‘हिन्दू धर्म में बताए अनुसार सोलह संस्कारों में से ‘विवाह संस्कार’ महत्त्वपूर्ण संस्कार है । विवाह निश्चित करते समय वर-वधू की जन्मकुंडलियों के मिलान की पद्धति भारत में पहले से ही प्रचलित है । विवाह का उद्देश्य एवं उसके लिए वर-वधू की जन्मकुंडलियों के मिलान का महत्त्व इस लेख द्वारा समझ लेंगे ।
१. विवाह का उद्देश्य (वैदिक दृष्टिकोण)
‘पुरुष एवं प्रकृति के संयोग से विश्व की निर्मिति हुई । वैदिक परिभाषा में पुरुष को अग्नि एवं प्रकृति को सोम कहा गया है । अकेला पुरुष अथवा अकेली स्त्री ‘अर्धेंद्र’ अर्थात अपूर्ण होते हैं । पुरुषरूपी अग्नि एवं स्त्रीरूपी सोम की एकता से जीवन को पूर्णत्व आता है । विवाहबद्ध हुए पुरुष एवं स्त्री, ‘धर्मपालन’ करने के लिए एक-दूसरे के पूरक एवं सहायक होते हैं । धर्मपालन करने से मनुष्य की ऐहिक एवं आध्यात्मिक उन्नति साध्य होती है । विवाह संस्कार, गृहस्थाश्रम का आरंभबिंदु है । गृहस्थाश्रम में रहकर दंपति के यज्ञ, पूजा आदि करने से ‘देवऋण’, संतान उत्पन्न करने से ‘पितृऋण’ एवं अतिथियों की सेवा करने से ‘समाज ऋण’ चुकता होता है । विवाह संस्कार के कारण कुटुंब व्यवस्था टिकी रहने से पर्यायस्वरूप समाजव्यवस्था एवं राष्ट्रव्यवस्था उत्तम रहती है ।
२. विवाह निश्चित करते समय किन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है ?
विवाह निश्चित करते समय जोडीदार का कुल (घराना), विद्या (बुद्धिमत्ता एवं शिक्षा), आयु, शील (प्रकृति एवं स्वभाव), धन (अर्थार्जन करने की क्षमता), रूप (शारीरिक स्थिति) एवं घर-द्वार का विचार किया जाता है । इस विषय में कुछ विवेचन आगे भी दिया है ।
अ. वर एवं वधू समान कुल के हों, तो दोनों घरों के कुलाचार, रीति-रिवाज, कुटुंबियों की मानसिकता, कुटुंबियों का वैचारिक स्तर आदि में समानता होने से दंपति को एक-दूसरे के कुटुंबियों से मेल-जोड बढने में सुलभता होती है ।
आ. लडके के लिए २५ से ३० और लडकियों के लिए २० से २५ की आयु विवाह के लिए उचित समझी जाती है ।
इ. ‘लडका एवं लडकी की प्रकृति तथा स्वभाव एक-दूसरे से कितनी मात्रा में मेल खाते हैं ?’ यह समझने के लिए ज्योतिषशास्त्र की सहायता ली जाती है ।
ई. पति-पत्नी के गुण, कर्म एवं स्वभाव में समानता होने से उनसे उत्पन्न होनेवाली संतान उनसे भी श्रेष्ठ गुणों से संपन्न होती है ।
३. वर-वधू की जन्मकुंडलियां मिलाने का उद्देश्य
‘वर एवं वधू की प्रकृति एवं स्वभाव एक-दूसरे के लिए पूरक हों’, यह जन्मकुंडली मिलाने का उद्देश्य है । ऐसे दंपति जीवन की समस्याओं का समर्थ रूप से सामना कर सकते हैं । व्यक्ति की प्रकृति एवं स्वभाव जन्मकुंडली द्वारा भली-भांति समझा जा सकता है । इसलिए विवाह निश्चित करते समय वर-वधू की जन्मकुंडलियां मिलाने की प्रथा भारत में प्रचलित है । जन्मकुंडलियां मिलाते समय कुंडली के आगे दिए घटकों का विचार किया जाता है ।
३ अ. लग्न राशि
कुंडली के प्रथम स्थान में होनेवाली राशि को ‘लग्न राशि’ कहते हैं । लग्न राशि से व्यक्ति की शारीरिक प्रकृति, कार्यक्षमता, कार्यक्षेत्र आदि बातों का बोध होता है । वर एवं वधू की लग्न राशि एक-दूसरे के शुभ योग में होने से उनका व्यक्तित्व एक-दूसरे के लिए पूरक होता है । ज्योतिषशास्त्र में १२ राशियों का पृथ्वी, आप, तेज एवं वायु, इन ४ तत्त्वों में विभाजन किया गया है । उनमें से पृथ्वी एवं आप तत्त्व की राशि एक-दूसरे के शुभयोग में आती है, इसके साथ ही तेज एवं वायु तत्त्व की राशि एक-दूसरे के शुभयोग में आती है अर्थात एक-दूसरे के लिए पूरक होती है ।
३ आ. जन्म राशि
कुंडली में चंद्र जिस राशि में होता है, वह राशि व्यक्ति की ‘जन्म राशि’ होती है । चंद्र मन का कारक होने से जन्म राशि से व्यक्ति की रुचि-अरुचि, स्वभाव विशेषताएं, भावनाप्रधानता, मानसिक धारणा आदि बातों का बोध होता है । वर एवं वधू की जन्म राशि एक-दूसरे के शुभयोग में होने से उसका स्वभाव एक-दूसरे के अनुकूल होता है । वर-वधू की जन्म राशि एवं जन्म नक्षत्र की परस्पर-पूरकता समझने के लिए ‘गुण मिलान’ करने की (३६ गुण मिलान की पद्धति भारत में पहले से ही प्रचलित है । इसलिए गुण मिलान के साथ ही कुंडली के अन्य घटकों को ध्यान में लेना आवश्यक होता है ।
३ इ. ग्रहस्थिति
वर एवं वधू की जन्मकुंडलियों की ग्रहस्थिति का अध्ययन कर इसका विचार किया जाता है कि ‘उनके स्वास्थ्य, आर्थिक स्थिति, गृहसौख्य, संततिसौख्य इत्यादि बातों का विचार कर ‘वैवाहिक जीवन कितनी मात्रा में सफल होगा ?’
४. विवाह प्रारब्धाधीन है, तो जन्मकुंडलियां देखने की आवश्यकता ही क्या है ?
हिन्दू धर्म के तत्त्वज्ञानानुसार व्यक्ति का जन्म, विवाह एवं मृत्यु प्रारब्धानुसार होते हैं । ऐसा होते हुए ‘विवाह के संदर्भ में जन्मकुंडलियां देखने की आवश्यकता ही क्या है ?’, ऐसा प्रश्न मन में आ सकता है । वर्तमान काल के अनुसार मनुष्य का प्रारब्ध ६५ प्रतिशत होने से क्रियमाण कर्म ३५ प्रतिशत
है । विवाह प्रारब्धानुसार है तब भी ‘उचित जोडीदार पाने के लिए प्रयत्न करना’, यह अपना क्रियमाण कर्म है । जिस प्रकार मनुष्य के निरोगी रहने के लिए आयुर्वेद में व्यायाम, उचित आहार-विहार आदि का पालन करने के लिए बताया है, उसी प्रकार वैवाहिक जीवन सुखी हो, इसलिए सुयोग्य जोडीदार मिलने के लिए ज्योतिषशास्त्र में जन्मकुंडलियां मिलाने के लिए कहा जाता है । बुद्धि की समझ में आए ऐसी कुछ कठिन बातें उदा. व्यक्ति के प्रारब्ध की तीव्रता, व्यक्ति को सूक्ष्म अनिष्ट शक्तियों का कष्ट इत्यादि का बोध जन्मकुंडली द्वारा होता है । जन्मकुंडलियां देखने के कारण व्यक्ति को अपने जीवनसाथी के स्वभाव की जानकारी होने से उसे समझने में सहायता मिलती है ।
५. सनातन धर्म का मानव को प्रकृति के लिए अनुरूप आदर्श जीवन जीने की सीख देना
पश्चिमी जीवनशैली के प्रभाव के कारण भारत की विवाहसंस्था पर एवं कुटुंबव्यवस्था पर भारी दुष्परिणाम हुआ है । भारत में विवाह-विच्छेदों की मात्रा वेग से बढ रही है । बडे शहरों में एवं सुशिक्षित लोगों में यह मात्रा अधिक है । विवाह-विच्छेदों को कारण होनेवाले दुष्परिणाम भयावह हैं । पश्चिमी विचारधारा मुख्य रूप से जडवाद एवं भोगवाद पर आधारित है । इसलिए स्वच्छंद जीवन जीने की ओर लोगों का झुकाव है; परंतु ईश्वर द्वारा निर्माण किया गया विश्व स्वच्छंदता पर नहीं, अपितु ठोस नियमों पर चलता है । सनातन धर्म ने मानव को प्रकृति के लिए अनुकूल ऐसा आदर्श जीवन जीने के नीति-नियम बनाए हैं । विवाह के विषय में जोडीदार का चुनाव मनानुसार न करते हुए कुल, शील, आयु आदि बातों को ध्यान में रखकर करने से वैवाहिक जीवन सफल होने की मात्रा बहुत बढ गई है ।’
– श्री. राज कर्वे, ज्योतिष विशारद, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (१०.१०.२०२२)