१. भारत स्वयंभू हिन्दू राष्ट्र है ही; परंतु संविधान द्वारा यह घोषित होना आवश्यक है !
‘हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के संदर्भ में सर्वत्र यात्रा करते समय कुछ लोगों का एक ही प्रश्न होता है, ‘भारत तो हिन्दू राष्ट्र ही है; अलग से घोषित करने की क्या आवश्यकता है ?’ वास्तव में यह त्रिकालबाधित सत्य है कि भारत एक स्वयंभू हिन्दू राष्ट्र है ! तब भी वर्तमान संविधान-व्यवस्था में ‘हिन्दू राष्ट्र’ के रूप में उसकी उपस्थिति कहां है ? डॉक्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण करने पर एक व्यक्ति स्वाभाविक रूप से डॉक्टर ही होता है; परंतु प्रमाणपत्र लिए बिना वह ‘डॉक्टर’ के रूप में काम नहीं कर सकता । ठीक उसी प्रकार संविधान द्वारा भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित किए बिना वर्तमान स्थिति में भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ नहीं कह सकते । इसलिए भावनाशील विचार करने की अपेक्षा संविधान से हिन्दू राष्ट्र घोषित होने हेतु प्रयास करना अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
२. धर्म, धर्मनिरपेक्षता एवं संविधान
इसके लिए सर्वप्रथम हम कुछ सूत्रों को समझेंगे ।
पहले समझेंगे कौनसे शब्द संवैधानिक शब्द हैं ? जो शब्द भारतीय संविधान में समाहित हैं, वे ‘संवैधानिक शब्द’ हैं । इस नियम के अनुसार निम्नांकित शब्द संवैधानिक हैं ।
२ अ. ‘कास्ट’ (जाति) : संविधान में ‘शेड्यूल कास्ट’ (अनुसूचित जाति) शब्द है । इसलिए जाति शब्द का विरोध करने का अर्थ है, संविधान का विरोध करना ।
२ आ. हिन्दू : कुछ दिन पूर्व ही कर्नाटक के चुनाव पूर्व कांग्रेस के कर्नाटक प्रदेशाध्यक्ष सतीश जारकीहोळी ने कहा था, ‘‘हिन्दू’ शब्द का अर्थ अश्लील है एवं वह विदेशी है ।’ वास्तव में देखा जाए, तो उनका यह वक्तव्य अज्ञानवश है । सिंधु नदी से ‘हिन्दू’ शब्द बना है । पाणिनी व्याकरण के अनुसार ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ होता है । जैसे कि ‘सप्ताह’ शब्द को ‘हफ्ता’ कहा जाता है । संविधान की भाषा में कहा जाए, तो ‘हिन्दू’ शब्द संवैधानिक है । संविधान के अनुच्छेद ‘२५ बी’ में यह शब्द है । उसमें यह स्पष्टीकरण भी दिया गया है कि ‘सिख, जैन, बौद्ध, लिंगायत आदि हिन्दू हैं ।’ संविधान की दृष्टि से जारकीहोळी का आपत्तिजनक वक्तव्य समस्त हिन्दू समाज का अनादर है । वास्तव में इसके लिए उन पर ‘संविधानद्रोही’ के रूप में याचिकाएं प्रविष्ट की जानी चाहिए !
२ इ. धर्म : यह शब्द संविधान में नहीं है । संविधानकर्ताओं ने धर्म शब्द के लिए ‘रिलीजन’ (उपासनापंथ) शब्द का प्रयोग किया है । संविधानकर्ताओं ने ‘धर्म’ एवं ‘रिलीजन’ शब्दों को एक ही अर्थ से स्वीकार किया है, जबकि ‘ऑक्सफोर्ड शब्दकोश’ में ये दोनों शब्द अलग हैं । इनके अर्थ देते हुए उन्होंने यह स्पष्ट किया है ।
२ इ १. धर्म : ‘यूनिवर्सल लॉज ऑफ करेक्ट सोशल कंडक्ट इन हिन्दूइज्म’ (हिन्दू धर्म के सामाजिक सदाचार के वैश्विक नियम)
२ इ २. रिलीजन : ‘पर्टिक्युलर सिस्टम ऑफ फेथ एंड वर्शिप’, अर्थात ‘विश्वास रखने की एवं उपासना की विशिष्ट पद्धति !’
२ ई. सेक्युलर (धर्मनिरपेक्ष): यह शब्द १९ वीं सदी की ईसाई संकल्पना है । ‘यह शब्द संविधान में नहीं होना चाहिए’, ऐसा मत तत्कालीन कांग्रेस के नेता नेहरू, वल्लभभाई पटेल एवं संविधान-निर्माता डॉ. अंबेडकर का था । अतएव यह शब्द २६ जनवरी १९५० को पारित हुए संविधान का भाग नहीं था । संक्षेप में, उस समय ‘सेक्युलर’ एक असंवैधानिक शब्द था । वर्ष १९७६ में भारतीय संविधान के ४२ वें संशोधन के अंतर्गत ‘सेक्युलर’ शब्द जोड दिया गया । उस समय आपातकालीन स्थिति थी । विरोधी दल के सांसद कारागृह में थे । राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में तत्कालीन समाजवादी एवं जनसंघवादी आपातकाल का विरोध कर रहे थे । यह कांग्रेस विरोधी गठजोड तोडना था । साथ ही ऐसी स्थिति लानी थी कि समाजवादियों को एवं जनसंघ का कोई वोटबैंक न बचे । इसके साथ ही अहिन्दुओं का तुष्टीकरण करना था । इसलिए तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने ४२ वें संशोधन के अंतर्गत संविधान में ‘समाजवादी’ एवं ‘सेक्युलर’ शब्द घुसाए । उस समय ‘सेक्युलर’ शब्द परिभाषित नहीं किया गया । संविधान में एक भी शब्द जोडते समय उस शब्द की व्याख्या करना अथवा उसकी व्याप्ति विशद करना आवश्यक होता है । इसी के आधार पर न्यायालय में सुनवाई होती है, लोकसभा में कानून पारित किए जाते हैं एवं प्रशासनिक कार्यवाही की जाती है । दुर्भाग्य से आज तक संविधान के ‘सेक्युलर’ शब्द की कोई भी परिभाषा नहीं दी गई है । मोरारजी देसाई सरकार ने ‘सेक्युलर’ का अर्थ ‘सर्वधर्म सद्भाव’ विशद करनेवाला विधेयक प्रस्तुत किया; परंतु उस समय राज्यसभा में कांग्रेस की सदस्य संख्या अधिक थी । उन्होंने इसका विरोध किया एवं ‘सेक्युलर’ शब्द पुनः व्याख्याहीन रह गया ।
२ ई १. संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द की व्याख्या न होने के कारण प्रत्येक राज्य में उसका अलग अर्थ बताया जाता है ।
३. ‘सेक्युलर’ शब्द का अधिकृत अर्थ न होने के कारण हो रहा अनर्थ !
‘सेक्युलर’ शब्द का अधिकृत अर्थ संविधान में परिभाषित न होने के कारण लोकतंत्र के चारों स्तंभ मनमाने ढंग से इसका अर्थ निकाल (इंटरप्रिटेशन) रहे हैं एवं एक प्रकार से हिन्दू धर्मियों को ही लक्ष्य (टार्गेट) बना रहे हैं ।
३ अ. शासन : शासन अल्पसंख्यकों के मतों के लिए उनके हित का ही विचार करता है । ‘सेक्युलरिज्म’ के नाम पर ‘सच्चर आयोग’, ‘अल्पसंख्यक आयोग’ जैसे विशेष आयोग तथा ‘वक्फ एक्ट’, ‘प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट’ जैसे हिन्दू विरोधी कानून बनाए गए ।
३ आ. प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन) : दंगों में यदि अल्पसंख्यक दंगे करें, तो भी ‘बैलेंस’ करने के लिए हिन्दू नेताओं को बंदी बनाया जाता है । सर्वत्र प्रशासन के विषय में ऐसा ही अनुभव है । इस विषय में मैं विस्तार में नहीं जाऊंगा ।
३ इ. प्रसारमाध्यम (मीडिया) : प्रसारमाध्यम दंगों में दंगाई अल्पसंख्यकों को ‘एक समूह अथवा टोली’, इस प्रकार से संबोधित करते हैं । अल्पसंख्यकों के भडकाऊ भाषणों के विषय में चर्चा नहीं करते । आतंकवादियों को बंदी बनाने के उपरांत लिखते हैं, ‘कार्यकर्ताओं को बंदी बनाया’ एवं सदैव हिन्दुओं को ही दोषी घोषित करते हैं । इस विषय में हम सभी का अच्छा-खासा अनुभव है । इसलिए इस विषय में मैं अधिक नहीं बोलूंगा ।
३ ई. न्यायासन (जुडिशियरी) : ‘सेक्युलर’ (धर्मनिरपेक्ष) शब्द की परिभाषा के विषय में न्यायपालिका में भीषण गडबडी है । इसका एक उदाहरण बताता हूं । केंद्र सरकार द्वारा संचालित विद्यालयों को ‘केंद्रीय विद्यालय’ कहा जाता है । इन केंद्रीय विद्यालयों में प्रतिदिन ‘असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मा अमृतं गमय ।।’ (पवमान मंत्र, बृहदाकारण्य उपनिषद) (अर्थ : हे ईश्वर, मुझे असत्य से सत्य की ओर, अंधःकार से प्रकाश की ओर एवं मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाएं ।) यह प्रार्थना की जाती है । वर्ष २०१८ में इस प्रार्थना के विरुद्ध देश के सर्वाेच्च न्यायालय में जनहित याचिका प्रविष्ट की गई । याचिकाकर्ता का कहना था कि यह प्रार्थना हिन्दू भाषा में है तथा वह हिन्दू श्रद्धा से संबंधित है । इसलिए वह ‘सेक्युलरिज्म’ के विरुद्ध है । वास्तव में देखा जाए, तो इसमें किसी भी हिन्दू देवता की प्रार्थना न होने के कारण सर्वाेच्च न्यायालय को यह याचिका अस्वीकार कर देनी चाहिए थी; परंतु दुर्भाग्य से वह प्रविष्ट की गई, अर्थात एक प्रकार का यह ‘नैरेटिव’ (कल्पित लेखन) स्वीकार किया गया ।
३ ई १. क्या भाषा कभी ‘सेक्युलर’ होती है ? याचिकाकर्ता ने संस्कृत को हिन्दू श्रद्धा से संबंधित भाषा बताया है और कहा है, ‘वह ‘सेक्युलॅरिज्म’ के विरुद्ध है ।’ न्यायालय द्वारा यह याचिका स्वीकार की गई, अर्थात सैद्धांतिक रूप से संस्कृत बोलना, ‘सेक्युलरिज्म’ के विरुद्ध है ।
३ ई २. ‘असतो मा सद्गमय…’ इन तीन पंक्तियों की प्रार्थना में हिन्दू श्रद्धा कहां है ? ‘असत्य से सत्य की ओर जाओ’, ‘अंधःकार से प्रकाश की ओर जाओ’, ‘मृत्यु से अमरत्व की ओर जाओ’, ऐसा कहना तो विश्वकल्याण की सीख है । इसमें कहीं भी हिन्दू धर्म, देवता, तत्त्वज्ञान, श्रद्धा आदि नहीं है । दूसरी बात एक प्रकार से न्यायालय ने यह स्वीकार किया है कि इस देश में हिन्दू श्रद्धा से संबंधित प्रार्थना करना, ‘सेक्युलरिज्म’ के विरुद्ध है ।
३ ई ३. इतना ही नहीं, अपितु भविष्य में इसी विषय में भिन्न अर्थ (इंटरप्रिटेशन) निकाले जा सकते हैं, उदा.
– ‘सेक्युलरिज्म’ का अर्थ है, संस्कृत भाषा का विरोध करना एवं अंग्रेजी भाषा को स्वीकार करना
– ‘सेक्युलरिज्म’ का अर्थ है, हिन्दू प्रार्थनाओं का विरोध करना एवं ईसाई ‘प्रेयर’ को स्वीकार करना
– ‘सेक्युलरिज्म’ का अर्थ है, भारतीय दर्शनशास्त्र का विरोध करना
– ‘सेक्युलरिज्म’ का अर्थ है, सत्य की ओर जाने का विरोध करना
– ‘सेक्युलरिज्म’ का अर्थ है, ज्ञानप्रकाश की ओर जाने एवं अमरत्व की ओर जाने के दर्शनशास्त्र का विरोध करना । इस याचिका के आधार पर ऐसे नए अर्थ निकाले जाएंगे !’
४. ‘संविधान का मूलभाव ‘सेक्युलर’ (धर्मनिरपेक्ष) है’, ऐसा कहना अनुचित !
बहुत लोग कहते हैं, ‘भले ही संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द वर्ष १९७६ में जोडा गया हो, तब भी संविधान का मूलभाव एवं रचना पहले से ही ‘सेक्युलर’ थी’, यह मानना सर्वथा अनुचित है । यदि अनुच्छेद २५ से २८ ‘सेक्युलरिज्म’ का आधार (बेसिक्स ऑफ सेक्युलरिज्म) है, यदि यह कहें, तब भी उसके आगे के अनुच्छेद २९ एवं ३० ‘सेक्युलरिज्म’ के विरुद्ध (एगेंस्ट सेक्युलरिज्म) हैं । उदा. अनुच्छेद २८ में कहा गया है कि सरकारी अथवा सरकार द्वारा अनुदानित किसी भी शिक्षा संस्था से किसी धर्म की शिक्षा नहीं दी जा सकती । यदि कोई भी शिक्षासंस्था इस प्रकार की धर्मशिक्षा देती है, तो उसकी शैक्षिक मान्यता निरस्त कर दी जाएगी । इसीलिए विद्यालय-महाविद्यालयों में गीता, रामायण, महाभारत इत्यादि कुछ नहीं पढा सकते । यह अनुच्छेद ऊपरी तौर पर ‘सेक्युलर’ लगता है; परंतु जब अनुच्छेद ३० पढते हैं, तब अनुच्छेद २८ केवल बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए ही है, यह समझ में आता है । अनुच्छेद ३० में कहा गया है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों को विद्यालय आरंभ करने, उन्हें संचालित करने एवं उनमें उनकी मजहबी शिक्षा (रिलीजियस एज्युकेशन) देने का अधिकार है । साथ ही आवश्यकता के अनुसार सरकार इन शिक्षासंस्थाओं को अनुदान देगी । इसका अर्थ मदरसा चालू किया जा सकता है, उसमें कुरान एवं हदीस पढाया जा सकता है । चर्च का ‘कॉन्वेंट’ विद्यालय चालू किया जा सकता है । वहां बाइबल पढाई जा सकती है । आवश्यकता हो, तो सरकार इन धार्मिक शिक्षासंस्थाओं को अनुदान देगी । हिन्दुओं को उनकी धर्मशिक्षा देने पर रोक है एवं अल्पसंख्यकों को उनकी धर्म की शिक्षा प्रदान करना संवैधानिक का प्रावधान है, यह कौन सा तथा कैसा ‘सेक्युलर’वाद है ?
४ अ. धर्म न सिखाने के दुष्परिणाम !
१. अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चे पहली कक्षा से धार्मिक शिक्षा लेते हैं एवं बडे होने तक धर्म का आचरण करने में कट्टर बन जाते हैं । दूसरी ओर हिन्दुओं के बच्चे पहली कक्षा से धर्म नहीं सीखते । इसलिए महाविद्यालयीन शिक्षा पूर्ण होने तक नास्तिक बन जाते हैं । यह हिन्दू समाज पर किया गया अन्याय है, इस ओर ध्यान दें !
२. केवल धर्म ही एक माध्यम है, जो व्यक्ति को सिखाता है कि शुभकर्म एवं पापकर्म क्या हैं ? उचित एवं अनुचित कर्म क्या हैं ? नैतिक एवं अनैतिक कर्म क्या हैं ? वर्तमान अधर्मी राज्यव्यवस्था ने विगत ७५ वर्षाें में हिन्दुओं को धर्म सिखाया ही नहीं । इस कारण अनेक लोग पापाचरण कर रहे हैं । परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार एवं अनैतिकता बढ गई है ।
५. अधर्मी व्यवस्था में मिलनेवाले कानून भी अधर्मी होते हैं !
‘वर्तमान में कानून का राज है’, ऐसा हम कहते हैं । जैसे कानून रहते हैं, वैसा राज होता है; उदा. –
कानून विदेशी हो, तो राज्य कैसा होगा ? – विदेशी
कानून स्वदेशी हो, तो राज्य कैसा होगा ? – स्वदेशी
कानून अन्यायी हो, तो राज्य कैसा होगा ? – अन्यायी
कानून अच्छे हों, तो राज्य कैसा होगा ? – अच्छा
कानून अधर्मी हो, तो राज्य कैसा होगा ? – अधर्मी
‘वर्तमान राजाकाज अधर्मी किस प्रकार है’, इसके कुछ कानून से संबंधित उदाहरण दे रहा हूं ।
५ अ. प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट १९९१ (प्रार्थनास्थल का कानून) : वर्ष १९९१ में कांग्रेस ने यह कानून बनाया । ‘देश के ‘सेक्युलरिज्म’ की देन इस कानून का वर्तमान में गुणगान किया जाता है । जब राममंदिर का आंदोलन अपनी चरमसीमा पर था, तब अन्यत्र ऐसे आंदोलन न हों, इसके लिए कांग्रेस ने यह कानून बनाया । उसमें ‘अयोध्या का राममंदिर छोडकर वर्ष १९४७ में भारत के शेष धार्मिक स्थलों का जो भी धार्मिक स्वरूप था, वह वैसा ही रहेगा’, ऐसा स्पष्ट किया गया । साथ ही ऐसा प्रावधान किया गया कि ‘इस संदर्भ में न्यायालय में भी न्याय नहीं मांगा जा सकता’ । हिन्दुओं के श्रद्धास्रोत काशी-मथुरा की मुक्ति के लिए न्यायालय जाने से यह कानून रोकता है । जिस पर अन्याय हुआ है, उसे यदि न्यायालय में जाने से रोकने के लिए कानून बनने लगें, तो इस देश का क्या होगा ? अराजकता मच जाएगी ! हिन्दुओं के जीवनदर्शन में काशी के मुक्तेश्वर का असाधारण महत्त्व है । मुक्तेश्वर के बिना मोक्षप्राप्ति कैसे होगी ? यह कानून तो हिन्दुओं के मोक्षमार्ग में ही बाधा है ।
५ आ. महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन कानून २०१३ : यह कानून महाराष्ट्र में बनाया गया । इस कानून की मूल रचना में कहा गया था कि देह को कष्ट देकर धर्माचरण करना, अंधश्रद्धा है । इसके अनुसार पैदल चलकर तीर्थयात्रा करना, देह को कष्ट देना है । महाराष्ट्र में पंढरपुर की तीर्थयात्रा पैदल चलकर ही करनी पडती है । काशी की परिक्रमा आज भी अनेक लोग पैदल ही करते हैं । क्या उसे हम अंधश्रद्धा कहेंगे ? यह ऐसा अधर्मी कानून था जिसकी रचना में कहा गया था कि बच्चों के कान में छेद करना, उन्हें शारीरिक वेदना देना है । सौभाग्य से सनातन संस्था एवं हिन्दू जनजागृति समिति ने इस कानून का विरोध कर उसकी १५ अधर्मी धाराएं निरस्त करने के लिए सरकार को बाध्य किया; परंतु वर्तमान व्यवस्था ही अधर्मी होने के कारण आज भी भारत में ऐसे अनेक अधर्मी कानून पारित हो रहे हैं !
६. संविधान से ‘सेक्युलर’ शब्द हटाना आवश्यक !
संक्षेप में कहें, तो भारत की अधर्मी व्यवस्था एवं कानूनों की जड संविधान के ‘सेक्युलर’ शब्द में है । यही शब्द हिन्दू राष्ट्र स्थापना की मूल समस्या भी है, यह ध्यान में रखें! भारत की जिहादी, मिशनरी, साम्यवादी (कम्युनिस्ट) एवं नास्तिकवादी शक्तियां ही ‘सेक्युलर’ शब्द का प्रयोग कर हिन्दुओं को लक्ष्य बना रही हैं । इसीलिए हमें ‘सेक्युलर’ शब्द का विरोध करना चाहिए । ‘सेक्युलर’ शब्द का अर्थ ‘धर्मनिरपेक्ष’ नहीं; क्योंकि धर्म का विपरीत शब्द अधर्म है । धर्मनिरपेक्ष जैसा कुछ नहीं होता ।
७. ‘सेक्युलर’ शब्द के विरुद्ध संवैधानिक संघर्ष करें !
हमारे संविधान में एक शब्द जिस प्रकार घुसाया जाता है, उसी प्रकार वह संविधान की प्रक्रिया द्वारा निकाला भी जा सकता है । इस दृष्टि से संविधान का ‘सेक्युलर’ शब्द हटाने के लिए हमें लोकतंत्र के मार्ग से ही प्रयास करने पडेंगे । लोकतंत्र में परिवर्तन के ३ मार्ग बताए गए हैं । आंदोलन (सडक/रास्ता), संसद एवं सर्वाेच्च न्यायालय ! सामान्य जनता एवं शासन की जागृति के लिए सडक पर आंदोलन करने पडेंगे । सडक पर वैध मार्ग से आंदोलन करने की अनुमति संविधान देता है । उसका पूरा लाभ लेना होगा । संसद में कानून पारित करने के लिए हमारे द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों का प्रबोधन करना पडेगा । उन्हें इस शब्द के कारण होनेवाली हानि समझानी पडेगी । ‘संसद में विराजमान व्यक्ति ही यह कर सकता है’, यह भी उन्हें कहना पडेगा । यदि आवश्यकता हो, तो उन्हें कहना पडेगा कि आप इसमें सुधार करें, अन्यथा हम आपको मत नहीं देंगे । न्यायालयों में जनहित याचिकाओं के माध्यम से अधिवक्ताओं को यह शब्द हटाने के लिए संघर्ष करना होगा । वर्तमान में सौभाग्य से सर्वाेच्च न्यायालय में ‘सेक्युलर’ शब्द हटाने के संदर्भ में एक याचिका प्रविष्ट हुई है । ऐसे उद्देश्यों की एवं ऐसी जनहित याचिकाएं स्थानीय उच्च न्यायालयों में भी प्रविष्ट की जा सकती हैं ।
‘सडक’, ‘संसद’ एवं ‘सर्वाेच्च न्यायालय’, ये ३ मार्ग स्मरण रखें ! जनजागरण, जन-प्रतिनिधियों का प्रबोधन एवं न्यायालयीन संघर्ष, ऐसे सभी मार्गाें से हमें संविधान में घुसा‘सेक्युलर’ शब्द हटाना है एवं इसी मार्ग से भारत को संविधान द्वारा हिन्दू राष्ट्र घोषित करना है !’
– श्री. चेतन राजहंस, राष्ट्रीय प्रवक्ता, सनातन संस्था (२५.५.२०२३)