पांच कोश और चार देहोंका संबंध

।। श्रीकृष्णाय नम: ।।

पू. अनंत आठवलेजी

प्रश्न – अध्यात्ममें प्रगत, मुंबईके एक जिज्ञासुके प्रश्न – शरीरके पांच कोश बताये गये हैं और चार देह भी बताये जाते हैं । ये अलग अलग और आपसमें असंबद्ध हैं अथवा संबद्ध हैं ? उनका तालमेल कैसे बिठाना ? ‘महाकारण देह ज्ञानका होता है’ इसका क्या अर्थ ?

उत्तर अध्यात्मशास्त्रमें अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय, ये पांच कोश बताये हैं । स्थूलदेह, सूक्ष्मदेह, कारणदेह औेर महाकारणदेह, ये चार देह बताये हैं ।

अन्नमय कोश स्थूल अन्नका भोग लेनेवाला अन्नमय कोश है । यह स्थूलदेह है ।

प्राणमय कोश शरीरकी भूख-प्यास, मलमूत्रविसर्जन, हाथपैरोंकी हलचल, श्वासोच्छ्वास आदि कार्य करनेवाली इंद्रियोंके कार्य पंचप्राणोंके कारण होते हैं । कर्म करनेवाली इंद्रियां अर्थात् कर्मेंद्रियां और पंचप्राण, यह प्राणमय कोश है ।

मनोमय कोश मन सुख-दु:ख होनेवाला, ममता रखनेवाला, अखंड विचार-संकल्प-विकल्पवाला होता है । ज्ञानेंद्रियाेंसहित मन, यह मनोमय कोश है ।

विज्ञानमय कोश अलग अलग विचारोंपर, संकल्प-विकल्पोंपर निर्णय लेने का काम बुद्धि करती है । ज्ञानेंद्रियोंसहित बुद्धि, यह विज्ञानमय कोश है ।

प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोशोंका सूक्ष्मदेह होता है ।

आनंदमय कोश सुषुप्तिमें, गहरी नींदमें जागृतावस्थाके स्थूल अनुभव और स्वप्नावस्थाके सूक्ष्म अनुभव, इन अच्छे-बुरे अनुभवोंकी प्रतीति नहीं होती । किंतु गहरी नींदसे जगनेपर मनुष्य ‘आज कैसी अच्छी नींद आयी थी !’ ऐसा कहता है, अर्थात् उसे आनंद हुआ था । उसी प्रकार प्रिय वस्तुएं मिलनेपर होनेवाला आनंद, उनका उपभोग लेनेपर होनेवाला आनंद, ऐसी छोटे-बडे और अस्थायी मोदोंकी वृत्तियां इसमें होती हैं । यह निर्मल और स्थायी ब्रह्मानंद नहीं है । यह आनंदमय कोश है । स्वस्वरूपके ज्ञानके अभावमें अथवा स्वस्वरूपके विस्मरण के कारण मनुष्य भौतिक, व्यवहारके, संसारके आनंद पानेका प्रयास करता रहता है, उसके लिये अच्छे-बुरे कर्म करता रहता है । परिणामस्वरूप उन कर्माेंके पुण्य-पापरूप फल भोगनेके लिये पुन:-पुन: शरीर प्राप्त होता रहता है, जन्म होता रहता है । इस प्रकार पुन:-पुन: सूक्ष्म और स्थूल देह प्राप्त होनेका कारण होनेसे आनंदमय कोश, यह कारणदेह है । ‘कारणदेह’, यह पूर्वगतिसे कहा है । अज्ञानरूपी ‘कारण’ नामक एक अलग देह शरीरमें नहीं होता । अपने मूल स्वरूपका त्रिगुणोंके प्रभावके कारण विस्मरण होना, स्वस्वरूपका अज्ञान, यह कारणदेह है ।

इस प्रकार

स्थूल देह – अन्नमय कोश

सूक्ष्म देह – प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय कोश

कारण देह – आनंदमय कोश

महाकारणदेह प्रसंगवश उपस्थित महाकारणदेहका विषय भी यहां संक्षेपमें जान लेते हैं । महाकारण देह ज्ञानका होता है । यहां ज्ञानसे तात्पर्य व्यावहारिक ज्ञान नहीं, तो आत्मज्ञान (तत्त्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान) है । जब आत्मज्ञान, स्वरूपका ज्ञान होता है तब कारणदेहके अगली तुरीय (चौथी) अवस्था प्राप्त होती है । इसमें मनुष्य साक्षीभावमें होता है । सामने जो कुछ होता रहता है उसे समबुद्धिसे देखता है, किंतु जो कुछ होता है उससे उसे सुख-दु:ख नहीं होता । इसमें ‘अहं’ अर्थात् अपने अलग अस्तित्व का भान नष्ट नहीं होता, अद्वैत नहीं होता । इसलिये ‘तुरीय’ अवस्था, यह सर्वाेच्च अवस्था नहीं है, किंतु समत्वयोग हो जानेसे आसक्ति, कामना आदिसे अलिप्तताके कारण देहान्तके उपरांत मोक्ष प्राप्त होता है । आद्य शंकराचार्यजीने तुरीयका स्वरूप स्पष्ट करते हुवे माण्डूक्योपनिषद्के मन्त्र ७ पर भाष्यमें कहा हैै – ‘त्र्यवस्थस्यैवात्मनस्तुरीयत्वेन प्रतिपिपादयिषितत्वात्’ अर्थ – ‘तीनों (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) अवस्थाओंमें रहनेवाले आत्माका ही तुरीय रूपसे प्रतिपादन करना इष्ट है ।’ अर्थात् अज्ञानके कारण भासमान तीन अवस्थाओंमें वही आत्मा रहता है जो आत्मज्ञान होनेपर चौथी, अर्थात् तुरीय अवस्थामें जाता है । इससे स्पष्ट है कि तुरीय अवस्था पहिलेकी तीनों अवस्थाओंका अधिष्ठान है । इस प्रकार कारणदेहका भी कारण होनेसे उसे ‘महाकारण’कहते हैं । इसे भी पूर्वगतिसे ही महाकारणदेह कहा है ।

– अनंत आठवले २७.०५.२०२३

॥ श्रीकृष्‍णापर्णमस्‍तु ॥

पू. अनंत आठवलेजी के लेखन का चैतन्य न्यून न हो इसलिए ली गई सावधानी

लेखक पू. अनंत आठवलेजी के लेखन की पद्धति, भाषा एवं व्याकरण का चैतन्य न्यून (कम) न हो; इसलिए उनका लेख बिना किसी परिवर्तन के प्रकाशित किया गया है । – संकलनकर्ता