उत्तर प्रदेश एवं असम में ‘मदरसा बंदी’ : मुसलमानों को धार्मिक कट्टरता से बाहर निकालने का उपाय !

‘पिछले सप्ताह असम के ‘एक्शन ओरिएंटेड’ (क्रियाशील) मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा एक ‘एक्शन’ के कारण (कृत्य के कारण) राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय माध्यमों में चर्चा में बने रहे थे । इस पर देश के सामने चुनौतियों का भान न होनेवाले, भान करवाना न चाहनेवाले और तब भी स्वयं को संवेदनशील कहलानेवाले पुनः एक बार आक्रोश व्यक्त करने लगे । उसके पीछे-पीछे उत्तर प्रदेश के शक्तिशाली नेतृत्व के रूप में जाने जानेवाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी समाचारों में झलकने लगे । वास्तव में देखा जाए, तो ये दोनों मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्य की समस्याओं का अलग-अलग पद्धति से समाधान निकालने के लिए विख्यात तो हैं ही, साथ ही उसके कारण वे सदैव माध्यमों में चर्चा में रहनेवाले भी हैं । इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने ऐसा कौन सा काम किया, जिससे वे चर्चा में बने रहे ? तो उन्होंने उनके प्रदेश में चली आ रही एक कालबाह्य व्यवस्था पर हथौडा चलाने का आदेश दिया ।

सरकार मुसलमान समुदाय में विद्यमान ऐसी किसी भी व्यवस्था के संबंध में कोई भी विकासात्मक नीति अपनाती है, उस समय सभी इस्लामपंथी एवं तथाकथित ‘सेक्युलर’वादी (धर्मनिरपेक्षतावादी) अस्वस्थ होकर ‘इस्लाम संकट (खतरे) में’ का नारा देता है । उस निर्णय की कडी आलोचना की जाती है । वास्तव में देखा जाए, तो इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने ‘मुसलमान समुदाय में चल रही; परंतु विश्व की दृष्टि से कालबाह्य हुए मदरसों पर आघात कर जिसे ‘रचनात्मक विध्वंस’ कहा जा सके, इस प्रकार के विकासात्मक विध्वंस का आदेश दिया । हिमंत बिस्वा सरमा ने, जिन मदरसों की जिहादियों के साथ संपर्क होने की बात उजागर हुई, उन मदरसों को गिराने का, तथा योगी आदित्यनाथ ने बिना अनुमति चल रहे १ सहस्र ५०० मदरसों के सर्वेक्षण के तथा कुछ मदरसों को बंद करने के आदेश दिए ।

१. बिना विकासात्मक सोच सिखाए मदरसे धार्मिक कट्टरता सिखाते हैं

वास्तव में देखा जाए, तो इसमें अनुचित कुछ भी नहीं है; क्योंकि केवल धार्मिक शिक्षा देना आज के समय में तो कालबाह्य हो चुका है । उसमें भी मदरसों में दी जानेवाली शिक्षा केवल कुरआन के तत्त्वों तथा पैगंबर द्वारा उनके जीवनकाल में विभिन्न विषयों पर किए गए भाष्य तक ही सीमित होती है । इसमें कालसंगत भाष्य अथवा विश्लेषण का कोई स्थान नहीं है । इसके परिणाम हैं मुसलमान समाज का वैचारिक पिछडापन और धार्मिक कट्टरता ! आज के काल में भी इन शिक्षा संस्थानों में पढाया जाता है कि ‘पृथ्वी वृत्ताकार नहीं, अपितु सपाट है ।’ इन मदरसों में किसी भी प्रकार की विकासात्मक सोच नहीं दी जाती । पीढी दर पीढी यही शिक्षा प्राप्त किए मौलवी (इस्लाम के धार्मिक नेता) अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर उनके मार्गदर्शन में शिक्षा लेनेवाले संस्कारक्षम आयु के बच्चों के मन पर अपनी सुविधा के अनुसार ‘जिहाद’ जैसी संकल्पना अंकित करते हैं । इसके साथ ही ऐसी अनेक संकल्पनाओं को इस समाजमन पर पीढियों से अंकित किया जा रहा है ।

२. मुसलमान समुदाय में सुधारवादी दृष्टिकोण के स्थान पर मनमानी की बढोतरी होना !

मदरसों में दी जानेवाली शिक्षा तो केवल औपचारिक शिक्षा तथा जानकारी का स्रोत होने से उससे भौतिक विकास न होकर केवल कट्टरता बढती जाती है । मुसलमान समुदाय में आधुनिक शिक्षा प्राप्त समुदाय की संख्या अति न्यून होने से कोई इसमें सुधार करने का प्रयास नहीं करते; क्योंकि कट्टरता के कारण शेष अधिकांश समुदाय ऐसे आधुनिक लोगों का सीधा बहिष्कार करता है । कोई मुसलमान यदि कुरआन, शरिया अथवा हदीस में हस्तक्षेप कर कालानुरूप उनका विश्लेषण करने अथवा उसमें कोई परिवर्तन लाने का प्रयास करता है, तो उन पर प्राणघातक आक्रमण किए जाते हैं । ‘हम नहीं बदलेंगे और कोई भी हमें बदलने का प्रयास न करे’, इस समुदाय की यह अनुचित विचारधारा है ।

३. इस्लामी शिक्षाव्यवस्था का कालबाह्य होना दिखाई देना !

‘विश्व भले कितना भी उदारवादी क्यों न हो; तब भी किसी प्रकार की धर्मचिकित्सा किए बिना तथा उसमें किसी प्रकार का सुधार किए बिना वैसे ही रहनेवाले हैं । हम अपनी पद्धति से संपूर्ण विश्व को इस्लाममय बना देंगे । अन्यों की आस्थाएं हमारे लिए सम्मान के पात्र नहीं हैं । हिन्दू लडकियों के साथ धोखाधडी करने के लिए हम माथे पर गंध का तिलक भी लगाएंगे । उससे हम नापाक नहीं बन जाते और हम किसी भी अन्य शक्ति की चिंता नहीं करते ।’ इस देश के मदरसों में यही सिखाया गया है । काल के अनुसार उसमें परिवर्तन न लाने से यह इस्लामी शिक्षा व्यवस्था अब कालबाह्य होती हुई दिखाई दे रही है ।

४. मुसलमानों को देश की मूल धारा में लेने के लिए उनके धर्म में सुधार लाए जाने चाहिए !

‘समाज के लिए जो अनावश्यक होता है, समाज स्वयं ही उसका बहिष्कार कर देता है । अनुचित प्रथाएं और परंपराएं बदलने योग्य ही होती हैं ।’, हिन्दू समाज तथा विचारकों ने सदैव यह बात बताई है । यह कार्य उस संबंधित समुदाय के नेतृत्व को करनी होती है तथा उसके लिए जो भी मूल्य चुकाना पडे, उसे चुकाने की तैयारी रखनी पडती है । देश को स्वाधीनता प्राप्त होने के उपरांत मुसलमान समुदाय तथा उसका नेतृत्व यह बात भूल गया है । वैसे भी देश के विभाजन के उपरांत भारत में बसा रहा जिहादी विचार रखनेवाला मुसलमान समाज तो देश के लिए शाप ही है । अतः इस समुदाय को देश की मुख्य धारा में लाना हो, तो मुसलमान धर्म में सुधार लाना आवश्यक है ।

५. मुसलमान धर्म में सुधार लाने में सरकार को प्रधानता लेना आवश्यक !

मुसलमान धर्म में सुधार लाना, उस समुदाय की क्षमता का विषय नहीं रह गया है । इस समाज में अंदर से किसी प्रकार का सुधार अत्यंत कठिन है । अतः इसके उपाय के रूप में बाहर से सुधार थोप देने की प्रक्रिया भी समय गंवानेवाली है । उदाहरणार्थ अत्यंत विकासशील तथा लचीले हिन्दू समाज ने भी अपने धर्म में सुधार लाने में बहुत समय लिया । नासिक के श्री काळाराम मंदिर का सत्याग्रह उसका उदाहरण है । इसके विपरीत सर्वदृष्टि से पिछडे राजनीतिक दल विशेष रूप से कांग्रेस एवं वामपंथियों द्वारा बिना किसी कारण तुष्टीकृत मुसलमान समुदाय के धर्म में सुधार लाने के लिए कितना समय लेगा ? इसका अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता । अतः इस स्थिति में सरकार को ही इस विषय में प्रधानता लेकर एक-एक वार करते हुए सुधार लाना आवश्यक हो जाता है ।

६. केंद्र सरकार को कानून बनाकर मदरसों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए !

इस देश में कानून बनाकर सती परंपरा बंद की गई । हमने एक झटके में ‘अनुच्छेद ३७० (जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष स्वायत्तता देने का अधिकार प्रदान करनेवाला अनुच्छेद)’ तथा ‘अनुच्छेद ३५ अ’ को रद्द कर ‘कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है’, यह बता दिया । कानून में संशोधन कर ‘तीन तलाक’ पर रोक लगाई । नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लागू किया तथा अब राष्ट्रीय नागरिकता पंजीकरण प्रक्रिया की कार्यवाही की प्रतीक्षा है । ५०० वर्षाें तक चल रहा राममंदिर निर्माण का विवाद भी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के पश्चात समाप्त हो गया । ऐसे दीर्घकालीन निर्णय लेनेवाली केंद्र सरकार आज सत्ता में है । आज की सरकार ने लगभग ३० वर्ष उपरांत नई शिक्षा नीति घोषित की है; इसलिए यही सरकार कानून बनाकर इस देश के मदरसों पर प्रतिबंध लगाए ।

७. मुसलमान समुदाय को धार्मिक कट्टरता से बाहर निकालने के लिए मदरसा बंदी का उपाय आवश्यक !

मदरसों पर प्रतिबंध लगाने की बात कदाचित मुसलमान समुदाय को विचलित कर दे । कुछ तथाकथित सुधारवादी इस निर्णय की कडी आलोचना करेंगे । कदाचित कुछ स्थानों पर आंदोलन होंगे; परंतु समाज जीवन में यह सब होना अनिवार्य है । मुसलमान समुदाय के लिए ‘तीन तलाक’ के उपरांत मदरसाबंदी आवश्यक है । इस निर्णय के कारण कुछ मुसलमान बच्चों की शैक्षिक हानि होने का आक्रोश व्यक्त किया जाएगा; परंतु जब तक ये मदरसे बंद नहीं होंगे, तब तक मुसलमान बच्चे आधुनिक शिक्षा की ओर नहीं मुडेंगे ।

यदि पानी को दूसरी दिशा में मोडना हो; तो उसके लिए पहले का मार्ग बंद करना ही पडता है । इसलिए ‘एक ओर कानूनन मदरसे बंद करना और उसके उपरांत आधुनिक शिक्षा के लिए उन्हीं संसाधनों का उपयोग करना’ ही मुसलमान समुदाय को धार्मिक कट्टरता से बाहर निकालने के लिए आवश्यक उपाय है । उससे पूर्व देश से कालबाह्य ‘मदरसा’ तंत्र का निर्मूलन करना आवश्यक है ।’

– डॉ. विवेक राजे (साभार : दैनिक ‘मुंबई तरुण भारत’, १० सितंबर २०२२)