भारत के वैचारिक विनाश का एक वस्तुनिष्ठ इतिहास !

विगत १ सहस्र वर्ष में भारत ने स्वत्व गंवाया । पहले इस्लामी लुटेरों तथा उसके उपरांत धूर्त ब्रिटिशों ने भारतीयों का सर्वस्व ही नष्ट कर डाला । २ अप्रैल को प्रकाशित इस लेख के पूर्वार्ध में हमने ‘आइडियोलॉजिकल सबवर्जन’ अर्थात सामाजिक व्यवस्था नष्ट करने के लिए बनाए गए वैचारिक स्तर के षड्यंत्र का उपयोग कर हिन्दुओं में किस प्रकार हीनता की भावना उत्पन्न की, यह देखा । इसके कारण अंग्रेजों की वृत्ति लेकर बनी नई भारतीय पीढियों ने ब्रिटिशों की किस प्रकार सहायता की ? तथा वे भारत के रक्तरंजित विभाजन का कारण कैसे बने, यह आज के इस लेख से समझ लेंगे । यह संपूर्ण जानकारी राष्ट्रनिष्ठ यूट्यूब वाहिनी ‘प्राच्यम्’ पर प्रसारित वीडियो ‘साहेब जे कधी गेलेच नाहीत !’, में दी गई है । अभी तक १६ लाख दर्शकों द्वारा देखे गए इस वीडियो में दी गई अध्येतापूर्ण एवं जागृतियोग्य जानकारी हम हमारे पाठकों के लिए आभार सहित प्रकाशित कर रहे हैं । (उत्तरार्ध)

७. विल्यम बेंटींक द्वारा ‘शिक्षा कानून’ लागू कर भारतीय गुरु-शिष्य परंपरा पर आघात करना

वर्ष १८३५ में विल्यम बेंटींक ने ‘अंग्रेजी शिक्षा कानून’ लाकर भारतीय गुरु-शिष्य परंपरा के अंत का भी आरंभ किया । मैकाले के कारण अब भारतीयों को यॉर्कशायर की झोपडियों में दी जानेवाली शिक्षा ग्रहण करनी थी । मैदान में युद्धकला की शिक्षा देने के स्थान पर ‘क्लासरूम’ में छात्रों को हताश करना बहुत हितावह था । ऐसे में ही लूटपाट के दंश झेला हुआ समाज पारंपरिक विद्यालयों को धन कहां से दे सकता था ? एक-एक करते विद्यालय एवं गुरुकुल बंद होने लगे । उसके कारण शिक्षा के अभाव से भारत की जनसंख्या अब ‘अशिक्षित श्रमिक’ एवं ‘किसानों’ का समूह बनकर रह गई । हमें ‘व्हाइट मेंस बर्डन’ (श्वेत लोगों के कंधों पर भार) कहा जाता था । अंग्रेज मिशनरी गरीब भारतीय लोगों को उनके घर से ले जाते थे तथा उन्हें कॉन्वेंट में रखकर अंग्रेजी पद्धति की शिक्षा देते थे । ऐसी शिक्षा ग्रहण कर कॉन्वेंट से बाहर निकले लडकों को अपने माता-पिता तथा समाज पराए लगने लगे । संपूर्ण यूरोप ने जिस देश को लूटा, उनके लडकों-लडकियों के मन पर यह अंकित किया गया कि उनकी संस्कृति पिछडी है तथा आक्रमण करनेवाले लुटेरों की ‘पद्धतियां’ आधुनिक हैं । इस प्रकार धर्म, जाति, समाज एवं शिक्षा, इन प्रत्येक स्तर पर भारत की भोली जनता को आचारभ्रष्ट बनाया गया तथा इससे ही भारतीय समाज का ‘एक्टिव डिमॉरलाइजेशन’ हुआ ।

द्वितीय स्तर – ‘डिस्टैबिलाइजेशन’ अर्थात अस्थिरता उत्पन्न करना !

बेजमेनोव बताता है, ‘‘बीच में ही शिक्षा छोड देनेवालों अथवा ऊपरी बौद्धिक क्षमता रखनेवालों को सरकार, प्रशासन, व्यापार, पत्रकारिता, शिक्षासंस्थानों जैसे शक्तिकेंद्रों पर स्थापित किया गया । आप उनसे भाग नहीं सकते । उन्हें किसी भी घटना पर विशिष्ट पद्धति से प्रतिक्रिया देने के लिए तैयार (‘प्रोग्राम्ड’) किया गया होता है ।’’

८. विदेशों में शिक्षा लेकर भारत लौटनेवाले भारतीयों का मान-सम्मान के लिए अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार करना

साधनसंपन्न परिवार के लडके शिक्षा ग्रहण करने के लिए अब विदेश जाने लगे । वहां से वो ‘बैरिस्टर’ एवं प्रशासनिक अधिकारी बनकर भारत लौटने लगे । विदेश से आए ‘कत्थई साहब की दृष्टि से गरीब जनता के लिए उनमें बिल्कुल भी सहानुभूति नहीं बची थी । हमारे स्वामी कैसे हम पर प्रसन्न बने रहेंगे तथा हमारा प्रभाव कैसे टिका रह सकेगा’, इस दृष्टि से उनके प्रयास चल रहे थे । ‘आप ऐसे लोगों को सत्य जानकारी बताकर भी उनका मनपरिवर्तन नहीं कर सकते थे; क्योंकि उनके मूल दृष्टिकोण का ढांचा ही उस प्रकार से (हिन्दूविरोधी) तैयार किया गया था । ब्रिटिश सत्ता आनंदित थी । उनके संरक्षण में अधिकांश राजे-रजवाडे मजे उडा रहे थे; परंतु इन सब में सर्वाधिक आनंदित थे ‘कत्थई साहब’; क्योंकि उन पर ‘काले कुत्तों’ पर (‘ब्लैक डॉग्ज’ अर्थात भारतीयों पर) राज्य करने का दायित्व सौंपा गया था । जिन्होंने स्वयं को इसके लिए तैयार किया, उन्हें जागीरें एवं मान-सम्मान मिले । किसी को ‘रायबहादुर’, किसी को ‘खानबहादुर’, तो किसी को ‘नाइटहूड’ ! गांवों में सड रहे जनता की आवाज सुननेवाला कौन था ? इससे ‘इंडिया’ एवं ‘भारत’ ऐसी दो स्थायी विचारधाराएं बन गईं ।

९. ब्रिटीश राजसत्ता के विश्वासनीय कत्थई साहब ही ब्रिटिशों के आधार तथा उसी से कांग्रेस नामक ‘सेफ्टी नेट’ की स्थापना !

इसी शताब्दी में भारत में स्थायी रूप से वर्गभेद की रेखाएं खींची गईं । अब सामान्य जनता ने भी अपेक्षा छोड दी थी । ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्यास्त कभी भी होगा, ऐसी स्थिति दिखाई नहीं दे रही थी । वर्ष १९४७ तक ब्रिटिश साम्राज्य का प्रमुख आधारस्तंभ था ‘इम्पिरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल’, जिसका शब्दशः भाषांतर ‘शाही विधान परिषद’ किया जा सकता है । इस काउंसिल पर अनौपचारिक सदस्य के रूप में भारतीयों का चयन होता था । देश के प्रतिष्ठित ‘कत्थई साहब’, जमींदार, राजकुमार अधिवक्ता, दंडाधिकारी एवं व्यापारी उसका भाग बनते थे । यह सर्वविदित है कि ब्रिटिश राजसत्ता को इन लोगों की निष्ठा एवं प्रामाणिकता के प्रति संपूर्ण विश्वास था ।

इस संदर्भ में बेजमेनोव बताता है, ‘‘हमें ऐसा लगता है कि ‘सबवर्टर’ एक ऐसा व्यक्ति होगा, जो हमारे (हिन्दुओं के) सभी सपनों को एक झटके में नष्ट कर देगा; परंतु ऐसा नहीं ! ये ऐसे ‘छात्र’ होते हैं, जो लेन-देन करते हैं । वे एक कूटनीतिज्ञ, एक अभिनेता तथा एक कलाकार होते हैं !

विख्यात लेखक तथा शोधकर्ता संदीप बाळकृष्ण इस विषय में कहते हैं, ‘‘आपके निकट के व्यक्ति ने जिसने तुम पर (भारतीयों पर) अत्याचार करनेवालों का अध्ययन किया होता है, वह उन अत्याचारियों के लिए महत्त्वपूर्ण ‘प्यादा’ बन गया होता है । वह तुम्हारी मूल संस्कृति का अंश होने से वह प्यादे की भूमिका निभा सकता है; इसलिए जो कार्य कोई विदेशी व्यक्ति कदापि नहीं कर सकता, वह कार्य ऐसा व्यक्ति (कत्थई साहब) बडी सहजता से कर सकता है ।’’

‘भारत में उनका राज्य सदा के लिए नहीं रहेगा’, यह चतुर ब्रिटिशों को पहले ज्ञात था । प्रशासन में बढती निरंकुशता देखकर एलन ऑक्टैवियन ह्यूम ने अंग्रेजों की सत्ता बचाने के लिए वर्ष १८८५ में कांग्रेस की स्थापना की । छोटी-छोटी सुविधाएं उपलब्ध कराकर वर्ष १८५७ जैसी स्थिति पुनः उत्पन्न न हो, यह ह्यूम का उद्देश्य था । इस ‘सेफ्टी नेट’ का (राजसत्ता के संरक्षण के लिए बनाए गए संगठन का) पहला सदस्य कौन बना, तो यही ‘इम्पिरियल काउंसिल’ के कत्थई साहब !!

ह्यूम का भय अकारण नहीं था । अंग्रेजों के दमनतंत्र के कारण अब भारत भूमि से आवाज उठना आरंभ हुआ था । ‘छत्रपति शिवाजी महाराज का हिन्दवी स्वराज्य’ वर्ष १८७६ में स्वामी दयानंद सरस्वती की लेखनी से ‘स्वराज’ के नारे के रूप में बाहर निकला । ‘स्वराज’ – भारत एवं भारतीयों के लिए !

(सौजन्य : Prachyam )

१०. ब्रिटिशों के हितैषी कत्थई साहब ‘स्वतंत्रता सेनानी’के रूप में स्वतंत्रता संग्राम में कूद पडे !

बेजमेनोव आगे कहता है, ‘‘तुम्हें और २० अथवा १५ वर्ष लग जाएंगे, जिस अवधि में (कथित) राष्ट्रनिष्ठा रखनेवाली तथा सामान्य ज्ञान से युक्त पीढी (भविष्य के कत्थई साहब) तैयार होगी । यह पीढी समाज के पक्ष में कार्य करनेवाली होगी । (अर्थात वैसा दिखाएगी) ।’’

विद्रोह की अग्नि अंदर ही अंदर संपूर्ण देश में फैल रही थी । लोकमान्य बाळ गंगाधर टिळक, अरविंद घोष, बिपिनचंद्र पाल जैसे तत्त्वज्ञानियों का उदय हुआ । राष्ट्रवादी विद्वानों के स्वदेशी शोध पढकर नई पीढियां ‘डिमॉरलाइजेशन’ के विरुद्ध (अाचारभ्रष्ट होने से) जागृत हो रही थीं । इसी विचारधारा के वातावरण में भविष्य के महान क्रांतिकारी विकसित हुए । काल की दिशा को पहचानकर ‘इंपिरियल काउंसिल’ के ‘सज्जन’ अब कांग्रेस की सदस्यसंख्या बढाने का प्रयास करने लगे । स्वयं का ‘हमने आलीशान बंगलों एवं जागीरों का बलिदान दिया’, इस प्रकार से प्रचार कर ये कत्थई साहब ‘कुर्ता-पजामा’ पहनकर ‘स्वतंत्रता सेनानी’ बन गए ।

बेजमेनोव आगे कहता है, ‘‘इस चरण में छात्रों को (‘सबवर्जन’ के प्यादों को) ब्रिटेन से वापस भेजा गया । उनमें से कुछ पहले से ही देश में (भारत में) थे । उन्होंने अकस्मात अपना सिर उठाया । ये निष्क्रिय लोग तुरंत अपने काम में लग गए ।’’

एक भयानक तूफान उठ रहा था । स्वतंत्रता संग्राम में उग्रवादी देशभक्त क्रांतिकारियों के साथ ‘इंपिरियल काउंसिल’ के श्वेतसाहब घुल-मिल गए । यह अंग्रेजों के लिए भी सुखद समाचार था ।
बेजमेनोव (भारत के) इस महत्त्वपूर्ण मोड के संदर्भ में विशद करता है, ‘‘वे लोग १५-२० वर्ष से निद्राधीन थे (निष्क्रिय थे) । अब वे विभिन्न समूहों के नेता, सामाजिक व्यक्तित्व एवं प्रचारक बने । वे राजनीतिक प्रक्रिया का क्रियाशील अंश बन गए ।’’

११. अंग्रेजों की आचरण-पद्धति से भारित भारतविरोधी मोतीलाल नेहरू !

इसमें सबसे आगे था इलाहाबाद का अत्यंत धनवान एवं प्रभावशाली नेहरू परिवार तथा उसके संरक्षक मोतीलाल नेहरू ! नेहरू परिवार के लहू में ‘अंग्रेजी आचरण’ अक्षरशः घुल-मिल गया था । वर्ष १९११ के देहली दरबार में ‘अतीमहनीय व्यक्ति’ के रूप में उनके साथ किया गया व्यवहार हो अथवा ‘सिविल लाइंस’ की पार्टियां हों ! इस माध्यम से अंग्रेजों ने मोतीलाल को कभी भी उनके ‘कत्थई’पन का भान नहीं होने दिया । इतिहास की पुस्तकों एवं फिल्मों में हमें मोतीलाल नेहरू का नाम ‘एक महान स्वतंत्रता सेनानी’ के रूप में मिलता है; परंतु वे ऐसी किस स्वतंत्रता के लिए लड रहे थे कि जिसके कारण वे ब्रिटिशों के इतने निकट बन गए थे ?

विख्यात बैरिस्टर मोतीलाल ने कदाचित एकाध क्रांतिकारी का अभियोग लडा होगा । मोतीलाल के संबंधी तथा मित्र जगत्नारायण मुल्ला ने ही ‘काकोरी कांड’ में रामप्रसाद बिस्मिल एवं अशफाक उल्ला खान को फांसी का दंड देने के लिए प्रवृत्त किया । मोतीलाल उनके पुत्र के (जवाहरलाल नेहरू के) भविष्य (‘करियर’) के प्रति बहुत चिंतित थे । अपने पुत्र की शिक्षा समाप्त होने से पूर्व ही वे बडी चतुराई से कांग्रेस के सूत्रधार (किंगमेकर) बन गए ।

१२. ब्रिटिशों के लिए ‘सबसे अल्प उपद्रवी नेता थे म. गांधी !

भारतीय जनमानस के ‘सबवर्जन’ में अज्ञानवश ही क्यों न हो; परंतु मोहनदास गांधी की भूमिका को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । इस संदर्भ में संदीप बाळकृष्ण कहते हैं, ‘‘भारत की स्वतंत्रता के लिए असंख्य लोग लडे; परंतु उनमें से गांधी ‘सबसे अल्प उपद्रवी नेता’ हैं, यह ब्रिटिशों ने पहचान लिया था । गांधी ने संपूर्ण स्वतंत्रता संग्राम की दिशा ही परिवर्तित कर दी । उनके पीछे बडा जनसमुदाय था, जो समाज के विभिन्न स्तरों से आया था । उस समय में जनता में ऐसा अन्य कोई नेता नहीं था !’

पूर्व प्रशासनिक अधिकारी तथा लेखक संजय दीक्षित कहते हैं, ‘‘यदि किसी ने गांधी की पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ पढी है, तो वह एक ऐसी विचित्र पुस्तक है, जिसमें वे स्वयं प्रश्न पूछ रहे हैं तथा स्वयं ही उन प्रश्नों के उत्तर दे रहे हैं । अहिंसा के विषय में उनकी एक विचित्र संकल्पना है । उसके संदर्भ में वे ऐसा कहते हैं, ‘चोर को न मारें; क्योंकि मान लीजिए कि यदि तुम्हारे पिता ही तुम्हारे घर में चोरी करने लगे, तो क्या आप उन्हें मारेंगे ?’ मैं तो ऐसे तर्कशास्त्र की कल्पना भी नहीं कर सकता ! गांधी ही इस प्रकार का तर्कशास्त्र दे सकते थे ।’’

१३. वर्ष १९२८ से कांग्रेस में परिवारवाद का आरंभ !

वर्ष १९२८ में मोतीलाल ने गांधी की सहायता से अपने पुत्र जवाहरलाल को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया तथा यहीं से कांग्रेस में परिवादवाद का आरंभ भी हुआ । मोहनदास गांधी ने ‘सबसे शुद्ध व्यक्तित्व तथा जिस पर शंका नहीं की जा सकती, ऐसा सत्यवादी’ के रूप में जवाहरलाल का सार्वजनिक रूप से परिचय करा दिया । इसके भी आगे जाकर उन्होंने ‘नेहरू के हाथ में देश सुरक्षित है’, ऐसा भी कहा ।

मूल रूप से नेहरू एक वास्तविक ‘कत्थई साहब’ थे, जो भारत की मूल वास्तविकता से बहुत दूर थे । वे ‘फेबियन डेमॉक्रसी’ के अर्थात ‘सामाजिक लोकतंत्र’ के तत्त्वों का क्रांतिकारी पद्धतियों से उथल-पुथल न कर, अपितु ‘धीमी गति से तथा सुधारवादी पद्धति से अपनाने’ की पद्धति के समर्थक थे । इलाहाबाद एवं इंग्लैंड में अंग्रेजों के वातावरण में पले-बढे नेहरू अनुचित समय पर अनुचित स्थान पर खडे थे । अपने पिता के राजनीतिक दल का अध्यक्ष बनकर वे देश को ‘संपूर्ण स्वराज्य प्रदान करनेवाला नायक’ बनने का स्वप्न देख रहे थे; परंतु चौसर के प्यादों को कोई अन्य ही (इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल) चला रहा था । अंग्रेजों के वैश्विक साम्राज्य में सबसे बडा हीरा ‘भारत’ था ।

(क्रमश: पढें अगले अंक में)

(साभार : ‘प्राच्यम्’ यूट्यूब वाहिनी)

शत्रुराष्ट्र के प्रति निष्ठा एवं तत्कालीन नेताओं की कार्यविहीनता भारत के विभाजन का कारण बने, यह सच्चा इतिहास सिखाया जाना चाहिए !