु रामचंद्रजी ने अपने कार्य से दिखा दिया है । |
१. शत्रु का प्रतिशोध लेकर राष्ट्रभक्ति प्रकट करना अपराध नहीं !
रामजन्मभूमि पर मस्जिद बनाकर बाबर अपने देश में चला गया । शत्रु की भूमि पर उसके आस्था के केंद्रों को नष्ट कर उस स्थान पर स्वयं के आस्था के केंद्र का स्मारक बनाने में वह सफल रहा । बाबर द्वारा रामजन्मभूमि पर खडी की गई मस्जिद अर्थात बाबर की ‘विजय का स्मारक’ है । बाबर हिन्दुओं का शत्रु होने के कारण शत्रु के विजय का स्मारक हिन्दुओं की दृष्टि से पराजय का स्मारक प्रमाणित होता है । राष्ट्राभिमानी जनता को राष्ट्र एवं संस्कृति का गौरव संजोने हेतु ऐसे पराजय के स्मारकों को जमींदोज करना होता है तथा वैसे करना प्रत्येक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक का कर्तव्य है । हिन्दुस्थान के नागरिकों ने बाबर की विजय का स्मारक ध्वस्त कर राष्ट्रीय पराक्रम किया है । शत्रु का प्रतिशोध लेने हेतु हिन्दुओं के द्वारा स्वयं के आस्था के केंद्र को अत्यंत आदरपूर्वक पुनर्निर्मित करना हिन्दुओं के स्वाभिमान का लक्षण है । अतः इस प्रकार राष्ट्रभक्ति प्रकट करना अपराध नहीं होता ।
पुरातत्व विभाग ने खुदाई कर वहां हिन्दू मंदिर होने के प्रमाण प्रस्तुत किए । बाबर ने जिस स्थान पर मस्जिद बनाई, उसके नीचे मंदिर के अवशेष मिले । इससे प्रमाणित होनेवाली बात यह कि बाबर के द्वारा निर्मित मस्जिद अवैध थी । ऐसे अवैध निर्माणकार्य को नष्ट कर न्याय स्थापित किया जाता है, तो वह किसी को भी अन्याय नहीं लगना चाहिए । स्वयं को सुसंस्कृत कहलानेवाले लोगों को इतनी प्रामाणिकता दिखाना अपेक्षित है ।
२. आदर्श शासक प्रभु श्रीराम !
प्रभु श्रीराम शासक हैं । उन्होंने राज्य कैसे चलाना चाहिए, इसका आदर्श स्थापित किया । उनके गुणों का वर्णन करते-करते महर्षि वाल्मीकि की लेखनी भी थक गई । श्रीराम के लिए ‘आदर्श राम’, ‘पुरुषोत्तम राम’ जैसे लगाए गए विशेषण भी अधूरे सिद्ध होते हैं । न्याय, नीति एवं सत्य के मार्ग पर चलकर स्वयं को ‘आदर्श शासक’ के रूप में प्रस्तुत करना प्रभु श्रीराम का लौकिक है । ‘वाल्मीकि रामायण’ एक अद्भुत ग्रंथ है । जब-जब पतन का समय आया, तब-तब द्रष्टाओं ने राष्ट्र के पुनरुत्थान हेतु रामायण का उपयोग किया ।
म्लेंच्छ सत्ता के चंगुल में फंसे महाराष्ट्र का जब पतन होने लगा, उस समय संत एकनाथ महाराजजी ने वाल्मीकि रामायण को आधार बनाकर पुनरुत्थान हेतु भावार्थ रामायण की रचना की ।
३. आदर्श राजतंत्र का उदाहरण है रामराज्य !
राजनीतिक सत्ता के लिए सगे भाई एक-दूसरे के प्राणों के भूखे बन जाते हैं । रामायण के भाई ‘आदर्श’ हैं । उनका एक-दूसरे के प्रति प्रेम, श्रद्धा, अपनापन, एक-दूसरे के प्रति लगाव उनके आचरण से सहजता से छलकता है ।
प्रभु श्रीराम का राज्याभिषेक होनेवाला था; परंतु उसके स्थान पर उन्हें १४ वर्षों के वनवास में भेजा गए । उन्होंने बडी सहजता से राजवस्त्र त्यागकर यतिवेश (संन्यासवस्त्र) धारण कर, वे वनवास चले गए । भरत को अयोध्या का राज्य सौंपने के लिए श्रीराम बहुत ही सहजता से तैयार हुए । उन्होंने संतोष के साथ वनवास स्वीकार किया, तथापित भारत ने श्रीराम के अधिकार पर अपने अधिकार का दावा न कर उनकी चरणपादुकाओं की राजसिंहासन पर स्थापना की तथा उसके उपरांत उन्होंने १४ वर्ष तक ‘प्रभु श्रीराम के प्रतिनिधि’ के रूप में संन्यस्त वृत्ति से अयोध्या का राज्य चलाया । श्रीराम के वनवास के लौटने के पश्चात भरत ने श्रीराम को पुनः राज्य लौटाया । विश्व में अन्यत्र ऐसा उदाहरण हमें कहीं देखने को नहीं मिलता । वाल्मीकि रामायण हिन्दुस्थान का ‘कौस्तुभमणि’ है । उसका तेज देखकर राष्ट्रीय पुनरुत्थान हो; इसके लिए रूसी भाषा में भी उसका अनुवाद किया गया है । आज भी हम अपेक्षा करते हैं कि रामराज्य की स्थापना हो । उसका कारण यही है । श्रीराम के राज्य का अर्थ है – न्याय से तथा नैतिकता से चलनेवाला राज्य !
‘राष्ट्रीय कर्तव्य का निर्वहन करते समय व्यक्तिगत स्वार्थ को बाजू में रखने के संस्कारों को प्राण से भी अधिक महत्त्व देकर संजोए जाते हैं’, ऐसा राज्य है । राज्य का प्रत्येक नागरिक राष्ट्र, धर्म, संस्कृति एवं कर्तव्य के प्रति निष्ठा रखकर स्वयं सम्मानपूर्वक जीवन जीता है तथा वह अन्यों से भी सम्मानपूर्वक व्यवहार करता है, ऐसा आदर्श समाज है रामराज्य ! रामायण काल की राजव्यवस्था नैतिकता एवं नैतिकता को अधिकाधिक महत्त्व देनेवाली थी । मानवीय समाज में जब नैतिकता का सूर्य उदित होकर विकृति का अंधकार नष्ट होता है तथा संस्कृति का प्रकाश आता है । जानकार बताते हैं कि ऐसे समय में भूतल पर रामराज्य अवतीर्ण होता है ।
४. न्यायाधीश राम केशव रानडे की रामराज्य के विषय में टिप्पणी
रामायण के युद्धकांड के १२८ वें सर्ग में हमें प्रभु श्रीराम का राज्य कैसा था ?, इस विषय में जानकारी पढने को मिलती है । इस संबंध में न्यायाधीश राम केशव रानडे के द्वारा की गई टिप्पणी यहां उद्धृत करना नितांत आवश्यक है ।
‘रामराज्य का अर्थ है कि शासक सदाचारी हैं तथा लोग उनका अनुसरण कर रहे हैं । अनाचार, दुराचार एवं भ्रष्टाचार को जब सदाचार माना जाता है, वह राज्य रामराज्य कदापि नहीं हो सकता । हमारा राममय होने का अर्थ है सदाचारी एवं भ्रांत होना तथा श्रांत समाज का आधार बननेवाली पथ्यकर एवं पुष्टिकारक मात्रा यदि कौनसी होगी, तो वह राममात्रा है । आज मनुष्य सस्ता बन चुका है तथा मानवता महंगी बन चुकी है । मानवता तभी सस्ती होगी, जब मनुष्य को राममात्रा दी जाएगी । वसंत ऋतु का आगमन होने पर जिस प्रकार प्रकृति में सृष्टिदेवी के सौंदर्य का भंडार खुल जाता है, उस प्रकार रामराज्य का आरंभ होने के उपरांत उस संपूर्ण राज्य को मनोवेधी सुंदरता प्राप्त हो जाती है । यह सुंदरता देखकर हम आनंदित एवं परमानंदित होते हैं ।
५. वीर सावरकर के द्वारा अपने ‘हिन्दुत्व’ ग्रंथ में प्रभु श्रीराम का किया गया गौरव
वीर सावरकर ने अपने ‘हिन्दुत्व’ ग्रंथ में श्रीराम का गौरव करते हुए लिखा ।
‘अयोध्या के महाप्रतापी राजा रामचंद्र ने जब लंका में अपना विजयी कदम रखकर उत्तर हिमालय से लेकर दक्षिणी समुद्र तक की संपूर्ण भूमि को एकछत्र सत्ता के अंकित किया, उसी दिन सिंधुओं ने जिस स्वराष्ट्र एवं स्वदेश निर्मिति का महान कार्य अपना लिया था, उस कार्य की परिपूर्ति हुई । भौगोलिक मर्यादा की दृष्टि से उन्होंने अंतिम सीमा अपने नियंत्रण में की । जिस दिन अश्वमेध का विजयी अश्व बिना किसी प्रतिरोध के अजेय बनकर अयोध्या वापस लौटा, उस दिन अप्रमेय अशा प्रभु रामचंद्रजी के उस ‘लोकाभिराम रामभद्रा’ के साम्राज्य सिंहासन पर सम्राट के चक्रवर्तित्व के दर्शक भव्य श्वेत छत्र स्थापित हुआ । जिस दिन आर्य कहलानेवाले नृपश्रेष्ठों ने ही नहीं, अपितु हनुमान, सुग्रीव एवं बिभीषण ने भी उस सिंहासन के प्रति अपनी भक्तिपूर्वक राजनिष्ठा प्रस्तुत की, वही दिन वास्तविक हिन्दू राष्ट्र का तथा हिन्दू जात का जन्मदिवस सिद्ध हुआ । वही हमारा वास्तविक राष्ट्रीय दिवस ! क्योंकि आर्य एवं अनार्याें ने एक-दूसरे में संपूर्णतया घुलमिलकर एक नए संगठित राष्ट्र को जन्म दिया । इस दिन पूर्व की सभी पीढियों के प्रयास फलीभूत होकर उस पर राजनीतिक दृष्टि से सफलता का शिखर खडा किया । उसके उपरांत की सभी पीढियां जानबूझकर अथवा बिना जानबूझकर लडीं तथा लडते-लडते कभी-कभी उनका पतन हुआ । तब से हिन्दू जाति के पास समान ध्येय, ध्वज एवं समान कार्य की धरोहर परंपरा से चली आई ।’ (संदर्भ : ‘हिन्दुत्व’, लेखक : वीर सावरकर)
इसीलिए वीर सावरकर कहते हैं, ‘हिन्दू जिस दिन श्रीराम को भूल जाएंगे, उस दिन हिन्दुओं को ‘राम’ कहना पडेगा । इसका अर्थ यह है कि श्रीराम के बिना हिन्दू समाज का उत्कर्ष संभव नहीं है । श्रीराम हिन्दू समाज के प्रेरणास्रोत हैं । आर्य चाणक्य-चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर छत्रपति शिवाजी महाराज तथा क्रांतिकारियों तक सभी के प्रेरणास्रोत्र प्रभु रामचंद्रजी ही हैं ।
६. प्रभु श्रीराम के मंदिर का निर्माण होना, उन्हीं की कृपा !
विदेशी आक्रांताओं ने प्रभु श्रीराम को उन्हीं की भूमि से खदेड देने की योजना बनाई; परंतु हिन्दुस्थान की जनता ने न्यायालय का द्वार खटखटाकर न्याय प्राप्त किया । पुरातत्त्व विभाग ने वहां श्रीराम का मंदिर होने के प्रमाण प्रस्तुत किए । ५ शताब्दियों से भी अधिक काल तक लडी गई लडाई की विजय हुई । उसके कारण हम श्रीराम की जन्मभूमि पर उनका मंदिर बडे थाटबाट से बना सके । सोमवार, पौष शुक्ल द्वादशी, शक १९४५ (२२ जनवरी २०२४) को श्रीराम की प्राणप्रतिष्ठा कर हमने अपना आत्मसम्मान पुनः प्राप्त कर लिया, साथ ही हमारे द्वारा प्रथम हिन्दू सम्राट को सम्मानित करने का महान कार्य श्रीराम की कृपा से ही संपन्न हुआ; इसलिए उनके चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम कर हम उनके प्रति कृतज्ञताभाव एवं श्रद्धाभाव व्यक्त करेंगे ।’
जय श्रीराम !
– श्री. दुर्गेश जयवंत परुळकर, हिन्दुत्वनिष्ठ व्याख्याता तथा लेखक, डोंबिवली, मुंबई