१. अर्थ
दत्त अर्थात निर्गुण की अनुभूति दिया हुआ । दत्त वे हैं जिन्हें ‘वह स्वयं ब्रह्म ही है, मुक्त है, आत्मा है’, यह अनुभूति है । जन्म से ही दत्त को निर्गुण की अनुभूति थी, जबकि साधकों को ऐसी अनुभूति होने के लिए अनेक जन्म साधना करनी पडती है । इससे दत्त का महत्त्व ध्यान में आता है ।
२. इतर कूछ नाम
२ अ. दिगंबर : ‘दिक् एवं अंबरः ।’ दिक् अर्थात दिशाएं ही जिसका अंबर (वस्त्र) है, वह दिगंबर । अर्थात इतना विशाल, सर्वव्यापी ।
२ आ. दत्तात्रेय : यह शब्द दत्त + आत्रेय, इस प्रकार बना है । आत्रेय अर्थात अत्रि ऋषि के पुत्र ।
३. मूर्तिविज्ञान
प्रत्येक देवता एक तत्त्व है । यह देवता-तत्त्व प्रत्येक युग में होता है एवं कालानुरूप सगुण रूपमें प्रकट होता है, उदा. भगवान श्रीविष्णु द्वारा कार्यानुमेय धारण किए हुए नौ अवतार । मानव कालपरत्वे देवता का विविध रूप में पूजन करने लगा । एक विचारधारानुसार वर्ष १००० के आसपास दत्त की मूर्ति त्रिमुखी हो गई; इससे पूर्व वह एकमुखी थी । दत्त की त्रिमुखी मूर्ति के प्रत्येक हाथ में स्थित वस्तु के विषय में समझ लेंगे ।
कमंडलु त्याग का प्रतीक : कमंडलु एवं दण्ड, ये वस्तुएं संन्यासी के साथ रहती हैं । संन्यासी विरक्त होता है । कमंडलु एक प्रकार से त्याग का प्रतीक है; क्योंकि कमंडलु ही उसका ऐहिक धन होता है ।
त्रिशूल : त्रिमूर्ति रूप में महेश के हाथ में त्रिशूल और भगवान शिव के हाथ में त्रिशूल इन दोनों में एक विशेषतापूर्ण भिन्नता है । त्रिमूर्ति रूप में महेश के हाथ में जो त्रिशूल है, उसपर शृंग और वस्त्र नहीं है । इसका कारण यह है कि शृंग बजाने के लिए दत्त के पास खाली हाथ नहीं है ।
४. परिवार का भावार्थ
४ अ. गाय (पीछेकी ओर खडी) : पृथ्वी एवं कामधेनु (इच्छित फल देनेवाली)
४ आ. चार श्वान
१. चार वेद
२. गाय एवं श्वान एक प्रकार से दत्त के अस्त्र भी हैं । गाय सींग मारकर एवं श्वान काटकर शत्रु से रक्षा करते हैं ।
४ इ. गूलर का वृक्ष : दत्त का पूजनीय रूप; क्योंकि उसमें दत्ततत्त्व अधिक मात्रा में रहता है ।
(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘भगवान दत्तात्रेय’)