गुरुमहिमा !

(श्रीमत् शंकराचार्य विरचित गुर्वष्टकम् ।)

सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी

४. मन गुरुदेवजी के चरणों में रममाण न होता हो, तो सर्व व्यर्थ है !

४ अ. व्यावहारिक दृष्टि से सब अच्छा होते हुए भी मन गुरुदेवजी के चरणों में न रमता हो, तो क्या लाभ होगा ?

शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं यशश्चारु चित्रं धनं मेरुतुल्यम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।। १ ।।

अर्थ : किसी का शरीर रूपवान हो, पत्नी भी सुंदर हो, उसकी सत्कीर्ति चारों दिशाओं में फैली हो तथा उसके पास मेरु पर्वत के समान अपार धन हो; परंतु उसका मन गुरुदेवजी के श्री चरणों में रममाण (आसक्त) न हो, तो ये सर्व बातें उपलब्ध होकर भी उसे क्या लाभ होगा ?

कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादिसर्वं गृहो बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।। २ ।।

अर्थ : किसी को सुंदर पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि सर्व प्रारब्धानुसार सरलता से प्राप्त हुआ हो; परंतु यदि उनका मन गुरुदेवजी के श्री चरणों में रममाण (आसक्त) न हो, तो उसे ये सर्व प्रारब्ध-सुख मिलकर क्या लाभ होगा ?


४ आ. किसी की इच्छा एवं वासनाओं का लोभ समाप्त हो गया हो; परंतु उसका मन गुरुदेवजी के चरणों में रममाण न होता हो, तो उसे इस अनासक्ति का क्या लाभ होगा ?

अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।। ८ ।।

अर्थ : जिनका मन वन अथवा अपने घर में, अपने कार्य अथवा शरीर में अथवा अमूल्य भंडार में आसक्त न होता हो; परंतु उनका मन यदि गुरुदेवजी के श्री चरणों में रममाण (आसक्त) न हो, तो उन्हें इस अनासक्ति से क्या लाभ होगा ?

न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ न कान्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।। ७ ।।

अर्थ : जिनका मन भोग, योग, अश्व, राज्य, स्त्रीसुखोपभोग एवं धनभोग से विचलित न होता हो; परंतु उनका मन यदि गुरुदेवजी के श्री चरणों में रममाण (आसक्त) न हो, तो उन्हें इस अविचलता का क्या लाभ होगा ?


४ इ. जिन्हें समाज अथवा विदेश में मान है; परंतु उसका मन यदि गुरुदेवजी के श्री चरणों में रममाण न होता हो, तो उन्हें इस सद्भाग्य का क्या लाभ होगा ?

क्षमामण्डले भूपभूपालवृन्दैः सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।। ५ ।।

अर्थ : जिस महापुरुष के चरणकमल पृथ्वी के राजा-महाराजाओं द्वारा नित्य पूजे जाते हों तथा सबके द्वारा निरंतर प्रशंसा की जाती हो; परंतु उनका मन यदि गुरुदेवजी के श्री चरणों में रममाण (आसक्त) न होता हो, तो उन्हें इस सद्भाग्य का क्या लाभ होगा ?

विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।। ४ ।।

अर्थ : जिसे विदेश में सम्मान मिल रहा है, अपने देश में जिसका नित्य जय-जयकार कर स्वागत किया जा रहा है एवं जो सदाचार के पालन को भी अनन्य स्थान दे रहा है; परंतु उनका मन यदि गुरुदेवजी के श्री चरणों में रममाण (आसक्त) न हो, तो उन्हें इन सद्गुणों का क्या लाभ होगा ?


४ ई. छः शास्त्र मुखोद्गत एवं समाज में मान होकर भी मन गुरुदेवजी के चरणों में रममाण न हो, तो सद्गुणों का क्या लाभ होगा ?

षडङ्गादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।। ३ ।।

अर्थ : वेद एवं वेदांगादि छः शास्त्र जिन्हें मुखोद्गत हैं, जिनमें सुंदर काव्य रचने की प्रतिभा है; परंतु उनका मन यदि गुरुदेवजी के श्री चरणों में रममाण (आसक्त) न हो, तो उन्हें इन सद्गुणों का क्या लाभ होगा ?


४ उ. गुरुदेवजी की कृपादृष्टि के कारण संसार के सर्व सुख-ऐश्वर्य मिले; मन यदि गुरुदेवजी के श्री चरणों में रममाण न होता हो, तो ऐश्वर्य का क्या लाभ होगा ?

यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात् जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात् ।
मनश्चेन लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।। ६ ।।

अर्थ : दानी वृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दशदिशाओं में फैली है, अत्यंत उदार गुरुदेवजी की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार का सर्व सुख एवं ऐश्वर्य मिला है; परंतु उनका मन यदि गुरुदेवजी के श्री चरणों में रममाण (आसक्त) न हो, तो उन्हें इस ऐश्वर्य का क्या लाभ होगा ?


४ ऊ. जो गुरु-अष्टक का पठन करता है, अन्यों को सिखाता है और जिसका मन गुरुवचन में आसक्त होता है, वह पुण्यवान शरीरधारी ‘इच्छित ध्येय एवं ब्रह्मपद’ सहज प्राप्त कर सकता है !

गुरोरष्टकं यः पठेत्पुण्यदेही यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही ।
लभेद्वाञ्छितार्थं पदं ब्रह्मसंज्ञं गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ।। ९ ।।

अर्थ : ‘जो यति, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु-अष्टक का स्वयं पठन करता है, अन्यों को सिखाता है और जिसका मन गुरुवचन में आसक्त होता है, वह पुण्यवान शरीरधारी ‘इच्छित ध्येय एवं ब्रह्मपद’ दोनों सहज प्राप्त कर सकता है’, यह निश्चित है ।’

(विविध जालस्थलों से मिला हुआ ज्ञान)

– सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळे (धर्मप्रचारक संत), देहली २०२२