एक समाचार वाहिनी पर आयोजित परिचर्चा में ‘मूलतत्त्ववाद’ का विषय सामने आया । जब मैंने सहज ही कहा, ‘मैं मूलतत्त्ववादी हूं’ तो उस पर सूत्र संचालक चौंक गया । उसने पूछा, ‘क्या आप इस बात को सहस्रों दर्शकों के सामने स्वीकार कर रहे हैं ?’ उस पर मैंने हंसकर कहा, ‘जी हां ! मैं एक हिन्दू हूं तथा मूलतत्त्ववादी हूं । आपको आश्चर्य होता है; क्योंकि आपने कभी हिन्दू मूलतत्त्व जाना ही नहीं है । सत्य, अहिंसा, शांति, अस्तेय आदि बातें इन मूलतत्त्वों में अंतर्भूत हैं । अन्य धर्मियों के मूलतत्त्वों तथा हिन्दुओं के मूलतत्त्वों में मूल रूप से यही अंतर है ।’
इसमें अनिवार्य यह है कि इस पृथ्वी पर केवल मनुष्य ही नहीं, जीव-सृष्टि को टिकाए रखना है, तो उसके लिए अधिकांश लोग सनातन विचारों के साथ जीवन व्यतीत करनेवाले होने चाहिए; क्योंकि अहिंसा हिन्दू धर्म का सबसे बडा तत्त्व है । प्रत्येक जीव में ईश्वरीय अंश होने से सनातन धर्म प्रत्येक व्यक्ति के जीने का अधिकार मानता है । ‘जब तक स्वयं के प्राणों पर आपत्ति न हो, कोई किसी के साथ हिंसा न करे’, सनातन धर्म यही बताता है; परंतु विस्तारवादी एवं राजसत्तावादी कभी यह बात नहीं बताते । ऐसा कहना कुछ दिन पूर्व ही सहजता से संभव हो पाया है । सर्वप्रथम ‘हम हिन्दू हैं’, ऐसा कहने में भी अनेक लोग संकोच करते थे, मानो हिन्दू होना कोई अपराध लगता था ।
१. स्वतंत्रता के उपरांत नेताओं ने ‘यह देश सभी के लिए है’, ऐसा बताते हुए हिन्दुओं के दीप्तिमान इतिहास को दबा दिया !
वर्ष १९४७ में देश विभाजित होकर स्वतंत्र हुआ । धर्म के आधार पर देश का विभाजन हुआ । जहां मुसलमानों के लिए पापस्तान बना, तो स्वाभाविक ही शेष देश ‘हिन्दू देश’ बनना चाहिए था । तत्कालीन नेताओं ने हिन्दुओं से बिना पूछे ही घोषित किया, ‘यह देश सभी का है ।’ उसके उपरांत अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण का जो पर्व आरंभ हुआ, वह अभी तक चल रहा है । वह इतने शीर्ष तक पहुंच गया है कि उससे हिन्दुओं को अपने ही इस देश में पराएपन की भावना उत्पन्न हो गई है ।
घुसपैठिए विधर्मियों ने जो क्रूर संहार किया, धर्मांतरण किए, बलात्कार किए तथा मंदिरों को गिराया; इस इतिहास का कोई भी अंश विद्यालयीन अथवा महाविद्यालयीन क्रमिक पुस्तकों में न आए, इसका पूरा ध्यान रखा गया । जवाहरलाल नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के जीर्णाेद्धार मंदिर के कार्यक्रम में जाना भी अस्वीकार कर दिया । वामपंथी विष बेल इस कांग्रेसी नीति के शीर्ष पर चली गई । अनेक दशकों तक शिक्षा का क्षेत्र उनके नियंत्रण में होने के कारण उन्होंने हिन्दुओं के दीप्तिमान इतिहास को अस्वीकार कर झूठी जानकारी से भरी हुए पुस्तकें लिखकर एक प्रकार से अनेक पीढियों में समाहित राष्ट्रवाद को मार दिया । उन्होंने जातिवाद फैलाकर हिन्दुओं की जातियां एक-दूसरे के विरुद्ध कैसे खडी हों, केवल यह देखा ।
२. हिन्दू धर्म एवं हिन्दुओं की आस्था के केंद्रों का उपहास उडानेवाले तथाकथित बुद्धिजीवी तथा हिन्दुओं के संगठनों पर प्रतिबंध लगानेवाले तत्कालीन नेता !
स्वतंत्रता के उपरांत हिन्दुओं के देवताओं, धर्म, उपासना, परंपराओं तथा आदर्श आदि का उपहास उडानेवाले लोगों को बुद्धिजीवियों के रूप में निरंतर आगे बढाया गया । इन कथित बुद्धिजीवियों को अन्य धर्माें के आदर्शाें का उपहास उडाने का साहस नहीं था तथा वैसे किया, तो हमारा क्या होगा ?, कदाचित इसके पीछे यही भावना रही होगी । इन दोहरे मापदंडों को देखकर हिन्दू विचलित एवं क्षुब्ध भी थे; परंतु मूल रूप से यह सहिष्णु वर्ग ‘सर तन से जुदा’ (सिर शरीर से अलग करना) की घोषणाएं नहीं करता था; क्योंकि उसके धर्म ने कभी उसे ऐसा नहीं सिखाया था । मूल रूप से बहुत ही उदारवादी इस सहिष्णु वर्ग ने ‘सभी के लिए देश’, यह भले ही स्वीकार किया हो; परंतु तब भी ‘इस देश की संपत्ति पर पहला अधिकार मुसलमानों का’ यह स्वीकार्य नहीं था; परंतु यह भी चुपचाप सुन लिया गया ।
वर्ष १९२५ में हिन्दू हित के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई । अर्थात उस समय उन्हें राजाश्रय कैसे मिल सकता था ? तथा स्वराज्य मिलने पर हमारे ये तत्कालीन नेता भी संघ को कैसे अपने पास लेते ?; क्योंकि तब तक यह देश सभी के लिए बन गया था न ! तब वामपंथियों ने संघ फासिस्ट को अपना ही इटली का फासिस्ट (तानाशाही वृत्ति रखनेवाला) प्रमाणित किया । देश के विभाजन के काल में हुए अमानवीय नरसंहार में संघ के स्वयंसेवकों ने (हिन्दुओं को बचाने के लिए) बडा कार्य किया; परंतु अपनी सुविधा के अनुसार उसकी उपेक्षा कर गांधी हत्या के उपरांत संघ एवं हिन्दू महासभा पर प्रतिबंध लगा दिया गया । हिन्दू महासभा हिन्दूहित के लिए स्थापित राजनीतिक दल था । मूलरूप से सौम्य विचारधारावाले होने के कारण हिन्दू महासभा के समर्थन में दृढता से खडे नहीं रहे । उसके पूर्व अध्यक्ष वीर सावरकर को कांग्रेसी एवं वामपंथियों की जोडी ने भारतीय राजनीति में बिना किसी कारण विवादित व्यक्तित्व प्रमाणित कर दिया । ‘हाथी जब सडक पर चलता है, तो कुत्ते उस पर भौंकते हैं’ यह हम सभी को ज्ञात है, तथापि ‘वो क्यों भौंकते हैं ?’, यह समझना महत्त्वपूर्ण है । हाथी के चलते समय उसकी विशालकाय देह की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक है; इसलिए लोगों का ध्यान उसकी ओर आकर्षित होता है । ऐसे में कुत्तों को ऐसा लगता है कि हम भी यहां हैं, तो कोई हमारी ओर क्यों नहीं देख रहा ? इस जलन के चलते लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए वे भौंकते रहते हैं; परंतु उससे हाथी का कुछ नहीं बिगडता तथा कदाचित कुत्ते की कमर पर कोई लात पड सकती है । सावरकर विरोधियों का कुछ वैसा ही हुआ दिखाई देता है । इसलिए सावरकर पर लगी एक आपत्ति का उत्तर देकर भी वे और आपत्ति दर्शाना जारी रखते हैं । इसमें उन्हें सावरकर को समझने की नहीं, अपितु हम बहुत ‘बुद्धिमान’ हैं, इतना ही दिखाने का एक दयनीय प्रयास करना रहता है ।
३. सामाजिक माध्यमों से झटका !
लगभग विगत ६०-६५ वर्षों से निरंतर स्वयं पर एकतरफा एवं वैचारिक अथवा बौद्धिकता के आक्रमणों के कारण सामान्य हिन्दू विचलित हो रहे थे; परंतु पर्याप्त अध्ययन एवं पढाई के अभाव के साथ-साथ ही जो राष्ट्रविचारक हैं, उनके लेखन को प्रमुख प्रसारमाध्यमों द्वारा स्थान न देने के कारण उन्हें उचित उत्तर नहीं मिल रहे थे । वह क्रांति सामाजिक माध्यमों ने कराई । यह एक दोधारी हथियार है, यह स्वीकार्य ही है । तथापि अनेक विद्वानों ने उस पर अपने विचार व्यक्त करना आरंभ कर दिया । इसके अतिरिक्त हिन्दुओं को जगाने में कांग्रेस एवं वामपंथियों का तो योगदान है ही, इसे अस्वीकार कर कैसे किया जा सकता है ? उन्हीं के झूठे प्रचार की मार के कारण अंततः वर्ष २०१४ में देश में सत्ता-परिवर्तन हुआ । उसके कारण उनमत्त हुए वामपंथी अनर्गल बडबडाकर और भी उजागर होने लगे । लोगों को अब सत्य समझ में आने लगा । वामपंथियों के बुद्धिभ्रम के प्रयासों का विशेष दृष्टिकोण सामने आने लगा ।
४. हिन्दी फिल्मों में उर्दू शब्दों का अनावश्यक प्रयोग कर तथा हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं आहत कर मुसलमानों का तुष्टीकरण करने का बढता हुआ स्तर !
देश के विभाजन के तुरंत उपरांत विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन के बाहर बग्घियां चलानेवाले चालकों की टोपियां बदल गईं । प्रायः ये सभी मुसलमान थे तथा अपने सिर पर लाल झब्बे की तुर्की टोपियां पहनते थे । ‘विभाजन के उपरांत शेष भारत हिन्दू देश बन गया’, ऐसा मानकर उन्होंने उन टोपियों को फेंककर गांधी टोपियां पहनीं; परंतु ८-१५ दिन में ही उन्हें वास्तविकता का भान हुआ तथा उनके सिर पर पहले की भांति तुर्की टोपियां दिखाई देने लगीं । उसके आगे उनकी वेशभूषा तथा दिखने में भिन्नता दिखने लगी । उसमें तुष्टीकरण प्रिय सर्वदलीय नेता बढने लगे । इससे हम अल्पसंख्यक हैं अर्थात कोई विशेष हैं, यह धारणा होना स्वाभाविक था । तो इसमें बॉलीवुड (हिन्दू फिल्म जगत) भला पीछे कैसे रहेगा ? पहले ‘चित्रलेखा’ जैसे मासिक में शुद्ध हिन्दी भाषा में गाने लिखनेवाले धीरे-धीरे उर्दू शब्दों का प्रयोग करने लगे । इन उर्दू गानों को मधुर संगीत का साथ मिलने से लोग उस संगीत में खोने लगे तथा उन गानों के शब्दों की अनदेखी करने लगे । ‘आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे’, यह गाना माला सिन्हा पर चित्रित किया गया; परंतु लता दीदी द्वारा (लता मंगेशकर द्वारा) गाया गया तथा लोकप्रिय बना यह गीत सुनते समय हमें उसमें भी आपत्तिजनक कुछ नहीं लगा; क्योंकि हम गानों को केवल सुनते हैं, परदे पर देखते हैं तथा भूल जाते हैं । ऐसे में वीर सावरकर का ‘अन्य भारतीय भाषाओं में से एक के रूप में हम उर्दू का यथोथित सम्मान करेंगे; परंतु उसे अपनी मर्यादाएं लांघकर हमारे (अर्थात मराठी के) सिर पर सवार नहीं होना चाहिए’, इस मत का स्मरण होता है ।
‘एक अशिक्षित निर्मल हिन्दू स्त्री गाने में ‘बंदा परवर शुक्रिया’ ऐसा कैसे बोलेगी ? नजर, काबिल, मंजूर, फैसला आदि उर्दू शब्द वह कैसे जानती होगी ?’ यह विचार न गीतकार ने किया और न ही गायिका ने प्रयास किया । हमारी स्मरण क्षमता पर थोडा सा जोर डालें, तो ऐसे अनेक गीतों का स्मरण होगा । ऐसा क्यों होता है ?, इस पर विचार होना चाहिए । ‘सारांश’ नियतकालिक के संपादकीय लेख में नहीं, अपितु ‘संपादकीय’ में वरिष्ठ संपादक, कवि, रंगोलीकार, चित्रकार तथा मराठी भाषा में नए शब्द जोडनेवाले श्रीकृष्ण बेडेकर ने यह विचार रखा ।
५. फिल्म में हिन्दू वैज्ञानिकों को आस्तिक दिखाए जाने पर कथित आधुनिकतावादियों को उदरशूल होना; परंतु मुसलमानों की आस्था केंद्रों के प्रति उनका कुछ न बोलना
‘क्या विज्ञानवाद की शर्त नास्तिकता होती है ?’, इसका भी विचार होने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए । आज के समय में चर्चित हिन्दी फिल्म ‘रॉकेट्री’ में वैज्ञानिक नंबी नारायण को देवतापूजन करते हुए दिखाते ही यहां के आधुनिकतावादियों को उदरशूल होने लगा । ‘इस्रो’ के (भारतीय अंतरिक्ष शोध संगठन) के प्रमुख द्वारा यान की प्रतिकृति को भगवान बालाजी के सामने रखने पर भी ऐसा ही हुआ था । क्या वैज्ञानिकों को उनके व्यक्तिगत जीवन में अपनी आस्थाओं को संजोने की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं होती ? विश्व के अधिकांश प्रमुख वैज्ञानिक आस्तिक ही थे तथा उसके कारण उनके देश के किसी ने उन्हें दोष नहीं दिया था । अपनी सुविधा के अनुसार इसकी अनदेखी करने को हमारे यहां ‘आधुनिकता’ कहा जाता है ।
प्रसिद्ध हिन्दी फिल्म ‘दीवार’ में मंदिर में भगवान के दर्शन करना तो दूर; अपितु मंदिर का प्रसाद ग्रहण करना भी अस्वीकार करनेवाला नास्तिक नायक अमिताभ बच्चन ‘786’ क्रमांक (इस्लाम का पवित्र अंक) की तावीज के प्रति श्रद्धा रखता है तथा उस तावीज के कारण ही वह अनेक बार संकटों से रक्षा पाता है तथा अंत में तावीज खो जाने से वह मर जाता है । संपूर्ण हिन्दू वातावरण में पला-बढा नायक (हीरो) सहजता से बोलता है, ‘आजा आजा मैं हूं प्यार तेरा’ । इस पंक्ति में ‘अल्लाह अल्लाह इन्कार तेरा’ है तथा देश के ८० प्रतिशत हिन्दुओं को अनेक वर्षाें से इस विसंगति पर कोई आपत्ति नहीं हुई, इतने उच्च स्तर की सहिष्णुता हिन्दुओं ने दिखाई; परंतु हिन्दी (नहीं उर्दू) फिल्में हिन्दुओं की भावनाओं को निरंतर कुचलती रहीं । उसी समय मुसलमान तो गांव अथवा मित्र के लिए प्राण न्योछावर करनेवाले; ऐसा चित्र बनाते रहे । टॉलीवुड ने (दक्षिण भारतीय फिल्म जगत) ने इसका पूरा लाभ उठाया । उन्होंने हिन्दू जीवनमूल्य, संस्कृत श्लोक एवं सभ्यता का उपयोग करते हुए फिल्में बनाईं तथा उनका हिन्दी में अनुवाद भी किया । बॉलीवुड के दुष्प्रचार से अक्षरशः ऊब चुका दर्शक इन फिल्मों को अपने सिर पर उठाने लगा ।
६. बहुसंख्यकों के अपमान की पराकाष्ठा के कारण हिन्दुत्व का उत्थान तथा उससे सत्ता-परिवर्तन !
प्रत्येक माध्यम से बहुसंख्यकों को ही अपमानित करने की जब पराकाष्ठा हुई, उस समय हिन्दुत्व का उत्थान होना स्वाभाविक ही था और हुआ भी ! लोगों ने मतदान के माध्यम से निषेध व्यक्त करते हुए वर्ष २०१४ में सत्ता-परिवर्तन किया । उसके कारण अब थोडा हिन्दू इतिहास भी सामने आने लगा, अन्यथा उसके पूर्व मानो ‘भारत का इतिहास मुगलों से ही आरंभ हुआ’, ऐसा ही दिखाया जा रहा था । वामपंथियों ने रामायण-महाभारत को मिथक प्रमाणित कर दिया था । चंद्रगुप्त, विक्रमादित्य, शालिवाहन, ललितादित्य आदि सम्राटों के विषय में कभी पढाया ही नहीं गया था, तो विभिन्न राजवंश कहां से सिखाए जाते ? अनेक शोधकर्ता एवं वैज्ञानिक ऋषियों की भी कोई जानकारी नहीं दी गई थी । अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, युद्धशास्त्र, औषधिशास्त्र आदि अनेक प्राचीन विषयों को कभी सामने ही आने नहीं दिया गया । ‘चाहे अनेक गणराज्य हों; परंतु भारत एक राष्ट्र था’, इसका भान ही नहीं कराया गया था ।
इसी देश में सामान्य मनुष्य के हित एवं कल्याण के मार्गाें की खोज की गई । आज बढा-चढाकर जिसे ‘मानवधर्म’ कहा जाता है, वह वास्तव में ‘सनातन’ धर्म ही है, इसकी प्रतीति जब सभी को होगी, वह सुदिन निकट ही है !’
– डॉ. सच्चिदानंद शेवडे, राष्ट्रीय प्रवचनकार एवं हिन्दुत्वनिष्ठ व्याख्याता, डोंबिवली. (वर्ष २०२२)