अ. धर्मरक्षा से संबंधित सूत्र
१. धर्म आचारमूलक है । धर्म का आचरण करने से धर्म की रक्षा होती है ।
२. धर्म-अधर्म की लडाई में सर्वप्रथम अर्जुन की भांति स्वयं से लडना पडता है ।
३. आज हिन्दुओं के पास संख्याबल, ज्ञान तथा सभी समस्याओं का समाधान है; परंतु तब भी उनकी समस्याओं का समाधान नहीं होता; क्योंकि हिन्दुओं का सामर्थ्य उपासना एवं तपस्या में है । जब तक हम अपने परिवार, जाति, समाज, प्रांत, राजनीतिक दल आदि की पहचान छोडकर केवल धर्म को अपनी पहचान नहीं बनाएंगे, तब तक हमारी समस्याओं का समाधान नहीं होगा ।
४. विश्वकल्याण हेतु हमारे ऋषि-मुनियों ने अपनी अस्थियां भी दे दीं । केवल भक्त ही इस प्रकार से समर्पण कर सकता है । स्वयं में निहित चैतन्य को जागृत करें तथा उसके उपरांत धर्माधिष्ठित कार्य का संकल्प लें ।
५. हमारी धर्मपरंपरा ने तत्त्व विशद किया है । धर्म में प्रत्येक समस्या का समाधान है; इसलिए हमें मात्र तत्त्व ज्ञात होना चाहिए ।
आ. राष्ट्र् रक्षा से संबंधित सूत्र
१. राष्ट्र का संचालन भावना से नहीं, कूटनीति से करना चाहिए ।
२. सत्ता, स्वार्थ, स्त्री, अहंकार एवं धन की तृष्णा हो, तो उनकी आपूर्ति के लिए संघर्ष एवं युद्ध होगा ही !
३. हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों को समान ध्येय लेकर कार्य करना चाहिए । अपने भेदों को ही देखते रहे, तो हम कभी भी एकत्रित नहीं हो पाएंगे ।
१. भगवान ने हिन्दुओं की रक्षा का नहीं, अपितु भक्तों की रक्षा का दायित्व लिया है । २. माया का आवरण दूर करने के लिए साधना की ऊर्जा से प्रसारित करने पर ही धर्मरक्षा का कार्य होता है । – सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळे |