अयोध्या का नाम आते ही भगवान श्रीराम की जन्मभूमि और उसके लिए निरंतर संघर्ष करनेवाले एक संगठन का नाम अनायास ही मानस पटल पर उभर आता है । और वह है, विश्व हिन्दू परिषद ! आइए, राममंदिर निर्माण का इतिहास जानते हैं, इन्हीं से !
१. श्रीराम मंदिर बचाने के लिए १ लाख ७६ सहस्र रामभक्तों ने किए प्राणार्पण
मंदिर के ध्वंस का मुख्य कारण हिन्दू समाज की आस्था पर प्रहार कर बलपूर्वक धर्मांतरण करवाकर मुसलमान बनाने की मानसिकता ही थी । मंदिर पर हुए इस प्रथम प्रहार को रोकने हेतु १५ दिन तक लगातार संघर्ष चला । इन १५ दिनों में लगभग १.७६ लाख रामभक्तों ने बलिदान दिया; किंतु अडियल मुगलिया सल्तनत ने आखिर तोपों से मंदिर को उडा ही दिया । १५२८ से लेकर १९४९ तक के कालखंड में भिन्न-भिन्न समय पर लगभग ७६ युद्धों में लाखों रामभक्तों ने अपने जीवन का बलिदान दिया । कभी हम जीते, तो कभी थम गए; किंतु भगवान की जन्मभूमि पर हमने अपना दावा कभी नहीं त्यागा ।
कभी कोई राजा लडा, तो कभी कोई जागीरदार, कभी कोई संत लडा, तो कभी कोई सामान्य नागरिक, कभी दर्शन-पूजन निकट से किया तो कभी बहुत दूर से ही, कभी वहां भगवान को मूर्ति रूप में विराजमान देखा, तो कभी मात्र उनकी जन्मभूमि के ही दर्शन मिले । कभी मंदिर में दर्शन मिले, तो कभी चबूतरे पर बने टाट के टेंट में । रामभक्तों के मन में वेदना तो रहती ही थी, किंतु एक संतोष भी था कि चलो जैसा भी है, पावन जन्मभूमि दर्शन का सौभाग्य तो मिला, भव्य मंदिर भी कभी न कभी बनेगा । जो भी भक्त अयोध्या आता, एक गहरी वेदना तथा एक संकल्प मन में धारण करके जाता कि ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर भव्य बनाएंगे’।
२. रामजन्मभूमि के लिए अनेक वर्ष चली न्यायालयीन लडाई
यद्यपि १८८५ में भी एक निर्णय जन्मभूमि के पक्ष में तत्कालीन अंग्रेज सरकार के काल में न्यायालय ने दिया था; किंतु स्वतंत्र भारत में पहला वाद अयोध्या निवासी श्री. गोपाल सिंह विशारद द्वारा जनवरी १९५० में फैजाबाद के जिला न्यायालय में भगवान के दर्शन-पूजन की अनुमति हेतु दायर किया गया । इसे उच्च न्यायालय ने भी पुष्ट कर दिया । दूसरा वाद रामानंद संप्रदाय के साधु परमहंस श्री रामचन्द्र दासजी द्वारा ५ दिसंबर १९५० को दायर किया गया, जिसे अगस्त १९९० में वापस ले लिया गया । तीसरा श्रीपंच रामानंदी निर्मोही अखाडे ने दिसंबर १९५७ में तथा चौथे दिसंबर १९६१ में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के बाद पंचम वाद भगवान श्रीराम लला विराजमान व स्थान श्रीराम जन्मभूमि के द्वारा जुलाई १९८९ में दायर किया गया ।
३. रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए भूतपूर्व प्रधानमंत्री कांग्रेस के गुलजारीलाल नंदा एवं दाऊ दयाल खन्ना का आवाहन
१९४९ से लगातार कानूनी कार्यवाही तो कछुए की चाल चलती रही, किंतु प्रकरण में वास्तविक मोड तब आया, जब १९६४ में जन्मे विश्व हिन्दू परिषद ने अपनी तरुणाई के १९वें वर्ष में प्रवेश किया । आंदोलन की कमान तो संभाली, किंतु उसका श्रेय स्वयं न लेकर किसी और को देता चला गया । श्रीराम जन्मभूमि के साथ काशी और मथुरा की मुक्ति हेतु ६ मार्च १९८३ को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुए एक हिन्दू सम्मेलन में इस हेतु आवाहन करनेवाले कोई और नहीं, अपितु देश के दो बार अंतरिम प्रधानमंत्री रहे श्री. गुलजारीलाल नंदा तथा राज्य के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री व कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्री. दाऊदयाल खन्ना थे । इस संबंध में इन नेताओं ने एक पत्र भी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को लिखा ।
४. रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए विश्व हिन्दू परिषद की पूरे देश में यात्रा
बस, इसके बाद तो एक के बाद एक श्रीराम जन्मभूमि की मुक्ति के लिए आंदोलनों की एक शृंखला-सी बन गई । यद्यपि इन आंदोलनों की औपचारिक घोषणा से पूर्व विश्व हिन्दू परिषद (विहिंप) ने १९८३ के दिसंबर माह में देशव्यापी एकात्मता यज्ञ की एक अनूठी योजना बनाई, जिसके अंतर्गत ‘जाति-भाषा अनेक – सारा भारत एक’ के राम भाव से प्रेरित होकर हरिद्वार से रामेश्वरम् तथा गंगासागर से सोमनाथ तक संपूर्ण भारत को एक करने के लिए छोटी-बडी लगभग एक १०० यात्राओं ने ५० हजार कि.मी. से अधिक का मार्ग तय किया और २९ दिसंबर को इन सभी का संगम नागपुर में हुआ ।
५. फरवरी १९८६ में रामलला की बंदीवास से मुक्तता
उपरोक्त हिन्दू सम्मेलन के आवाहन तथा एकात्मता यात्राओं के उत्साह ने जन्मभूमि की मुक्ति हेतु नव-ऊर्जा का संचार किया । परिणामस्वरूप २१ जुलाई १९८४ को अयोध्या के भगवताचार्य आश्रम में ‘श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति’ का गठन हुआ । गोरक्ष पीठाधीश्वर पूज्य महंत अवैद्यनाथजी महाराज को इसका अध्यक्ष तथा श्री. दाऊदयाल खन्ना को महामंत्री बनाया गया । राम और राष्ट्र के प्रति इनकी श्रद्धा ने उन्हें इस पावन कार्य से जोड दिया । इसके उपरांत तो एक के पश्चात एक कार्यक्रम आंदोलन व संगठन बनते चले गए और राम भक्तों का कारवां भी बनता चला गया । १९८४ श्रीराम जानकी रथयात्राएं तथा उनकी सुरक्षा हेतु युवाओं की एक वाहिनी को बजरंग दल का नाम देकर उसका गठन हुआ । जन्मभूमि की तालाबंदी के विरुद्ध अभियान तेज करने हेतु धर्मस्थल रक्षा समिति का गठन हुआ । उडुपी में ३१ अक्टूबर १९८५ को हुई धर्मसंसद के एक आवाहन तथा पूज्य महंत रामचन्द्र दास परमहंस द्वारा आत्म-बलिदान की चेतावनी के फलस्वरूप १ फरवरी १९८६ को रामलला ताले से मुक्त हो गए ।
६. वर्ष १९९० में कारसेवा की घोषणा
देवोत्थान एकादशी अर्थात ९ नवंबर १९८९ को देश के चार लाख गांवों से पूजित शिलाओं के माध्यम से हरिजन बंधु श्री कामेश्वर चौपाल के हाथों पूज्य संतों की उपस्थिति में मंदिर का शिलान्यास हुआ । इस निमित्त पूरे देश में लगभग ७ सहस्र स्थानों पर यज्ञ किए गए । तदुपरांत पूज्य संतों की केन्द्रीय मार्गदर्शक मण्डल की बैठक के निर्णयानुसार ३० अक्टूबर १९९० को कारसेवा की घोषणा ने राजनैतिक गलियारों में हल्ला मचा दिया । उसे रोकने के लिए केंद्र की वी.पी. सिंह सरकार तथा राज्य की मुलायम सिंह सरकार की लाख चेतावनियों, लाठी-डंडों व गोलियों को झेलते हुए कारसेवक लाखों की संख्या में, किसी भी मार्ग से, किसी भी वेश में व किसी भी ढंग से ‘राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’ के मर्मस्पर्शी व गगन भेदी उद्घोषों के साथ, सिर पर केसरिया पटका बांधे अयोध्या पहुंच गए । दंभी शासक मुलायम सिंह ने कहा था कि ‘परिंदा भी पर नहीं मार सकता’। उत्साही रामभक्तों ने गुंबद पर भगवा भी फहरा दिया । आंदोलन के महानायक स्वर्गीय श्री. अशोक सिंहलजी भी लहूलुहान हुए थे ।
७. रामजन्मभूमि की लडाई में विविध बाधाएं आना और उपाययोजना निकलना
तदुपरांत तो आडवाणीजी की रथयात्रा हो या वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर व पी.वी. नरसिंह राव के साथ वार्ताओं का दौर, ६ दिसंबर १९९२ को बाबरी ढांचा ध्वंस का मामला हो या सितंबर २०१० का माननीय उच्च न्यायालय का निर्णय, माननीय सर्वोच्च न्यायालय की सुनवाई में बाधा डालने के हिन्दूद्रोही व कांग्रेसियों द्वारा न्यायालय पर किए गए अनवरत हमले हों या ९ सितंबर २०१९ का ऐतिहासिक सर्वसम्मत आदेश, एक के बाद एक बाधाएं आती गईं, समाधान निकलता गया और सम्पूर्ण विश्व टकटकी लगाकर देखता रहा ।
८. ‘श्रीराम जन्मभूमि निधि समर्पण अभियान’ के अंतर्गत ६५ करोड हिन्दुओं से संपर्क
मा. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के साथ ही आंदोलनों और कानूनी दांवपेंचों का तो अंत हो गया; किंतु वर्ष २०२१ की १५ जनवरी से प्रारंभ हुए ४४ दिवसीय श्रीराम जन्मभूमि निधि समर्पण अभियान ने भी विश्वभर के जनजागरण अभियानों में एक नया कीर्तिमान बना डाला । कोविड संकट के विकराल दंश को झलने के पश्चात भी ‘यह राम मंदिर मेरा है । रामजी के आदर्श व जीवन मूल्य मेरे हैं । हम सब मिलकर रामराज्य की ओर बढेंगे । कितनी ही बाधाएं आएं, अविचल रहकर, कंटकाकीर्ण मार्ग को बुहारते हुए संपूर्ण हिन्दू समाज को साथ लेकर चलेंगे’, इस भाव से रामभक्त एक बार फिर जुट गए । देश के कुल ६.५ लाख में से ५.२५ लाख गांवों में १३ करोड से अधिक परिवारों के ६५ करोड हिन्दुओं से संपर्क हेतु १० लाख टोलियों में ४० लाख कार्यकर्ता जुटे थे ।
महामाहिम राष्ट्रपति महोदय से लेकर अधिकांश राज्यों के राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, केंद्र राज्यों के मंत्रियों, प्रतिष्ठित हस्तियों से लेकर समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से जुडे विशिष्ट लोगों, पूज्य संतों के अतिरिक्त आर्थिक व सामाजिक रूप से देश के सभी सबल-निर्बल राम-भक्तों ने अपनी श्रद्धा-भक्ति व शक्ति से अधिक धन समर्पित किया । माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा २०२० में किए गए भूमिपूजन का दृश्य भी हम सभी ने देखा । अब आगामी २२ जनवरी को रामलला अपने भव्य व दिव्य मूल गर्भगृह में पुन: विराजमान हो जाएंगे ।
९. ‘हिन्दू संगठित हो गए, तो राष्ट्र भी शक्तिशाली हो जाएगा’, यही विश्व हिन्दू परिषद का उद्देश्य है
१९८३ से २०२३ अर्थात पूरे चार दशक तक, विहिंप की योजना, रचना, संचालन व संकटमोचक के रूप में इस आंदोलन में योगदान को तो संपूर्ण विश्व ने प्रत्यक्ष देखा; किंतु उसने इस सबका श्रेय स्वयं न लेकर सदैव पूज्य संतों व हिन्दू समाज को ही दिया । कभी मार्गदर्शक मंडल, तो कभी जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति, कभी मंदिर जीर्णोद्धार समिति, तो कभी श्रीराम जन्मभूमि न्यास, कभी श्रीराम जन्म भूमि मुक्ति संघर्ष समिति, तो अब श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास । सभी जगह पूज्य संतों का न केवल मार्गदर्शन लिया, अपितु उन्हीं को सदैव आगे रखकर श्रेय दिया । विहिप ने प्रत्येक छोटी-बडी सफलता का श्रेय सदैव पूज्य संतों व हिन्दू समाज को ही दिया और स्वयं आत्म-विलोकी या निर्लिप्त भाव से जन्मभूमि की सेवा तथा हिन्दू समाज के जागरण व संगठन के पुनीत कार्य में सक्रिय रही ।
उसका एक ही उद्देश्य रहा कि हिन्दू संगठित होगा, तो राष्ट्र भी शक्तिशाली बनेगा । हिन्दू समाज से ऊंच-नीच व भेद-भाव का अंत होगा, तो समाज समरस व खुशहाल बनेगा । इसी दौरान अनेक अन्य संघर्षों के साथ विहिंप ने श्री रामसेतु तथा अमरनाथ यात्रा की सुरक्षा हेतु भी बडी व निर्णायक लडाई लडी । यह भाव वास्तव में विहिंप ने श्रीराम भक्त हनुमानजी से सीखा । उन्होंने भगवान श्रीराम के हर दुष्कर कार्य को सहज बनाया, किंतु उसका श्रेय स्वयं श्रीराम अथवा अपने अन्य साथियों को ही दिया ।