चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कोरोना महामारी की आड में लागू किए प्रतिबंध अंततः जनता के प्राणों तक आने से लाखों चीनी नागरिकों ने सडक पर उतरकर उनका तीव्र विरोध किया । यह आंदोलन इतना तीव्र था कि उसके कारण जिनपिंग को पीछे हटकर प्रतिबंधों में ढील देने पर बाध्य होना पडा । चीनी नागरिकों की आवाज को सदैव ही दबानेवाले जिनपिंग के लिए यह जोरदार झटका है । चीन की परिवर्तित हो रही इस स्थिति का विश्लेषण इस लेख में किया गया है ।
१. कोरोना प्रतिबंधों को लेकर जिनपिंग के विरुद्ध जनता में तीव्र क्षोभ !
‘चीन में पिछले माह से चल रही उथलपुथल चीन के विषय में भाष्य करनेवाले विशेषज्ञों की कल्पना से परे है । वर्ष १९४९ में पूर्व के माओवादियों के राजनीतिक दल ‘द रिपब्लिक ऑफ चाइना’ का नामकरण ‘पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ हुआ । माओवादी राजतंत्र के विरुद्ध बोलनेवालों को तत्काल बंदी बनाकर चीन के कारागारों की कालकोठरी में धकेला जाता है । लाखों की संख्या में होनेवाले गुप्तचर (जानकारी देनेवाले) तथा सार्वजनिक सुरक्षा विभाग के पुलिस अधिकारी, नागरिकों की प्रत्येक गतिविधि पर दृष्टि रखते हैं । लाखों ‘सीसीटीवी कैमरे’ तथा आधुनिक प्रौद्योगिकी से युक्त प्रत्येक साधन के आधार पर चीन के किसी भी कोने में लोग इकट्ठा होनेवाले हों, तो उसकी जानकारी मिलकर इस भीड को रोका जाता है, तथापि नवंबर २०२२ में चीन में ‘कोरोना मुक्त नीति’ (जीरो कोविड पॉलिसी) एवं अलगीकरण के नाम पर लाखों नागरिकों को बंदी बनाए जाने के कारण जनता के क्षोभ का विस्फोट हुआ । यह विस्फोट इतना बडा था कि चीन के १०० से अधिक शहरों के नागरिकों ने सडकों पर उतरकर पुलिस द्वारा बनाई गई बाधाएं ध्वस्त की । इस समय शी जिनपिंग के त्यागपत्र की जोरदार मांग की गई । उसके कारण सार्वजनिक सुरक्षा तंत्र की भीड का व्यवस्थापन करने की नीति धराशायी हो गई । चीन में इंटरनेट, टीवी, चल-दूरभाष यंत्रों एवं प्रसिद्धिमाध्यमों पर सरकार का संपूर्ण नियंत्रण होते हुए भी यह आंदोलन अंतरराष्ट्रीय सामाजिक माध्यमों पर पहुंच गया । उसके कारण चीन के विभिन्न स्थानों पर छात्रों ने हाथ में फूल, मोमबत्तियां तथा प्रतीकात्मक श्वेत कागद लेकर सरकार की निंदा की तथा यह दृश्य संपूर्ण विश्व ने देखा । इसके अतिरिक्त पुलिस ने विशिष्ट स्थानों पर जो बाधाएं खडी की थीं, लोगों ने उनकी अनदेखी करने के छायाचित्र भी संपूर्ण विश्व में प्रसारित हुए । इससे शी जिनपिंग तथा उनके माओवादी दल के विरुद्ध का जनक्षोभ दिखाई देता है ।
२. वर्ष १९८९ के आंदोलन की पुनरावृत्ति !
चीन में जून १९८९ में तत्कालीन माओवादी राजतंत्र के विरुद्ध इसी प्रकार का आंदोलन हुआ था । इस आंदोलन में चीन के ४०० शहरों के विश्वविद्यालयों के लाखों छात्र लोकतंत्र की मांग करते हुए सडकों पर उतर गए थे । उस समय के चीन के राष्ट्रपति ली पेंग ने ३ लाख बंदूकधारी सैनिकों की सहायता से छात्रों का यह विद्रोह तोड डाला था । इसके साथ ही आंदोलनकारियों को टैंकों के नीचे अक्षरशः कुचल दिया था । इस आंदोलन में लगभग १ लाख छात्रों की हत्या हुई; परंतु चीन की व्यवस्था ने यह संख्या कहीं भी प्रसिद्ध नहीं होने दी । विगत ३ दशकों में चीन ने इसके सभी प्रतीक मिटा दिए । उसके उपरांत ‘जून १९८९’ का सामान्य उल्लेख करना भी अपराध प्रमाणित किया जाने लगा । वर्ष १९८९ के उपरांत लोगों का आंदोलन नहीं हुआ, ऐसा नहीं है । संबंधित सरकारों ने कारखाने, बांध, खदान तथा नए शहर बसाने के लिए जनता की भूमि बलपूर्वक अपने नियंत्रण में ली । इसके विरुद्ध जनता ने सडक पर उतरकर आंदोलन किए हैं, तथापि स्थानीय पुलिस एवं प्रशासन ने इन आंदोलनों को कुचल दिया । तिब्बत, शिनजियांग (पूर्व तुर्कीस्तान), दक्षिण मंगोलिया तथा अब हांगकांग में भी यही चित्र दिखाई दिया । विशेष बात यह कि चीन के इस दुष्कृत्य का अंतरराष्ट्रीय स्तर से विरोध होकर भी चीन इस प्रकार से अभी भी आंदोलन कुचल रहा है ।
३. जिनपिंग की अडियल नीति के कारण ही चीन में कोरोना संक्रमण !
वुहान से कोरोना संक्रमण आरंभ होने के कारण जिनपिंग की माओवादी सरकार के विरुद्ध जनता के क्षोभ की पहली चिंगारी भडक उठी । आरंभिक काल में ‘वुहान से यह विषाणु पूरे विश्व में फैल गया’, इस वास्तविकता को चीन के सभी प्रचार तंत्र दबा रहे थे तथा यहां से कोरोना संक्रमण होने की बात अस्वीकार कर रहे थे । अगले कुछ महिनों में ही चीन में भी सर्वत्र कोरोना संक्रमण फैला । आगे जाकर चीन ने झूठा दावा किया था कि ‘हमने ही सर्वप्रथम कोरोना टीके का आविष्कार किया’, जो उसी की हानि करनेवाला सिद्ध हुआ । चीन की ओर से यह टीका प्रभावकारी तथा सस्ता होने का दावा किया गया; परंतु उसका यह टीका संपूर्ण रूप से विफल रहा । पश्चिमी देश या भारत से प्रभावशाली टीका न लेने की जिनपिंग की अडियल नीति के कारण चीन में सर्वत्र कोरोना फैला ।
४. जिनपिंग के यातायात बंदी के अतिरेक से चीन में जनक्षोभ !
चीन में अगस्त-सितंबर २०२२ में कोरोना संक्रमण बढने के उपरांत जिनपिंग ने अलगीकरण के विषय में गोपनीयता अपनाने का आदेश दिया था । इस समय जिनपिंग की महत्त्वाकांक्षी ‘जीरो कोविड’ नीति के क्रियान्वयन के अंतर्गत लाखों नागरिकों पर १०० से अधिक दिन तक बलपूर्वक यातायात बंदी थोप दी ।
इस जनक्षोभ की पहली झलक १९ सितंबर २०२२ को एक बस दुर्घटना में २७ रोगियों की मृत्यु हो जाने की घटना के उपरांत मिली । इन २७ रोगियों को उनके घर से बलपूर्वक उठाकर इसी बस से अलगीकरण शिविर में ले जाया जा रहा था, उस समय यह बस दुर्घटनाग्रस्त हुई थी । इस घटना के उपरांत जिनपिंग को जनता के क्षोभ का सामना करना पडा । उसके उपरांत २४ नवंबर २०२२ को शिनजियांग प्रांत के उरूमक्वी क्षेत्र में स्थित हेन सेटलर्स बस्ती में एक बहुमंजिला इमारत में भीषण आग लगकर उसमें सैकडों नागरिक जलकर भस्म हुए । सरकार द्वारा लागू की गई यातायात बंदी के कारण समय रहते सहायता न पहुंचने के कारण यह इमारत ३ घंटे तक आग में झुलसती रही । अपने प्राण बचाने के लिए इस इमारत में रहनेवाले अनेक नागरिकों ने सीधे नीचे छलांग लगाई तथा उसमें उनकी मृत्यु हुई । चीन के प्रसारमाध्यमों ने इस भीषण घटना के दृश्य प्रसारित किए । उसके कारण लोगों की भावनाओं का इतना विस्फोट हुआ कि इंटरनेट पर नियंत्रण रखनेवाला सरकारी तंत्र ही अस्त-व्यस्त हुआ । चीन के सामाजिक माध्यम ‘वि चैट’ सहित अन्य सामाजिक जालस्थलों को चीन की आधिकारिक इंटरनेट व्यवस्था से हटाया गया; परंतु उसके उपरांत भी लोग शांत नहीं रहे । उन्होंने चीन की आधिकारिक व्यवस्था को छोडकर गुप्त ‘सॉफ्टवेयर’ का उपयोग कर इन दृश्यों को ट्विटर जैसे अंतरराष्ट्रीय मंच के द्वारा संपूर्ण विश्व में प्रसारित किया । कतार में ‘फिफा’ विश्वकप फुटबॉल प्रतियोगिता में खेले गए मैचों में ‘पूरे विश्व के फुटबॉलप्रेमी अपने-अपने देश की टीम को सामाजिक अंतर का पालन न कर तथा मुखपट्टिका का (मास्क का) उपयोग न कर उन्हें प्रोत्साहन दे रहे हैं’, यह दृश्य चीन के करोडों लोगों ने देखा । उसके कारण जिनपिंग की ‘जीरो कोविड’ नीति के विरुद्ध जनता का असंतोष और बढ गया । इस विचित्र संयोग के कारण ‘टाइन अमेन’ चौक पर जून १९८९ में घटित घटना का स्मरण हुआ । वर्ष १९८९ में हुए विद्रोह के समय चीन के पूर्व अध्यक्ष ह्यू जिंताव की हुई मृत्यु के कारण तत्कालीन माओवादी सरकार की अन्यायकारी सरकार के विरुद्ध इसी प्रकार का जनक्षोभ भडक उठा था । ३० नवंबर २०२२ को पूर्व राष्ट्रपति जिआंग जेमिन की स्मृति के उपलक्ष्य में अर्थात ‘पैच चाइना’ आंदोलन की स्मृति में राष्ट्रीय शोक व्यक्त करने के लिए फूल और मोमबत्तियां लेकर सडक पर आंदोलन करने का अवसर आंदोलनकारियों को मिला । जिनपिंग के विरोधी दल चीनी माओवादी दल, साथ ही ‘पीपल्स लिबरेशन आर्मी’ के जिनपिंग द्वारा हटाए गए नेताओं ने इस आंदोलन को समर्थन दिया ।
५. जनक्षोभ के सामने जिनपिंग नरम पडे !
कुछ ही दिन पूर्व यह समाचार मिला कि छात्रों को इस आंदोलन से दूर रखने के लिए चीन के १०० से अधिक विश्वविद्यालय बंद किए गए हैं तथा छात्रों को घर जाने के लिए कहा गया है । जनता के क्षोभ की तीव्रता न्यून करने के लिए गुनांगझोऊ एवं शांघाई इन शहरों में अलगीकरण जैसे प्रतिबंध हटाए गए हैं । ‘शक्तिशाली चीनी सरकार को झटका देकर आंदोलनकारियों ने प्राप्त की हुई यह पहली विजय है’, ऐसा कहा जा सकता है ।
६. चीन की नई पीढी अब अन्याय सहन नहीं करेगी !
वर्ष २०१२ से जिनपिंग के द्वारा सत्ता संभाले जाने के उपरांत चीन की आर्थिक स्थिति और खराब होती गई । उसके कारण अब जिनपिंग के सामने के विकल्प बहुत सीमित हैं । उनमें पहला विकल्प है लोगों का क्षोभ शांत करने के लिए कोरोना प्रतिबंध, साथ ही उससे संबंधित नीति में संपूर्ण परिवर्तन लाकर आर्थिक सुधार का कार्यक्रम घोषित करना, तथापि भ्रष्टाचार के कारण गंभीर रूप से प्रभावित अर्थव्यवस्था तथा ऋण (उधार) में डूब गई बैंकों के कारण आर्थिक सुधार लाना कठिन है, यह भी सत्य है । दूसरा विकल्प यह है, ‘पीपल्स लिबरेशन आर्मी’ को आदेश देकर टैकों का उपयोग कर इस आंदोलन को कुचल देना ! इसका अर्थ यही है कि अब जिनपिंग को ‘जून १९८९ में आंदोलन करनेवाले युवकों तथा अब वर्ष २०२२ में आंदोलन करनेवाले नई पीढी के युवकों में बहुत बडा अंतर है’, यह ध्यान में लेना पडेगा । जून १९८९ में युवक एक-दूसरे तक संदेश पहुंचाकर संपर्क में थे, तो आज की पीढी के पास इंटरनेट, चल-दूरभाष जैसे संपर्क के आधुनिक ‘शस्त्र’ हैं । उसके कारण एक बटन दबाते ही किसी भी क्षण लाखों लोग विरोध प्रदर्शन करने के लिए सडक पर उतर सकते हैं तथा उसके माध्यम से वे सरकार ने जनता की जो आवाज दबाकर रखी है, उसका रूपांतरण सुनामी जैसी बडी आवाज में कर सकते हैं ।’
लेखक : विजय क्रांति
(साभार : साप्ताहिक ‘ऑर्गनाइजर’ का जालस्थल, ३.१२.२०२२)