श्री दत्त जयंती (दि. २६ दिसंबर २०२३)

मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन मृग नक्षत्र पर सायंकाल भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ, इसलिए इस दिन भगवान दत्तात्रेय का जन्मोत्सव सर्व दत्तक्षेत्रों में मनाया जाता है  ।

इतिहास

‘पूर्व के काल में भूतल पर स्थूल और सूक्ष्म रूपों में आसुरी शक्तियां बहुत बढ गई थीं । उन्हें दैत्य कहा जाता था । इन आसुरी शक्तियों को नष्ट करने के देवगणों के प्रयास असफल रहे । तब ब्रह्मदेव के आदेशानुसार विभिन्न स्थानों पर विविध रूपों में भगवान दत्तात्रेय को अवतार लेना पडा । तदुपरांत दैत्य नष्ट हो गए । वह दिन दत्त जयंती के रूप में मनाया जाता है ।’

दत्ततत्त्व का महत्त्व

दत्त जयंती पर दत्ततत्त्व पृथ्वी पर सदा की तुलना में १००० गुना कार्यरत रहता है । इस दिन भगवान दत्तात्रेय की भक्तिभाव से नामजपादि उपासना करने पर दत्ततत्त्व का अधिकाधिक लाभ मिलने में सहायता होती है ।

जन्मोत्सव मनाना

दत्त जयंती मनाने संबंधी शास्त्रोक्त विशिष्ट विधि नहीं पाई जाती । इस उत्सव से सात दिन पूर्व गुरुचरित्र का पारायण करने का विधान है । इसी को गुरुचरित्र सप्ताह कहते हैं । भजन, पूजन एवं विशेषतः कीर्तन इत्यादि भक्ति के प्रकार प्रचलित हैं । महाराष्ट्र में औदुंबर, नरसोबाकी वाडी, गाणगापुर इत्यादि दत्तक्षेत्रों में इस उत्सव का विशेष महत्त्व है । तमिलनाडु में भी दत्त जयंती की प्रथा है ।

प्रार्थना

१. हे भगवान दत्तात्रेय, अतृप्त पितरों की पीडा से मेरी रक्षा कीजिए । आपके नाम का सुरक्षा-कवच मेरे सर्व ओर नित्य बना रहे, ऐसी आपके चरणों में प्रार्थना है ।

२. हे भगवान दत्तात्रेय, भुवर्लोक में अटके मेरे अतृप्त पितरों को आगे जाने के लिए गति दीजिए ।

(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘भगवान दत्तात्रेय’)


दत्तात्रेय अवतार

१. भगवान दत्तात्रेय का प्रकट होना

‘सृष्टि का निर्माण करनेवाले रजोगुणी ब्रह्मदेव, सृष्टि का पालन करनेवाले सत्त्वगुणी विष्णु तथा सृष्टि का विनाश करनेवाले तमोगुणी रुद्र, ये तीनों देव अतिथि रूप में अनसूया का सतीत्व देखने के लिए भिक्षा मांगने के निमित्त से आए; परंतु अनसूया के पातिव्रत्य के प्रभाव से तीनों देव बालक बन गए । अत्रि तथा अनसूया ने उन देवताओं से वर मांगा कि ‘वे उनके पुत्र बनकर रहें ।’ तब भगवान ने कहा, ‘दत्त’ अर्थात ‘दिया’ । अत्रि के पुत्र इसलिए आत्रेय । इस रीति से उन्हें ‘दत्तात्रेय’
नाम मिला ।

२. अत्रि, अनसूया तथा दत्तात्रेय नामों का अर्थ

अ. ‘त्रि अर्थात त्रिगुण ।’ जिनपर त्रिगुणों का प्रभाव न हो, वह ‘अत्रि’।

आ. असूया अर्थात द्वेष, मत्सर इत्यादि दुष्ट भावनाएं हैं । यह भावनाएं जिसमें नहीं हैं, वह अनसूया ।

इ. दत्तात्रेय अर्थात ज्ञान । साधक जब गुणातीत होता है, तब उसकी वृत्ति दोषरहित होती है । तभी ज्ञान प्रगट होता है ।’

(सौजन्य : श्री. वि.गो. देसाई, ‘गीता मंदिर पत्रिका’, दिसंबर १९९८)


‘श्री गुरुदेव दत्त’ जप क्यों करें ?

आजकल अधिकांश लोग श्राद्ध तथा साधना भी नहीं करते, इसलिए उन्हें पितृदोष (पूर्वजों की अतृप्ति) के कारण कष्ट होता है । परिणामस्वरूप विवाह, वैवाहिक संबंध, गर्भधारण, वंशवृद्धि इ. में बाधा होना, मंदबुद्धि या विकलांग संतान होना, शारीरिक रोग, व्यसनादि समस्याएं हो सकती हैं । इन समस्याओं के समाधान हेतु कष्ट की तीव्रता के अनुसार ‘श्री गुरुदेव दत्त’ (दत्तात्रेय देवता का) जप प्रतिदिन न्यूनतम २ घंटे (२४ माला) एवं अधिकतम ६ घंटे (७२ माला) करें ।

दत्त के निर्गुण तत्त्व के पादुकाओं का महत्त्व

पादुकाओं के निर्गुण तत्त्व से साधक के मन, चित्त, बुद्धि एवं अहं, इन सूक्ष्म देहों की शुद्धि होती है । उससे दत्तभक्त दत्त के सगुण रूप के साथ-साथ निर्गुण रूप, अर्थात दत्ततत्त्व से शीघ्रता से एकरूप होता है ।’

(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘भगवान दत्तात्रेय’)