सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळजी द्वारा व्यष्टि एवं समष्टि साधना के विषय में किया गया मार्गदर्शन

‘अनेक वर्ष साधना कर भी जिनकी प्रगति नहीं हुई है, ऐसे कुछ साधकों को सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की कृपा से महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय के सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळजी का सत्संग प्राप्त हुआ । उन्होंने इन साधकों की व्यष्टि एवं समष्टि साधना की समस्याओं को समझा तथा उनका मार्गदर्शन किया । इस मार्गदर्शन के सूत्र यहां दिए हैं । (भाग १)

सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळजी

१. खुले मन से आचरण करने का महत्त्व

१ अ. मन जितना खाली रहेगा, उतना अधिक भगवान से आंतरिक सान्निध्य होना : हममें विद्यमान ‘अपेक्षाएं, परिस्थिति का स्वीकार न करना, निष्कर्ष निकालना’ इत्यादि दोषों के कारण अनेक बार किसी प्रसंग से बाहर निकलने में हमें समय लगता है । उस प्रसंग के विषय में हम अति विचार करते हैं । मन ही मन में युक्तिवाद करते रहते हैं । ऐसी स्थिति में किसी के साथ बात करके अथवा भगवान से आत्मनिवेदन कर मन को खाली करें । मन जितना खाली रहेगा, उतना भगवान से अधिक आंतरिक सान्निध्य बना रहता है । ‘हमारा मन कैसे निरंतर भगवान के विचारों में रहेगा ?’, इसकी ओर ध्यान देकर बाह्य बातों की अनदेखी करें । हमें भगवान के प्रवाह में बहते रहना चाहिए । चाहे कितनी भी बाधाएं क्यों न आएं; परंतु तब भी दृढता से आगे बढता रहना चाहिए ।

१ आ. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी द्वारा एक ही शब्द को ३ दिन पुनः-पुनः पूछा जाना तथा इससे परिपूर्ण सेवा करने के लिए ‘मैं पुनः कैसे पूछूं ?’, इस प्रकार का संकोच न रखना सीखना : एक बार सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी मेरे (सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळजी की) पास बैठे थे तथा उन्होंने मुझसे ‘एक शब्द कैसे लिखना चाहिए ?’, यह पूछा । मैंने उन्हें वह शब्द बताया । दूसरे तथा तीसरे दिन भी उन्होंने मुझसे वही शब्द पूछकर कहा, ‘‘मैं आपसे एक ही बात पुनः-पुनः पूछ रहा हूं न !’’ इससे उन्हें सिखाना था कि ‘कोई सूत्र समझ में नहीं आया, तो उसे खुले मन से पुनः-पुनः पूछना चाहिए ।’ ‘मैं पुनः-पुनः कैसे पूछूं ?’, यह संकोच नहीं रखना चाहिए । स्वयं की प्रतिमा नहीं संजोनी चाहिए । हमें ठीक से समझ में नहीं आया, तो सेवा में हमसे चूकें होती हैं । सेवा करते समय अपने सहसाधकों से भी पूछना चाहिए; क्योंकि सभी की बुद्धि तथा विचार करने की पद्धतियां भिन्न होती हैं । सबने मिलकर सेवा की, तो उससे सेवा की फलोत्पत्ति बहुत अच्छी मिलती है ।

१ इ. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी का कोई भी कृति करते समय अन्यों से भी पूछना; क्योंकि खुलकर रहने के कारण सेवा परिपूर्ण होने के साथ ही अहं भी न्यून होना : सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी कोई भी कृति करते समय अन्यों से भी पूछते हैं । अन्यों से हमें उस कृति के विषय में और समझ में आता है । इससे परिपूर्ण सेवा होती है, साथ ही उससे अहं भी अल्प होता है । वे यदि ऐसा पूछते हैं, तो हम क्यों नहीं पूछते ? एक बार उन्होंने मुझसे एक ही शब्द तीन बार पूछा, इतना खुलकर वे पूछते हैं । हमें भी खुलकर रहना चाहिए ।

१ ई. खुलकर बात करने की कृति होने के लिए मन पर संस्कार होना आवश्यक तथा स्वसूचना देने से अंतर्मन को उसका भान होना

प्रश्न : खुलकर बात करने का महत्त्व तो ज्ञात है । खुलकर न बोलने की हानि भी अनुभव की है । किसी ने खुलकर बोलने के लिए कहा, तो लगता है, ‘हमें वैसे बोलना चाहिए’; परंतु कृति नहीं होती ।

सद्गुरु डॉ. गाडगीळजी : मन पर खुलकर बोलने का संस्कार होने हेतु निरंतर प्रयास ही करना पडेगा । ‘खुलकर बोलना चाहिए’, यह बुद्धि को ज्ञात होता है; परंतु अंतर्मन पर उसका संस्कार न होने के कारण उसका क्रियान्वयन नहीं होता । इसके लिए अंतर्मन को स्वसूचना दें । आंतरिक प्रगति होना आवश्यक है ।

२. भाव कैसे बढाएं ?

अ. कोई भी कृति अथवा सेवा करते समय, ‘भगवान सुझाते हैं’, यह भाव रखें ।

आ. प्रत्येक कृति करते समय यह सोचें कि इसे ईश्वर से कैसे जोड सकते हैं ।

इ. भगवान से निकटता होनी चाहिए । इसके लिए प्रत्येक सेवा करते समय उन्हें पुकारें । प्रत्येक कृति उनसे पूछकर ही करें ।

ई. महाप्रसाद ग्रहण करते समय प्रत्येक निवाले के साथ प्रार्थना करने का प्रयास करें, जिससे आंतरिक सान्निध्य बढे ।

उ. निरंतर प्रार्थना करना तथा कृतज्ञता व्यक्त करना महत्त्वपूर्ण है । उसके कारण भावजागृति होगी ।

ऊ. ‘भगवान ने ही सब कुछ किया’, ऐसा निरंतर भाव रखें ।

ए. स्वयं में शरणागतभाव जागृत होने के लिए प्रयास करें ।

ऐ. मन को खाली न रखें, उसे भाव में व्यस्त रखें । प्रत्येक ३० मिनट उपरांत की हुई कृतियों का ब्योरा लें ।

३. अंतर्मन की साधना बढाने के लिए आवश्यक प्रयासों से संबंधित सूत्र

३ अ. कर्तापन न्यून (कम) करने के लिए आवश्यक प्रयास

१. ‘भगवान मेरी कितनी सहायता करते हैं । वे ही सबकुछ करवा लेते हैं’, यह कृतज्ञभाव होना चाहिए ।

२. जब कोई निर्णय न ले पा रहे हों, तो उस विषय में भगवान से पूछें । उस समय जो पहला उत्तर मिलता है, वह उचित होता है । भगवान से श्रद्धापूर्वक प्रश्न पूछा, तो भगवान उत्तर देते ही हैं । यदि भगवान ने उत्तर नहीं दिया, तो सहसाधक से पूछें; क्योंकि उसमें भी भगवान हैं ही !

३ आ. ‘क्या मन का त्याग होता है ?’, इसकी ओर ध्यान देना : ‘क्या सेवा करते समय मन का त्याग होता है ?’, इसकी ओर ध्यान होना चाहिए । किसी से बात करते समय, साथ ही कोई भी कार्य करते समय निरंतर स्वयं पर ध्यान रखें । मन में आनेवाली प्रतिक्रियाएं तथा अपेक्षाओं की प्रविष्टि करें तथा प्रतिक्रियाएं मन में न आएं; इसके लिए प्रयास करें । उसके कारण धीरे-धीरे मन निर्मल बनता जाएगा ।

३ इ. मन चंचल होने के कारण साधना के लिए बार-बार प्रयास करना पडना तथा प्रयास करते समय भगवान से सहायता मिलना : हमें साधना करनी होती है; परंतु मन चंचल होने से साधना सहजता से साध्य नहीं होती । उसके लिए प्रयास ही करने पडेंगे । वर्ष २००५ में मैंने नामजप को सांस से जोडने का प्रयास करना आरंभ किया । उस समय मैं भगवान से बार-बार प्रार्थना करता था, ‘मुझे नामजप सांस से जोडना संभव हो’ । उसके लिए मैं स्वयं को चिकोटी काटता था । यह साध्य होने में मुझे १ वर्ष का समय लगा ।

३ ई. भावस्थिति बनी रहने के लिए कृतज्ञभाव बढाया, तो उससे निरंतर आंतरिक सान्निध्य बने रहकर अंतर्मन की साधना होना

प्रश्न : सेवा आरंभ करने से पूर्व अथवा सेवा के प्रथम चरण में मैं भाव अनुभव करता हूं; परंतु एक बार बुद्धि से अचूक सेवा करने का विचार आने पर उसके उपरांत बुद्धि कार्यरत होकर आंतरिक सान्निध्य नहीं बना रहता । उसके लिए क्या करना चाहिए ?

सद्गुरु डॉ. गाडगीळजी : सेवा करते समय भी भावस्थिति को बनाए रखना संभव है । आप भगवान से आंतरिक सान्निध्य बनाए रखने के लिए कृतज्ञभाव बढाएं । उसके लिए भगवान से सहायता लें । ‘भगवान ही हमें प्रत्येक विचार देते हैं’, इसे ध्यान में रखकर प्रत्येक बात साधना के रूप में करें । सेवा करते समय हमें कुछ सूझा, तो ‘क्या वह उचित है ?’, यह भगवान से ही पूछें । ‘सेवा और अच्छे ढंग से होने के लिए मैं क्या करूं ?’, यह भगवान से निरंतर पूछें । सेवा करते समय आनेवाली अनुभूतियां अनुभव करें, साथ ही सीखने का आनंद लें । सेवा करते समय प्राप्त अनुभूतियां तथा सीखने के लिए मिले सूत्र अन्यों को भी बताएं । उससे व्यापकता बढेगी । इससे अंतर्मन की साधना होगी ।

४. गुरुसेवा परिपूर्ण होने हेतु क्या करें ?

४ अ. सेवा करते समय वह यंत्रवत न हो; इसके लिए आवश्यक प्रयास : ‘अनेक बार अनेक वर्षाें से साधना कर रहे हैं, परंतु जिनकी प्रगति नहीं हुई, उन साधकों की बातों में यही रहता है कि हमारी सेवा यांत्रिक पद्धति से (मेकैनिकली) होती है ।

इसका उपाय यह है कि ‘सेवा करते समय भगवान क्या सिखा रहे हैं ? सहसाधकों की सहायता कैसे लेनी है ? सेवा दिनचर्या में होने के कारण सेवा में आनेवाली ‘एकरसता’ पर विजय कैसे प्राप्त करनी है ?’, इसका विचार करें । इसके संदर्भ में आगे सूत्र दिए हैं –

४ अ १. भगवान सेवा में समाहित सभी बातों को एक ही समय में न सुझाकर थोडा-थोडा सुझाते हैं; इसलिए उनके सुझाए अनुसार सेवा में आगे बढने से सेवाओं का सहजता से पूर्ण होना : जब कोई नई सेवा करनी होती है, उसका अनुभव न होने से अधिकतर साधकों के मन में, ‘अब गुरुसेवा में कैसे आगे बढें ?’, यह प्रश्न होता है । उसके कारण वह सेवा कठिन लगती है; परंतु ‘भगवान हमें सुझाते रहते हैं’, इस पर ध्यान दें, तो आनंद मिलता है । सेवा करते समय यह दृष्टिकोण रखना होगा । भगवान प्रत्येक बात एक ही समय पर नहीं सुझाते । वे थोडा-थोडा सुझाते हैं । भगवान के सुझाए अनुसार कृति करने पर भगवान उसके आगे क्या करना है यह सुझाते हैं । इस प्रकार हमें सेवा में आगे का मार्ग मिलता जाता है तथा उससे वह सेवा सहजता से पूर्ण होती है । इसके लिए भगवान के प्रति श्रद्धा रखें तथा उनका आज्ञापालन करें ।

४ अ २. सेवा करते समय सीखने की दृष्टि हो, तो उससे आनंद प्राप्त होकर उत्साह बढने से सेवा में एकरसता न होना : सेवा करते समय सीखने की दृष्टि हो, तो उससे आनंद मिलता है । आनंद मिलने से उत्साह आता है । इसलिए प्रतिदिन भले ही वही सेवा हो; परंतु उसमें ‘इस सेवा से क्या सीखने के लिए मिला ?’, यह सीखने की उत्कंठा होनी चाहिए ।

४ अ ३. सेवा करते समय आगे क्या करना है यह सूझे, इसके लिए भगवान से शरणागत भाव रखकर पूछना आवश्यक तथा हमें जो सीखने के लिए मिला, उसे अन्यों को बताने से हमारा आनंद दोगुना होना : हमें जितना सूझा, उतने पर हमें संतुष्ट नहीं रहना है । भगवान से निरंतर पूछते रहना है तथा उससे सीखते रहना है । हमें जो सीखने के लिए मिला, वह हम अन्यों को बताने लगे; तो उससे हमारा आनंद दोगुना हो जाता है । सेवा करते समय तुरंत ही सूझेगा, ऐसा नहीं है । इसके लिए शरणागति होनी चाहिए । ऐसा करने पर परिपूर्ण सेवा की लगन उत्पन्न होती है ।

४ अ ४. प्रमुख साधकों ने भिन्न-भिन्न परिवर्तन क्यों बताए ?, इसे समझ लिया; तो उससे परिपूर्ण सेवा की लगन उत्पन्न होकर ईश्वर से सहायता मिलना : ‘प्रमुख साधक जब किसी सेवा के विषय में एक बात बोलते हैं और दूसरे दिन कुछ भिन्न बोलते हैं; ‘तो इसका अध्ययन करना चाहिए कि सेवा के दृष्टिकोण में ऐसा परिवर्तन क्यों आता है ?’ इस विषय में समझ में नहीं आया, तो पूछ लें । मन में कोई भी शंका नहीं होनी चाहिए । इससे परिपूर्ण सेवा की लगन उत्पन्न होती है तथा लगन उत्पन्न होने पर ईश्वर से सहायता मिलती है । सेवा करते समय भावजागृति, अंतर्मन की साधना होना, लगन बढना तथा अहं न्यून (कम) होना; इसकी ओर ध्यान दें ।

४ आ. एक-दूसरे की सहायता से सेवा परिपूर्ण करने का प्रयास करना : सेवा करते समय जो नहीं आता, उस विषय में अन्यों से पूछें । ‘कोई कृति अथवा सेवा केवल मुझे ही समझ में आती है’, यह विचार न कर अन्यों से पूछकर उसे पूर्ण करें । एक-दूसरे की सहायता से सेवा को परिपूर्ण करने का प्रयास करें ।

४ इ. सेवा करते समय सहसाधकों से मतभिन्नता होने पर क्या करें ? : ‘कभी-कभी सेवा के संबंध में हमारा एक मत होता है, जबकि सहसाधक का मत भिन्न होता है । ऐसे में हम पीछे हटकर सहसाधक के मत के अनुसार आचरण करते हैं; परंतु कभी-कभी हमारा ही मत अधिक उचित होने की बात मन में रह जाती है । ऐसी स्थिति में भगवान से ‘इसमें अधिक उचित क्या है ?’, इस बात को प्रार्थनापूर्वक पूछें तथा स्वयं का मत उचित लगता हो, तो उसे सहसाधक को कारण सहित समझाएं । इससे मतभिन्नता दूर होती है । तब भी यदि सामनेवाले साधक को वह बात अच्छी नहीं लगी, तो किसी तीसरे साधक का मत लें; परंतु किसी भी स्थिति में सूत्र को अधूरा न छोडें, अन्यथा वह विचार हमारे मन में रह जाता है तथा आगे की सेवा में हमारा मन नहीं लगता ।

४ ई. प्रत्येक कृति को ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ बनाने का प्रयास करना : हमसे सेवा न होकर काम होता हो, तो उसका रूपांतरण सेवा में होने हेतु निरंतर प्रयास करें । प्रत्येक कृति को ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ बनाने का प्रयास करें । सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की प्रत्येक कृति ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ होती है । जब हम कोई कृति करना आरंभ करते हैं, उस समय ‘क्या वे इसी प्रकार यह कृति करते ?’, यह विचार कर वह कृति करें ।

(क्रमशः अगले अंक में)

– सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळ, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (१०.१०.२०२३)