आंतरिक आनंद, संतुष्टि एवं ‘श्रीकृष्ण की सेवा’ भाव से नृत्य करनेवालीं देहली की प्रसिद्ध भरतनाट्यम् नृत्यांगना तथा नृत्यगुरु पद्मश्री श्रीमती गीता चन्द्रन् !

नृत्यसाधना

२६.१०.२०२२ को महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय की साधिका संगीत विशारद एवं संगीत समन्वयक सुश्री (कु.) तेजल पात्रीकर (आध्यात्मिक स्तर ६२ प्रतिशत) ने देहली की प्रसिद्ध भरतनाट्यम् नृत्यांगना एवं कर्नाटक शैली की गायिका पद्मश्री श्रीमती गीता चन्द्रन् से भेंट की । इस भेंट में श्रीमती गीता चन्द्रन् द्वारा वर्णित उनकी नृत्यसाधना की यात्रा यहां दी गई है । १ से १५ जनवरी २०२३ को प्रकाशित अंक में ‘पद्मश्री श्रीमती गीता चन्द्रन् को प्राप्त नृत्यगुरु तथा उनके नृत्यगुरु से उन्हें सीखने के लिए मिले सूत्र,’ यह भाग देखा । इस लेख में ‘आध्यात्मिक गुरु से उन्हें मिली सीख तथा पवित्र स्थान पर नृत्य करने के कारण उन्हें हुए लाभ’ के विषय में सूत्र दिए गए हैं ।

(बाएं से) सुश्री (कु.) तेजल पात्रीकर एवं श्रीमती गीता चन्द्रन्

३. नृत्य करने के लिए स्थान का महत्त्व

३ अ. मंदिर में नृत्य बिना परिश्रम के होना, मंदिर में निरंतर ४-५ घंटे नृत्य करने पर भी थकान प्रतीत न होना, तो अन्य स्थान पर नृत्य करते समय दोगुनी शक्ति का व्यय होना : ‘कुछ नाट्यगृह भिन्न हैं’, ऐसा मुझे प्रतीत होता है । विशेषरूप से देहली का ‘चिन्मय मिशन’ का नाट्यगृह मुझे विशेषतापूर्ण लगता है; क्योंकि वहां उनके व्याख्यान, साथ ही भजनसंध्या जैसे सकारात्मक कार्यक्रम चलाए जाते हैं । उसके कारण वहां का वातावरण सकारात्मक ऊर्जा से भारित होता है । अन्य कुछ स्थानों पर जाने पर मुझे वहां ‘अच्छी शक्ति नहीं है’, ऐसा प्रतीत होता है । ‘मंदिरों की तुलना में ऐसे स्थानों पर नृत्य प्रस्तुत करने के लिए दोगुनी शक्ति व्यय करनी पडती है’, इसे मैंने अच्छे से अनुभव किया है । मंदिर में नृत्य करते समय वह बिना परिश्रम से होता है । वहां कोई आ-जा रहा होता है, तब भी उसका कुछ नहीं लगता । वहां तल्लीन होकर तथा स्वयं को भूलकर नृत्य किया जाता है । उस समय मैं अपनेआप को एक अलग ही विश्व में अनुभव करती हूं । वहां निरंतर ४ घंटे नृत्य करने पर भी थकान प्रतीत न होकर उत्साहित लगता है । अतः नृत्य के संदर्भ में नृत्य का स्थान निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण है ।

३ आ. स्वयं के नृत्य कक्ष में नृत्य का अभ्यास निरंतर चलते रहने से तथा वहां नृत्यगुरु एवं आध्यात्मिक गुरुओं का आना-जाना होने से ‘नृत्यकक्ष पवित्र हो गया है’, ऐसा प्रतीत होना : मैं जहां नृत्य का अभ्यास करती हूं, उस कक्ष में मैं नृत्य के अभ्यास के साथ नृत्य सिखाती हूं तथा नृत्य से संबंधित अन्य सभी कार्य भी करती हूं । उसके कारण वह कक्ष मुझे अत्यंत पवित्र लगता है । ‘मैं नृत्य का जितना अधिक अभ्यास करती हूं, वैसे ही वह स्थान अधिकाधिक पवित्र बन रहा है’, ऐसा मुझे लगता है; क्योंकि वहां मेरे नृत्यगुरु तथा मेरे आध्यात्मिक गुरु आकर उस स्थान को पवित्र कर देते हैं । उसके कारण वह स्थान मुझे ‘जीवंत है’, ऐसा प्रतीत होता है । वहां बच्चे भी नृत्य सीखते हैं; इसलिए यह प्रक्रिया अखंड जारी रहती है ।

३ इ. सभी कलाकारों में सूक्ष्म से जानने की विशेष क्षमता होना : सभी कलाकारों को सूक्ष्म से सकारात्मक अथवा नकारात्मक स्पंदन प्रतीत होते हैं । यह उन्हें भगवान से मिली एक विशेष देन होने के कारण प्रत्येक कलाकार में सूक्ष्म से स्पंदन जान लेने की क्षमता अच्छी होती है ।

४. नृत्यरस में पूर्ण रूप से डूब जाने पर नृत्य की सभी तकनीकी बातों से परे जाकर नृत्याविष्कार में लीन होना संभव तथा यही वास्तविक विश्व होना

मेरे आध्यात्मिक गुरु कहते थे, ‘तुम नृत्यरस में इतना डूब जाओ कि तुम यदि खडे भी रहोगे, तब भी सहजता से उन रसों की सिंचाई होगी ।’ उसके लिए बहुत अभ्यास, वाचन, जाप एवं ध्यान करने की आवश्यकता है । उसके उपरांत नृत्याभ्यास केवल कौशलपूर्ण अभ्यास न रहकर उससे ध्यान की अनुभूति होने लगती है । अनेक वर्षाें तक नृत्य का अभ्यास करने के कारण उसमें समाहित कौशल के संदर्भ में इसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं रहती कि ‘मेरा हाथ उचित स्थान पर है न ? मेरी आंखों की हलचल उचित हो रही है न ?’ नृत्य के लिए आवश्यक दृष्टि से अपनेआप गतिविधियां होती रहती हैं । नृत्य की सभी तकनीकी बातों सहित उससे परे जाना भी संभव होता है । ‘नृत्याविष्कार में लीन होना’, इसके जैसा अन्य कोई विश्व नहीं है ।

५. सनातन धर्म में गायन आराधना का उच्च स्थान है तथा ‘नृत्य’ एवं ‘संगीत’ के माध्यमों से साधना करने का अवसर मिलना बहुत सौभाग्य की बात !

‘राधारमण मंदिर’ के मेरे गुरु श्रीवत्स गोस्वामीजी कहते थे,

श्रुतिकोटिसमं जप्यं जपकोटिसमं हविः ।
हविःकोटिसमं गेयं गेयं गेयसमं विदुः ।

अर्थ : वेदपाठ की अपेक्षा मंत्रजाप करना करोडों गुना अच्छा, मंत्रजाप की अपेक्षा हवि अर्पण करना करोडों गुना अच्छा तथा हवि अर्पण की अपेक्षा भक्ति करना उससे भी करोडों गुना अच्छा है ।
‘ईश्‍वर को पुकारने के लिए भक्तिगीत की अपेक्षा अन्य कोई भी अन्य अच्छा विकल्प नहीं है’, यह इस वचन का आशय है ।

श्लोक का भावार्थ : कोई जाप अथवा कोई प्रवचन सुनना अच्छा है; परंतु स्वयं जाप करना अधिक अच्छा होता है । होम-हवन करना उससे भी अच्छा है । ‘गेय आराधना’ का अर्थ गायन, वादन अथवा नृत्य करना उससे भी अच्छा है तथा उसके आगे अच्छा कुछ नहीं है’, ऐसा सनातन धर्म के धार्मिक ग्रंथों में बताया गया है । अतः सनातन धर्म की सभी परंपराओं में गेय आराधना को उच्च स्थान दिया गया है ।

इसका यही अर्थ होता है कि इस जीवन में नृत्य एवं संगीत के माध्यम से साधना करने का अवसर मिलना बहुत सौभाग्य की बात है । इसके कारण नृत्य करने का मूल उद्देश्य ध्यान में आता है ।’

– पद्मश्री श्रीमती गीता चन्द्रन् (भरतनाट्यम् नृत्यांगना एवं नृत्यगुरु), देहली (२६.१०.२०२२) 

पद्मश्री श्रीमती गीता चन्द्रन् द्वारा महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय के कार्य के विषय में व्यक्त किए गौरवोद्गार !

१. संगीत एवं नृत्य के विषय में महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय द्वारा किया जा रहा शोध समाज के लिए बहुत बडा योगदान है !

‘गोवा के महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय की ओर से संगीत एवं नृत्य के संदर्भ में चल रहे शोध के विषय में सुनकर मैं बहुत आनंदित हुई । आज की पीढी को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सभी बातें समझानी पडती हैं । आप ऐसे शोध कर उसके अच्छे परिणाम समाज के सामने रखते हैं, यह समाज के लिए बहुत बडा योगदान है । कर्णकर्कश संगीत एवं सात्त्विक संगीत के मध्य अंतर, ऐसे संगीत का, गायक एवं श्रोताओं पर होनेवाला प्रभाव, नृत्य का नर्तक एवं दर्शकों पर होनेवाला प्रभाव, वातावरण का नृत्य पर होनेवाला प्रभाव तथा इसके साथ ही नृत्य के कारण उत्पन्न होनेवाले अच्छे एवं नकारात्मक स्पंदनों का अध्ययन करना’, इन सभी से संबंधित यह शोध समाज के लिए बहुत बडा योगदान सिद्ध होनेवाला है ।

२. संगीत, नृत्य आदि भारतीय कलाओं द्वारा प्रदान की गई श्रेष्ठ एवं सामर्थ्यवान धरोहर ही भारतीय संस्कृति की मुख्य नींव है !

आज लोग पाश्चात्यों का अंधानुकरण करते हैं । ‘भारतीय संस्कृति ने हमें कितने श्रेष्ठ तथा सामर्थ्यवान बातें प्रदान की हैं’, यह उनकी समझ में नहीं आता । हमें सचमुच ऐसे ही शोध में सम्मिलित होना चाहिए, जो शोध वैज्ञानिक परिभाषा के द्वारा यह बता सके कि भारतीय संगीत, नृत्य एवं अन्य कलाओं का इतना बडा एवं परिपूर्ण एवं उत्कृष्ट इतिहास है; जिसने इस समाज को टिकाए रखा है । यह इतिहास ही हमारी वास्तविक पहचान है तथा यही भारतीय संस्कृति की मुख्य नींव है !’

– पद्मश्री श्रीमती गीता चन्द्रन् (भरतनाट्यम् नृत्यांगना एवं नृत्यगुरु), देहली (२६.१०.२०२२)