देश को स्वतंत्रता मिलने के ७५ वर्ष पश्चात भी कुत्तों का आतंक प्रशासन समाप्त नहीं कर सका, यह चिंताजनक एवं संतापजनक है । कुत्ते के काटने से फैलनेवाला ‘रेबिज’ एक विषाणुजन्य रोग है । रेबिज रोगी के शरीर में प्रवेश करने के पश्चात मज्जासंस्था पर आक्रमण करता है । इससे रोगी के मस्तिष्क एवं रीढ में सूजन आती है । विश्व स्वास्थ्य संगठन के मतानुसार किसी व्यक्ति को ‘रेबिज’ के लक्षण दिखाई देने के पश्चात वह लगभग १०० प्रतिशत घातक होता है । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ९९ प्रतिशत प्रकरणों में ‘रेबिज’ विषाणु मानवों में प्रसारित करने के लिए पालतू कुत्ते उत्तरदायी होते हैं । आज भी प्रतिवर्ष ‘रेबिज’ के कारण भारत में २१ सहस्र से भी अधिक मृत्यु होती हैं । जगत के सर्वाधिक श्वानदंश की मात्रा भारत में है । श्वानदंश के उपरांत ‘रेबिज’ से होनेवाली मृत्यु टालने के लिए टीके का प्रभावी उपयोग कैसे करें ? इस विषय में अज्ञान है । वर्ष २०३० तक ‘रेबिज’ के उच्चाटन के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयत्न जारी हैं; परंतु भारत में केवल गोवा, अंदमान एवं सिक्किम में ही इसे सफलता मिली है । पश्चिमी देशों से कुछ बातें सीखने जैसी हैं । सिंगापुर, स्टॉकहोम, शिकागो, सिडनी में आवारा कुत्तों की संख्या शून्य है । उन्होंने लाखों कुत्तों को मारकर यह समस्या नहीं सुलझाई; अपितु उन्होंने ३ स्तर पर इसे सुलझाया है । एक ढका हुआ कचरा, दूसरा कुत्ते के लिए अनुज्ञा पत्र (permit) अनिवार्य, तीसरा कुत्तों का सामुदायिक टीकाकरण !
भारत से भी ‘रेबिज’ पूर्ण रूप से हटा देना संभव है; परंतु इसके लिए सरकारी तंत्रों को सक्रिय प्रयत्न करना अपेक्षित है । भारत की जनता की मानसिकता एवं जनता के लिए योग्य क्या है ? इस पर अभ्यास कर, कृति करने पर ही आवारा कुत्तों की समस्या का प्रश्न सुलझ पाएगा; परंतु इसे करते समय राजनीतिक इच्छाशक्ति भी आवश्यक है, तब ही ये सभी बातें साध्य होंगी !
(आपके क्षेत्र अथवा शहर में ऐसी स्थिति नहीं है न, इसकी निश्चिति करें ! – संपादक)
– श्रीमती अपर्णा जगताप, पुणे (संदर्भ : ७.४.२०२३)