कुत्तों का काटना या ‘प्रशासनिक’ लापरवाही ?

छोटे बच्चों की तस्करी की बढती हुई घटनाएं देखी जाएं, तो अपने बच्चों की रक्षा करने के विषय में अभिभावक भले ही अधिक सतर्क हो रहे हों; परंतु क्या आप यह जानते हैं कि तब भी लावारिस कुत्तों की समस्या अपना जबडा खोले खडी है ? कुछ ही दिन पूर्व राजस्‍थान के सिरोही में घटित हृदय को विदीर्ण करनेवाली घटना उसका प्रातिनिधिक उदाहरण है । एक व्यक्ति को सिरोही के एक चिकित्सालय में क्षयरोग के कक्ष में भर्ती किया गया था । उसकी पत्नी तथा १ वर्ष का छोटा बच्चा इस कक्ष के बाहर सोए हुए थे । उस समय एक कुत्ता वहां आया और वह बच्चे को अपने मुंह में पकडकर वहां से भागा । यह ध्यान में आते ही बच्चे की मां उस कुत्ते के पीछे दौड पडी; परंतु तब तक कुत्ते ने उस बच्चे को फाडकर खा लिया था । अपना भविष्य अपनी आंखों के सामने नष्ट होता हुआ देखकर उस दुर्भाग्यशाली मां के अंतःकरण की क्या स्थिति हुई होगी, क्या कोई इसकी कल्पना भी कर सकेगा ? अक्टूबर २०२२ में उत्तर प्रदेश के नोएडा में भी ऐसी ही एक घटना हुई थी । इसमें एक कुत्ते ने ७ माह के बच्चे पर आक्रमण कर उसकी अंतडियां बाहर निकाल दीं । उस बच्चे की लंबी शल्यक्रिया (ऑपरेशन) करके भी उस छोटे जीव को बचाने में डॉक्टर असफल रहे ।

क्षोभजनक समस्या !

भारत में सर्वत्र लावारिस कुत्तों की समस्या भयावह होती जा रही है । केवल छोटे बच्चों को ही नहीं, अपितु सभी आयु समूह के लोगों को उनसे कष्ट हो रहा है । अप्रैल २०२२ में श्रीनगर के दालगेट परिसर में लावारिस कुत्तों ने १७ पर्यटकों सहित ३९ लोगों को काटा । उन सभी को चिकित्सालय में भर्ती करना पडा । ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के अनुसार वर्ष २०२१ में भारत में ६ करोड २० लाख लावारिस कुत्ते थे । उस वर्ष ‘रेबीज’ के कारण मृत्यु होनेवाले भारतीयों की संख्‍या २१ सहस्र २४० थी । यह संख्या विश्व की कुल संख्या के ३६ प्रतिशत है । इससे लावारिस कुत्तों पर नियंत्रण रखनेवाली सरकारी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खडा होता है । ‘कुत्तों का काटना अधिक घातक है या प्रशासनिक लापरवाही ?’, इस पर विचार करने का अब समय आ चुका है कि यदि किसी ने ऐसा सात्त्विक क्षोभ व्यक्त किया, तो उसमें अनुचित क्या है ?

कुछ वर्ष पूर्व नोएडा महानगरपालिका ने नियम बनाया कि ‘पालतू कुत्ते ने किसी को काट लिया, तो उसके लिए १० सहस्र रुपए के आर्थिक दंड के साथ पीडित व्यक्ति की संपूर्ण चिकित्सा का दायित्व कुत्ते के मालिक का होगा ।’ पालतू कुत्तों की समस्या पर नियंत्रण रखने के लिए यह अभियान भले ही स्वागतयोग्य है; परंतु लावारिस पशुओं का क्या किया जाए ?’, यह प्रश्‍न अनुत्तरित है ।

जनता के प्रति आस्था का अभाव !

इस जटिल विषय का अध्ययन करने के लिए भारतीय कानून में लावारिस पशुओं के संदर्भ में दी गई नीति को समझना आवश्यक है । भारतीय संविधान में समाहित ‘मूलभूत कर्तव्य ५१ ए (जी)’ में ‘जीवित पशुओं के प्रति करुणा दिखाने’ को नागरिकों का मूलभूत कर्तव्य बताया गया है तथा ‘पशु क्रूरता प्रतिबंध कानून १९६०’ में पशुहिंसा करनेवाले को आर्थिक दंड देने के साथ कारावास भोगने का प्रावधान है । इसी कानून के अंतर्गत वर्ष १९६२ में पशुओं की रक्षा तथा उनके साथ होनेवाली हिंसा के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए ‘भारतीय जीव-जंतु कल्‍याण बोर्ड’ की स्थापना की गई । इसके साथ ही समय-समय पर देश के सर्वोच्‍च न्‍यायालय तथा उच्‍च न्‍यायालयों ने भी पशुओं की रक्षा के लिए निर्णय दिए हैं ।

कोई भी सूज्ञ एवं उत्तरदायी नागरिक ‘पशुओं के प्रति आस्था होना’, इस तथ्य को अस्वीकार नहीं करेगा । हिन्दू धर्म ने प्रतिपादित किया है कि ‘भूतदया ईश्वरसेवा है ।’ तो दूसरी ओर अति पशुप्रेम के कारण जनता को हो रहे कष्ट की ओर अधिक ध्यान देना आवश्यक है, इसे भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता । श्‍वान प्रेमी तथा विभिन्न पशु प्रेमी संगठन इस विषय में अंतर्मुखता से विचार करते हुए दिखाई नहीं देते, यह जनता का दुर्भाग्य है । भारतीय कानून भले ही पशुओं की रक्षा के लिए बनाया गया हो, तब भी उसके कारण सामान्य जनता को उससे कष्ट न हो; इसके लिए भी स्थानीय इकाईयों को कुछ नियम बनाकर दिए गए हैं; परंतु वास्तव में होता क्या है, तो किसी पीडित व्यक्ति द्वारा महानगरपालिका से संपर्क कर उनके परिसर के लावारिस कुत्तों को ले जाने का अनुरोध करने पर, ‘हम आपके यहां के कुत्ते तो ले जाएंगे; परंतु हमारे पास जो अन्य कुत्ते हैं, उन्हें आपके क्षेत्र में छोड जाएंगे’, ऐसे क्षोभजनक उत्तर दिए जाते हैं । कुत्तों के काटने से भी सरकारी उपेक्षा का यह विष ही जनता के लिए अधिक पीडादायक है । एक ब्योरे के अनुसार भारत के ६ महानगरों में होनेवाली कुल दुर्घटनाओं में से लावारिस कुत्तों के कारण होनेवाली दुर्घटनाएं दूसरे स्थान पर हैं । उनमें से भी ५८ प्रतिशत दुर्घटनाएं लावारिस कुत्तों के कारण हुई हैं । इससे समस्या की गहराई और भयानक होती दिखाई दे रही है ।

पीडा रहित हत्या !

अमेरिका एवं ऑस्‍ट्रेलिया जैसे विकसित देशों में लावारिस कुत्ते दिखाई देने पर उन्हें सरकारी आश्रयस्थलों में ले जाया जाता है । अमेरिका में ऐसे ३.५ सहस्र आश्रयस्थल हैं तथा उन पर प्रतिवर्ष लगभग २ अरब डॉलर का व्यय किया जाता है ।

७२ घंटे में कोई आश्रयस्थलों से कुत्तों को पालने के लिए नहीं ले जाता, तो उन कुत्तों की पीडा रहित हत्या कर दी जाती है । एक अनुमान के अनुसार अमेरिका प्रतिवर्ष ऐसे ४ लाख कुत्तों को मार देता है, ऑस्‍ट्रेलिया में यह आंकडा २ लाख है ।

भारत सरकार को भी जनता को त्रस्त करनेवाली इस समस्या के लिए जनता के प्रति संवेदनशीलता दिखाकर इसका स्थायी समाधान निकालना समय की मांग है । पशुओं के प्रति ‘दिशाहीन दया’, यदि मनुष्य के प्राणों के लिए संकट बनती हो, तो ऐसी दया किस काम की ? इसे यदि ध्यान में लिया, तो सिरोही की उस दुर्भाग्यशाली मां की आंखों के आंसू पोंछने का पुण्य हमें मिलेगा !